जहांगीर के शासन काल में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में प्रवेश किया तथा सर टॉमस रो ने बादशाह जहांगीर से भारत में व्यापार करने की अनुमति प्राप्त की। अंग्रेज इस देश में आए तो व्यापारिक उद्देश्यों से थे किंतु उन्होंने अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक हाथ में धर्म का झण्डा और दूसरे हाथ में साम्राज्य विस्तार की तलवार थाम रखी थी।
जैसे-जैसे भारत में मुगल सत्ता कमजोर पड़ती गई तथा हिन्दू राजाओं में अपना वर्चस्व स्थापित करने की होड़ बढ़ती गई, वैसे-वैसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत के देशी राजाओं के झगड़े में पड़कर अपने पांव पसारने आरम्भ कर दिए।
मुगल सत्ता के कमजोर हो जाने के बाद केंद्रीय स्तर पर राजनीतिक शक्ति की अनुपस्थिति की भरपाई करने के लिए मराठे सामने आए। उनके पाँच शक्तिशाली राज्य बने- पूना में पेशवा, नागपुर में भौंसले, इन्दौर में होल्कर, गुजरात में गायकवाड़ तथा ग्वालियर में सिंधिया। यहाँ से वे लगभग पूरे उत्तरी भारत पर छा गए।
जब ई.1719 में मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला ने मराठों को भारत के कुछ भागों से चौथ वसूलने का अधिकार दे दिया तो पेशवा बाजीराव, राजपूताने के राज्यों से भी चौथ मांगने लगा क्योंकि राजपूताना के राज्य मुगल सल्तनत के अधीन थे तथा उसे कर देते रहे थे। राजपूताने के राज्यों ने अलग-अलग रहकर स्वयं को मराठों से निबटने में असमर्थ पाया।
इसलिए ई.1734 में राजपूताने के शासकों ने हुरड़ा नामक स्थान पर एक सम्मेलन आयोजित किया जिसे हुरड़ा सम्मेलन भी कहते हैं। इस सम्मेलन में मराठों के विरुद्ध राजपूताने के राज्यों का संघ बनाया गया। इस सम्मेलन में शासकों द्वारा बातें तो बड़ी-बड़ी की गईं किंतु राजाओं के इस संघ ने कोई कार्यवाही नहीं की। राजा लोग तो स्वयं ही एक दूसरे से शंकित थे इसलिए मिलकर कार्य नहीं कर सकते थे।
ई.1737 में कोटा में मराठों का प्रतिनिधि नियुक्त हुआ जो कोटा और बूंदी से चौथ वसूलने का काम करता था। उदयपुर एवं जयपुर ने भी पेशवा बाजीराव से संधि कर ली और कर देना स्वीकार कर लिया। जोधपुर नरेश विजयसिंह ने भी मराठों को चौथ देना स्वीकार किया। मराठों ने मेवाड़ राज्य की बुरी गत बनाई।
सिंधिया, होल्कर और पेशवा की सेनाओं ने मेवाड़ को जी भर कर लूटा जिससे राजा और प्रजा दोनों निर्धन हो गए। कर्नल टॉड के अनुसार मेवाड़ नरेश जगतसिंह से लेकर मेवाड़ नरेश अरिसिंह के समय तक मराठों ने मेवाड़ से 1 करोड़ 81 लाख रुपये नगद तथा 29.5 लाख रुपये वार्षिक आय के परगने छीन लिए। यहाँ तक कि मराठों की रानी अहिल्याबाई ने केवल चिट्ठी से धमकाकर मेवाड़ से नींबाहेड़ा का परगना ले लिया।
जब जयसिंह की मृत्यु के बाद ईश्वरीसिंह जयपुर का राजा हुआ तो जयसिंह की मेवाड़ी रानी से उत्पन्न राजकुमार माधोसिंह ने मेवाड़ तथा मराठों का सहयोग प्राप्त कर जयपुर राज्य पर आक्रमण कर दिया। राजा साहू, गंगाधर टांटिया तथा मल्हार राव होल्कर ने ईश्वरीसिंह को परास्त कर दिया तथा उससे संधि करने के बदले में बहुत बड़ी रकम मांगने लगे। ईश्वरीसिंह इस रकम को देने में असमर्थ था।
जब मराठे जयपुर नगर के परकोटे के बाहर दिखाई देने लगे तो उनसे आतंकित होकर ईश्वरीसिंह ने आत्महत्या कर ली। माधोसिंह जयपुर की गद्दी पर बैठा। होलकर और सिंधिया ने माधोसिंह से भारी रकम की मांग की जिसे पूरा करना माधोसिंह के वश में नहीं था। इस पर 4000 मराठा सैनिक, जयपुर में घुसकर उपद्रव करने लगे।
राजा को मराठों के विरुद्ध कार्यवाही करने में असमर्थ जानकर जनता ने विद्रोह कर दिया और 1500 मराठा सैनिकों को घेर कर मार डाला। माधोसिंह को मराठों से क्षमा याचना करनी पड़ी और उन्हें काफी रुपया देकर विदा करना पड़ा। इससे राज्य की आर्थिक स्थिति शोचनीय हो गई। राजा की निर्बलता से उत्साहित होकर सामन्तगण, राज्य की खालसा भूमि बलपूर्वक दबाने लगे। राज्य के सामन्तों में गुटबंदी होने लगी जिससे राज्य में घोर अराजकता एवं अव्यवस्था फैल गई।
