Thursday, November 21, 2024
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5. उत्तराधिकार के युद्ध के बाद सवाई जयसिंह

21 फरवरी 1707 को औरंगजेब की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद मुगलों की परम्परा के अनुसार बादशाह के समस्त पुत्रों में मुगलिया तख्त के लिये खूनी संघर्ष छिड़ गया। इनमें से किसी एक को जीतना था और शेष सब को मर जाना था। औरंगजेब की मृत्यु के समय उसका सबसे छोटा पुत्र कामबख्श दक्षिण था। वह चुपचाप दक्षिण में ही बैठा रहा क्योंकि उसका विचार दक्षिण भारत में ही अपने लिए एक स्वतंत्र राज्य का निर्माण करने का था। इस प्रकार औरंगजेब के बड़े पुत्र मुअज्जम और उससे छोटे पुत्र आजम के मध्य भयानक युद्ध लड़ा गया। शहजादा आजम इस समय दक्षिण में था और जयसिंह आजम के पुत्र बेदारबख्त के साथ गुजरात में नियुक्त था। अतः जयसिंह को विवश होकर आजम और बेदारबख्त का साथ देना पड़ा। राजा जयसिंह का छोटा भाई विजयसिंह जो आमेर का शासक बनना चाहता था, ने इस संघर्ष में मुअज्जम का साथ दिया। विजयसिंह को  चीमाजी भी कहते थे। जाजऊ के मैदान में मुअज्जम और आजम की सेनाओं में निर्णायक युद्ध लड़ा गया। युद्ध आरम्भ होने के कुछ घण्टों में ही स्पष्ट हो गया कि मुअज्जम की सेना भारी पड़ रही है। इसलिये राजा जयसिंह, आजम का पक्ष त्यागकर, अपने एक हजार सैनिकों के साथ, मुअज्जम से जा मिला। युद्ध का परिणाम आजम तथा आजम के पुत्र बेदारबख्त की मृत्यु के रूप में हुआ। जून 1707 में 65 वर्ष का बूढ़ा और ईर्ष्यालु मुअज्जम, बहादुरशाह के नाम से मुगलों के तख्त पर बैठा। औरंगजेब की तरह उसने भी जयसिंह से शत्रुता बांध ली क्योंकि जयसिंह ने आरम्भ में आजम का साथ दिया था।

जयसिंह की राज्यच्युति

बादशाह बनते ही बहादुरशाह, सवाई जयसिंह को दण्डित करने के लिये आमेर आया। उसने आमेर में अकबर की बनाई हुई मस्जिद में नमाज पढ़ी और आमेर का नाम मोमिनाबाद रख दिया। धूर्तता और मक्कारी में बहादुरशाह अपने पिता औरंगजेब से दो गज आगे था। उसने 10 जनवरी 1708 को जयसिंह से आमेर का राज्य छीनकर उसके छोटे भाई विजयसिंह को राजा बना दिया तथा उसे मिर्जा राजा की उपाधि दी। जयसिंह के पास केवल दौसा की जागीर छोड़ी गई। राजच्युत हो जाने के कारण जयसिंह अब मुगल मनसबदार मात्र रह गया। इसके बाद बहादुरशाह, अपने छोटे भाई कामबख्श से निबटने के लिए दक्षिण की तरफ चल पड़ा क्योंकि कामबख्श ने स्वयं को हैदराबाद में बादशाह घोषित कर दिया था। सवाई जयसिंह भी, आमेर का राज्य पुनः प्राप्त करने की आशा में बहादुरशाह के साथ दक्षिण की तरफ गया। उसे विश्वास था कि बहादुरशाह का क्रोध शान्त होते ही उसे आमेर का राज्य वापिस मिला जायेगा। मार्ग में जोधपुर का राज्यच्युत उत्तराधिकारी अजीतसिंह भी जयसिंह के साथ हो लिया। मेड़ता में दोनों राजाओं ने बहादुरशाह से भेंटकर आमेर का राज्य पुनः सवाई जयसिंह को लौटने की प्रार्थना की जिसे बादशाह ने अस्वीकार कर दिया।

