हल्दीघाटी का युद्ध और महाराणा प्रताप, एक-दूसरे के पर्याय हैं। हल्दीघाटी से लोग महाराणा प्रताप को जानते हैं और महाराणा प्रताप से हल्दीघाटी को। महाराणा प्रताप ‘हिन्दू स्वातंत्र्य’ और ‘राष्ट्रीय चेतना’ का प्रतीक बन गये हैं तो हल्दीघाटी ‘भारतीय शौर्य’ और ‘राष्ट्रीय पराक्रम’ का प्रतिबिम्ब।
हल्दीघाटी, भारत के उन प्रसिद्ध समरांगणों में से एक है जिनमें भारतीय शौर्य, साहस, पराक्रम, विजय एवं आत्मोत्सर्ग की गौरव गाथाएं लिखी गईं। ईक्ष्वाकुओं की उज्जवल परम्पराओं से सम्पन्न गुहिल वंश में उत्पन्न महाराणा प्रताप, इस युद्ध के पश्चात् भारतीय जन-मानस में प्रदीप्त रहने वाली एक ऐसी दिव्य ज्योति के रूप में प्रकाशित हुए जो विगत लगभग पांच शताब्दियों से हिन्दुआनी आन-बान-शान का उजाला पूरी धरती पर फैला रही है।
हल्दीघाटी के मैदान में न केवल महाराणा प्रताप ने, अपितु उनके सेनानायक झाला मान, तंवर राजा रामशाह और महाराणा के अश्व चेटक ने ‘राष्ट्र-आराधन’ के ऐसे अनूठे प्रतिमान स्थापित किये जो आज भी संसार के किसी भी मनुष्य का हृदय उदात्त भावों से परिपूर्ण एवं रोमांचित कर देते हैं। यही कारण है कि कर्नल टॉड ने हल्दीघाटी को भारत का ‘थर्मोपेली’ कहकर इसका अभिनंदन किया।
यद्यपि प्रस्तुत पुस्तक हल्दीघाटी के मैदान में 18 जून 1576 को हुए एक दिवसीय युद्ध के घटनाक्रम पर आधारित है तथापि हल्दीघाटी का युद्ध एक दिवसीय घटना मात्र नहीं है। यह घटनाओं का एक ऐसा विस्तृत क्रम है जिसकी जड़ें लगभग 1000 साल पहले के इतिहास में दिखाई देती हैं जब गुहिलों ने भारत पर चढ़कर आई खलीफा की सेना के विरुद्ध अभियान किया।
हल्दीघाटी के पुष्प भारत की आजादी के रूप में ई.1947 में खिलते हुए दिखाई देते हैं तथा इसके फल तब प्रकट होते हैं जब 30 मार्च 1949 के दिन भारत के प्रथम गृहमंत्री सरदार पटेल, वृहत् राजस्थान का उद्घाटन करते समय यह कहते हुए सुनाई देते हैं कि हम प्रताप का स्वप्न साकार कर रहे हैं।
यह पुस्तक हल्दीघाटी के उन समस्त शूरमाओं को विनम्र श्रद्धांजलि है जो अपनी जन्मभूमि की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये अपने प्राणों की बलि देकर अमर हो गये।
महाराणा प्रताप सोलहवीं शताब्दी में उत्तर भारत के अनेक राजाओं में से एक थे किंतु वे उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम की सीमाओं को लांघकर भारत राष्ट्र की अस्मिता का ठीक वैसा ही प्रतीक बन गये जैसा कि चौथी शताब्दी का महान सम्राट समुद्रगुप्त था। समुद्रगुप्त ने यह प्रतिष्ठा दिग्विजय के माध्यम से प्राप्त की थी और महाराणा प्रताप ने यह प्रतिष्ठा अपने युग के प्रबलतम मुगल बादशाह के संधि प्रस्ताव को ठुकराकर स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने समस्त सुखों को न्यौछावर करके प्राप्त की।
आज भी पूरा विश्व महाराणा प्रताप को श्रद्धा से स्मरण करता है। दुर्भाग्य से समकालीन मुस्लिम इतिहासकारों ने तथ्यों को तोड़-मोड़कर हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा की पराजय और अकबर की विजय दर्शाई है किंतु तथ्य महाराणा प्रताप के पक्ष में हैं। इस पुस्तक के माध्यम से उन तथ्यों को उनकी सम्पूर्ण सच्चाई के साथ पाठकों के समक्ष रखने का प्रयास किया गया है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता