जब मध्य एशिया में मुस्लिम राज्यों के उदय के बाद भारत आने के व्यापारिक मार्ग बंद हो गए तो यूरोप की कम्पनियां समुद्री मार्ग से भारत पहुंचीं। उस समय भारत में मुगलों का शासन था। भारत में आने वाली चार यूरोपीय कम्पनियां पुर्तगाल, फ्रांस, हॉलैण्ड तथा इंग्लैण्ड से आई थीं। इनमें से सबसे अंत में आने वाली कम्पनी ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी थी।
भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का आगमन ई.1608 में हुआ जब 24 अगस्त को सूरत के मामूली से बंदरगाह पर अंग्रेजों के व्यापारिक जहाज ‘हेक्टर’ ने लंगर डाला। उनके आने से पहले पुर्तगाली और फ्रांसीसी कम्पनियां भारत में व्यापार कर रही थीं। अंग्रेजी कम्पनी के जहाज का कप्तान विलियम हॉकिंस नाविक कम, लुटेरा अधिक था।
वह सूरत से आगरा की ओर चला जहाँ उसकी भेंट बादशाह जहांगीर से हुई। हॉकिंस की दृष्टि में बादशाह जहांगीर इतना धनवान और सामर्थ्यवान था कि उसकी अपेक्षा इंग्लैण्ड की रानी अत्यंत साधारण सूबेदारिन से अधिक नहीं ठहरती थी।
अंग्रेज इस देश में आए तो व्यापारिक उद्देश्यों से थे किंतु उन्होंने अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक हाथ में धर्म का झण्डा और दूसरे हाथ में सार्माज्य विस्तार की तलवार थाम रखी थी। विलियम हॉकिन्स जहांगीर के दरबार में उपस्थित हुआ तथा उसे उपहार आदि देकर प्रसन्न किया। जहांगीर ने उसे 400 सवार का मन्सब तथा एक जागीर प्रदान की।
ई.1615 में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारी सर टामस रो ने अजमेर में जहांगीर के समक्ष उपस्थित होकर भारत में व्यापार करने की अनुमति मांगी। जहांगीर ने अंग्रेजों को बम्बई के उत्तर में अपनी कोठियां खड़ी करने और व्यापार चलाने की अनुमति प्रदान की। शीघ्र ही ईस्ट इण्डिया कम्पनी के दो जहाज प्रति माह भारत आने लगे। वे जो माल इंग्लैण्ड ले जाते थे, वह माल यूरोप में अत्यधिक ऊंचे दामों पर बिकता था।
इतिहासकारों का मानना है कि भारत में आगमन के बाद आगामी एक सौ पचास वर्षों तक अंग्रेज व्यापारी ही बने रहे। यह सही है कि इस काल में उन्होंने ‘व्यापार, न कि भूमि’ की नीति अपनाई किंतु वे नितांत व्यापारी बने रहे, यह बात सही नहीं है। ई.1619 में सर टॉमस रो ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सलाह दी- ‘मैं आपको (इंगलैण्ड के राजा को) विश्वास दिलाता हूँ कि इन लोगों (भारतीयों) के साथ सबसे अच्छा व्यवहार तभी किया जा सकता है जब एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में संवादवाहक की छड़ी हो।’ पूरे डेढ़ सौ साल तक अंग्रेज शक्ति इस सलाह पर अमल करती रही।
मुगलों के अस्ताचल में जाने एवं पुर्तगाली, डच तथा फ्रैंच शक्तियों को परास्त कर भारत में अपने लिए मैदान साफ करने में अंग्रेजों को अठारहवीं सदी के मध्य तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। 23 जून 1757 के प्लासी युद्ध के पश्चात् ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भारत में प्रथम बार राजनीतिक सत्ता प्राप्त हुई। इसके बाद अंग्रेजों ने अपनी नीति ‘भूमि, न कि व्यापार’ कर दी।
ई.1765 के बक्सर युद्ध के पश्चात् हुई इलाहाबाद संधि के पश्चात् ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में पूर्णतः राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित हुई। गांधीजी के सहयोगी प्यारेलाल ने लिखा है- ”इतिहास के विभिन्न कालों में ब्रिटिश नीति में कई परिवर्तन हुए किंतु भारत में साम्राज्यिक शासन को बनाए रखने का प्रमुख विचार, उन परिवर्तनों को जोड़ने वाले सूत्र के रूप में सदैव विद्यमान रहा है। यह नीति तीन मुख्यतः चरणों से निकली है जिन्हें घेराबंदी, अधीनस्थ अलगाव तथा अधीनस्थ संघ कहा जाता है। राज्यों की दृष्टि से इन्हें ‘ब्रिटेन की सुरक्षा’, ‘आरोहण’ तथा ‘साम्राज्य’ कहा जा सकता है।”