मराठों ने मारवाड़ नरेश रामसिंह और विजयसिंह के बीच हुए झगड़े में हस्तक्षेप किया तथा रामसिंह के समर्थन में मारवाड़ पर आक्रमण कर दिया। उस समय राजा विजयसिंह नागौर के दुर्ग में था इसलिए मराठों के सरदार जयआपा ने ताऊसर में डेरा डाला तथा 31 अक्टूबर 1754 को नागौर का दुर्ग घेर लिया। जयआपा के पुत्र जनकोजी ने जोधपुर का दुर्ग जा घेरा। हरसोलाव का ठाकुर सूरतसिंह चांपावत, शोभायत गोरधनदास खींची तथा सुंदर आदि सरदार उस समय जोधपुर दुर्ग में थे। इसलिए उन्होंने जोधपुर दुर्ग का मोर्चा संभाला।
विजयसिंह ने नागौर दुर्ग में मराठों का सामना किया जाना संभव न जानकर मेवाड़ के महाराणा राजसिंह (द्वितीय) से मध्यस्थता करने का आग्रह किया। राजसिंह ने सलूम्बर के रावत जैतसिंह को संधि करवाने के लिए नागौर भेजा किंतु जैतसिंह को इस कार्य में सफलता नहीं मिली।
मराठों का घेरा बहुत कड़ा था। वे दुर्ग में रसद पहुंचाने का प्रयास करने वालों के नाक-कान एवं हाथ काट लेते थे। कई दिनों तक यही स्थिति रही। एक दिन खोखर केसर खाँ तथा एक गहलोत सरदार ने महाराजा से कहा कि इस तरह मरने से तो अच्छा है कि कुछ किया जाए। वे दोनों महाराजा की अनुमति लेकर व्यापारियों के वेश में मराठों की छावनी में दुकान लगाकर बैठ गए।
एक दिन दोनों ने आपस में झगड़ना आरम्भ कर दिया और लड़ते हुए जयआपा के तम्बू तक जा पहुँचे। जयआपा उस समय नहा रहा था, उसने इन्हें तम्बू के भीतर बुला लिया। मारवाड़ी सरदारों ने तम्बू के भीतर पहुंचकर जयआपा का काम तमाम कर दिया। इस सम्बन्ध में एक कहावत कही जाती है-
खोखर बड़ो खुराकी, खा गयो अप्पा जैसो डाकी ।
जयआपा के मारे जाने पर मराठों ने क्रुद्ध होकर नागौर दुर्ग पर धावा बोल दिया। विजयसिंह नागौर दुर्ग से भाग निकला तथा उसने बीकानेर के राजा गजसिंह के यहाँ शरण ली। 14 माह तक मराठे नागौर दुर्ग को घेरकर बैठे रहे। 2 फरवरी 1756 को दोनों पक्षों के बीच समझौता हुआ जिसके अनुसार जोधपुर, नागौर, मेड़ता आदि आधा मारवाड़ विजयसिंह के पास रहा तथा जालोर, मारोठ एवं सोजत रामसिंह (जोधपुर के अपदस्थ राजा) के पास रहे। ई.1790 में एक बार फिर मराठों ने फ्रैंच अधिकारी डी बोईने की अध्यक्षता में एक सेना को मारवाड़ पर आक्रमण करने भेजा।
मारवाड़ की सेना ने मेड़ता के बाहर फ्रैंच सेनापति का सामना किया। इस युद्ध में फ्रैंच सेना की जीत हो गई। इसके बाद बोईने ने मारवाड़ की राजधानी जोधपुर के मेहरानगढ़ दुर्ग को आ घेरा। इस पर विजयसिंह ने मराठों को चौथ देना स्वीकार कर कर लिया तथा उन्हें अजमेर समर्पित कर दिया। कोटा के दीवान जालिमसिंह ने मराठों से सहयोग एवं संधि का मार्ग अपनाया।
भरतपुर के जाट राजा ने मराठों के सहयोग से अपनी शक्ति बढ़ाई। बीकानेर तथा जैसलमेर की रेगिस्तानी रियासतें मराठों के आक्रमणों से अप्रभावित रहीं। राजपूताने के राजा, मराठा शक्ति से इतने संत्रस्त थे कि अहमदशाह अब्दाली द्वारा ई.1761 में पानीपत के मैदान में 1 लाख मराठों की हत्या कर दिए जाने के उपरांत भी राजपूताने के शासक कोई लाभ नहीं उठा सके और अपने राज्यों से मराठों को बाहर नहीं धकेल सके। मराठों ने शीघ्र ही अपनी नई सेनाएं खड़ी कर लीं और वे राजपूत रियासतों को लूटने लगे।
ई.1818 में कर्नल टॉड मेवाड़ से होकर गुजरा। उसने उस समय के राजपूताने की दशा का वर्णन करते हुए लिखा है- ‘जहाजपुर होकर कुंभलमेर जाते समय मुझे एक सौ चालीस मील में दो कस्बों के सिवा और कहीं मनुष्य के पैरों के चिह्न तक नहीं दिखाई दिए। जगह-जगह बबूल के पेड़ खड़े थे और रास्तों पर घास उग रही थी। उजड़े गावों में चीते, सूअर आदि वन्य पशुओं ने अपने रहने के स्थान बना रखे थे। उदयपुर में जहाँ पहले पचास हजार घर आबाद थे, अब केवल तीन हजार रह गए थे। मेर और भील पहाड़ियों से निकल कर यात्रियों को लूटते थे।’
ई.1882 में भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र मेवाड़ आए। अपने यात्रा प्रसंग में उन्होंने लिखा है- ‘ये मदमत्त मरहठे अपना स्वरूप भूलकर राजपूताने के क्षत्रियों को दुःख न देते तो राजपूताने की एकाएकी वर्तमान दशा इतनी खराब न होती।’ इस मराठा शक्ति के विरुद्ध राजपूताना कभी एक नहीं हो सका और अपनी रक्षा के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी की ओर ताकता रहा।
-डॉ. मोहन लाल गुप्ता