मेवाड़, मारवाड़ और आमेर का संयुक्त मोर्चा

जयसिंह और अजीतसिंह, मण्डलेश्वर तक बहादुरशाह के साथ-साथ चलते रहे परन्तु जब उन्हें बादशाह की तरफ से किसी प्रकार का आश्वासन न मिला तो 21 अप्रेल 1708 को दोनों राजा, मण्डलेश्वर से चुपचाप निकल भागे और मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह (द्वितीय) के पास उदयपुर पहुँच गये। जब बहादुरशाह को इस बात की जानकारी हुई तो उसने महाराणा को लिख भेजा कि यदि दोनों राजा शाही दरबार में उपस्थित होकर क्षमा-याचना करें तो उनके राज्य फिर से उन्हें लौटा दिये जायेंगे परन्तु तीनों राजपूत राजाओं ने मुगलों से टक्कर लेने का निश्चय कर लिया। राजा जयसिंह ने कच्छवाहा राजकुमारियों का डोला मुगलों को न भेजने का संकल्प लिया। तीनों राजाओं की संयुक्त सेनाएं पहले जोधपुर पहुँचीं तथा जुलाई 1708 में अजीतसिंह को जोधपुर का अधिकार दिलवाया। इसके बाद ये संयुक्त सेनाएं आमेर की तरफ बढ़ीं। विजयसिंह और मुगल फौजदार को परास्त करके आमेर से खदेड़ दिया गया और सवाई जयसिंह को पुनः आमेर के सिंहासन पर बैठाया गया। मेवात के मुगल सूबेदार ने थोड़े दिनों तक आमेर राज्य में लूट-खसोट की परन्तु जयसिंह ने उसे शीघ्र ही आम्बेर राज्य से बाहर खदेड़ दिया।

मेवाड़, मारवाड़ और आमेर के शासकों ने जब संयुक्त रूप में मुगलों से लड़ने की योजना बनाई थी, उस अवसर पर आपसी सम्बन्धों को मजबूत बनाने के लिए मेवाड़ के महाराणा ने अपनी पुत्री चन्द्रकुंवरी का विवाह जयसिंह के साथ कर दिया। इस विवाह के समय कुछ शर्तें भी निश्चित की गईं- उदयपुर की राजकुमारी, चाहे वह छोटी ही क्यों न हो, सब रानियों में मुख्य समझी जायेगी। चन्द्र कुंवरि का पुत्र ही युवराज माना जायेगा। यदि चन्द्र कुंवरि से कन्या उत्पन्न हो तो उसका विवाह मुसलमानों के साथ नहीं किया जायेगा। जयसिंह ने ये शर्तें मानकर भावी गृह युद्ध की नींव रख दी। जोधपुर पर पुनः अधिकार हो जाने के बाद अजीतसिंह ने भी अपनी पुत्री सूरज कुंवरि का विवाह जयसिंह से कर दिया। इसके बाद कुछ समय तक इन राज्यों में आपसी एकता बनी रही। अक्टूबर 1708 में सैयद हुसैन बारहा तथा चूड़ामन जाट अपनी सेनाएं लेकर आमेर पर चढ़ आये। उन दोनों की सेनाओं को पीटकर खदेड़ दिया गया।

बहादुरशाह द्वारा समझौते का प्रयास

कामबख्श से निपटकर बहादुरशाह जब वापस उत्तर भारत में लौटा तो उसे सिक्ख विद्रोह के समाचार मिले। बहादुरशाह ने अनुभव किया कि राजपूतों की सहायता के बिना सिक्खों को दबाना असम्भव है। अतः उसने सवाई जयसिंह को आमेर का शासक स्वीकार कर लिया परन्तु जयसिंह इससे सन्तुष्ट नहीं हुआ। वह अपने लिये उपयुक्त मनसब तथा मुगल सल्तनत में महत्त्वपूर्ण पद चाहता था। 1712 ई. में बहादुरशाह की मृत्यु हो गई।

जहाँदारशाह तथा सवाई जयसिंह

बहादुरशाह के उत्तराधिकारी जहाँदारशाह (1712-13 ई.) ने जयसिंह को मनाने का प्रयास जारी रखा। इसलिये इस दौरान जयसिंह के जीवन में तथा जयसिंह के राज्य में शांति बनी रही।

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