प्यारेलाल लिखते हैं- ”ब्रिटिश नीति के प्रथम चरण (ई.1765-98) में नियामक विचार ‘सुरक्षा’ तथा ‘भारत में इंगलैण्ड की स्थिति’ का प्रदर्शन’ था।” इस काल में कम्पनी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही थी। यह चारों ओर से अपने शत्रुओं और प्रतिकूलताओं से घिरी हुई थी। इसलिए स्वाभाविक रूप से कम्पनी ने स्थानीय संभावनाओं में से मित्र एवं सहायक ढूंढे।
इन मित्रों के प्रति कम्पनी की नीति चाटुकारिता युक्त, कृपाकांक्षा युक्त एवं परस्पर आदान-प्रदान की थी। ई.1756 से 1813 तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने देशी राज्यों के प्रति ‘घेरा डालने की नीति’ अपनाई। इस अवधि में देशी रियासतों के साथ समानता और स्वतंत्रता के आधार पर समझौते किए गए और इनमें परस्पर कार्य का विचार रखा गया।
एल्फिंस्टन के अनुसार- ‘भारतीय रियासतों को इसलिए सहन किया गया था क्योंकि वे उन लोगों के लिए शरणस्थल थीं जिनकी युद्ध, षड़यंत्र और लूट-मार की आदत उन्हें ब्रिटिश भारत में शांतिपूर्ण नागरिकों के रूप में नहीं रहने देती थी।’
क्लाइव (ई.1758-67) ने मुगल सत्ता की अनुकम्पा प्राप्त की। वारेन हेस्टिंग्स (ई.1772-1785) ने अपने काल के अन्य दूसरे ब्रिटिश शासकों की भांति स्थानीय शक्तियों की सहायता से विस्तार की नीति अपनाई। उसके काल में कम्पनी का राज्य बहुत बड़े भू-भाग में फैल गया।
इस कारण ई.1784 के पिट्स इण्डिया एक्ट में घोषणा की गई कि किसी भी नए क्षेत्र को कम्पनी के क्षेत्र में जबर्दस्ती नहीं मिलाया जाएगा किंतु ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इस नीति का अनुसरण कभी नहीं किया।
लार्ड कार्नवालिस (ई.1786-1793) तथा सर जॉन शोर ने देशी राज्यों के प्रति ‘अहस्तक्षेप की नीति’ अपनाई। इस नीति को अपनाने के पीछे उसका विचार मित्र शक्तियों की अवरोधक दीवार खड़ी करने तथा जहाँ तक संभव हो, विजित मित्र शक्तियों की घेरेबंदी में रहने का था। लॉर्ड कार्नवालिस (ई.1805) तथा बारलो (ई.1805-1807) ने देशी रियासतों की ओर से किए जा रहे संधियों के प्रयत्नों को अस्वीकृत भी किया विशेषतः जयपुर के मामले में।
इस समय तक राजपूताने की रियासतें मराठा और पिण्डारियों का शिकार स्थल बनी हुई थीं जो भारत में ब्रिटिश सत्ता के प्रतिद्वंद्वी थे। कम्पनी के अधिकारियों द्वारा शीघ्र ही अनुभव किया जाने लगा कि यदि स्थानीय शक्तियों की स्वयं की घेरेबंदी नहीं की गई तथा उन्हें अधीनस्थ स्थिति में नहीं लाया गया तो अंग्रेजों की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। इससे प्रेरित होकर लॉर्ड कार्नवालिस ने आधा मैसूर राज्य ईस्ट इण्डिया कम्पनी के क्षेत्र में मिला लिया।
लॉर्ड वेलेजली (ई.1798 से 1805) के काल में ब्रिटिश नीति का अगला चरण आरम्भ हुआ। इस चरण (1798-1858) में ‘सहयोग’ के स्थान पर ‘प्रभुत्व’ ने प्रमुखता ले ली। लार्ड वेलेजली ने ‘अधीनस्थ संधियों’ के माध्यम से ब्रिटिश सत्ता को समस्त भारतीय राज्यों पर थोपने का निर्णय लिया ताकि अधीनस्थ राज्य ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध किसी तरह का संघ न बना सकें।
उसने मैसूर राज्य का अस्तित्व ही मिटा दिया तथा ‘सहायता के समझौतों’से ब्रिटिश प्रभुत्व को और भी दृढ़ता से स्थापित कर दिया। लॉर्ड वेलेजली ने प्रयत्न किया कि राजपूताने के राज्यों को ब्रिटिश प्रभाव एवं मित्रता के क्षेत्र में लाया जाए किंतु उसमें सफलता नहीं मिली। ई.1803 में लॉर्ड लेक ने जोधपुर राज्य के साथ समझौता किया किंतु वह कभी लागू नहीं हुआ। कोनार्ड कोरफील्ड ने लिखा है- ‘ई.1805 तक लगभग सम्पूर्ण भारत ब्रिटिश नियंत्रण द्वारा आच्छादित कर लिया गया था।’ जो रियासतें ब्रिटिश साम्राज्य से संलग्न होने से बच गई थीं, उनके लिए वेलेजली ने अधीनस्थ संधि की पद्धति निर्मित की। इस पद्धति में शासक रियासत के आंतरिक प्रबन्ध को अपने पास रखता था किंतु बाह्य शांति एवं सुरक्षा के दायित्व को ब्रिटिश शक्ति को समर्पित कर देता था।
- डॉ. मोहनलाल गुप्ता