प्राचीन भारत में सूर्यवंशियों का अत्यंत प्रतिष्ठित राजवंश, ईक्ष्वाकु वंश के नाम से, युगों-युगों तक भारत भूमि पर शासन तथा प्रजापालन करता आया था। महाराजा मनु ने अयोध्या नामक नगरी की स्थापना की थी। वही अयोध्या, ईक्ष्वाकु राजाओं की सुप्रसिद्ध राजधानी थी। ईक्ष्वाकु राजा, देवासुर संग्राम में देवताओं की ओर से लड़ने के लिये जाते थे। प्राचीन आर्य परम्परा के अनुसार एक बार इस वंश के राजा अनरण्य ने अपना राज्यपाट अपने पुत्र को देकर वानप्रस्थ ग्रहण किया।
अवसर पाकर लंका के राजा रावण ने वानप्रस्थी राजा अनरण्य की हत्या करके इस वंश को समाप्त करने की कुचेष्टा की किंतु धर्मनिष्ठ एवं प्रजापालक ईक्ष्वाकु राजवंश वृद्धि को प्राप्त होता रहा। इसी वंश में दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए जिन्होंने गंगा को पृथ्वीलोक पर उतारा। भगीरथ के पौत्र रघु प्रतापी एवं यशस्वी राजा हुए जिनके नाम से यह वंश, रघुवंश कहलाने लगा। रघुवंशी राजा सत्य-संभाषण एवं वचन-पालन के लिये प्रसिद्ध हुए।
इसी रघुवंश में भगवान श्रीराम का अवतार हुआ जिन्होंने अपने पूर्वज अनरण्य के हत्यारे रावण का वध करके धरती को पाप के बोझ से मुक्त करवाया। राजा रामचंद्र तथा उनके तीन भाइयों के दो-दो पुत्र हुए जिन्होंने दूर-दूर तक अपने राज्य स्थापित किये। इस प्रकार आसेतु हिमालय रघुवंशी राजा शासन करने लगे जो विभिन्न नामों से प्रसिद्ध हुए।
राजा रामचंद्र के लव-कुश नामक दो यशस्वी पुत्र हुए जिनका वर्णन भारतीय पुराण साहित्य में प्रचुरता से मिलता है। लव-कुश के वंशजों ने भारत भूमि के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक नगरों की स्थापना की एवं कई राज्य स्थापित किये। कुश के वंशजों में सुमित्र नामक राजा तक की एक वंशावली, विभिन्न पुराणों में कुछ अंतर के साथ मिलती है। भागवत् पुराण में सुमित्र से लेकर सिंहरथ तक की वंशावली मिलती है।
राजप्रशस्ति महाकाव्य में पुराणों, शिलालेखों एवं ख्यातों के आधार पर सिंहरथ से लेकर बापा (बप्पा) तक की एक वंशावली दी गई है। काल की कड़ियां विस्मृत हो जाने के कारण ये समस्त वंशावलियां न्यूनाधिक मात्रा में अशुद्ध एवं अपूर्ण हैं किंतु इस बात की पुष्टि निर्विवाद रूप से करती हैं कि कुश के वंशजों से उत्पन्न गुहिलों की यह शाखा, राजाओं की एक सुदीर्घ परम्परा के साथ, हजारों वर्षों तक भारत भूमि पर छोटे-छोटे खण्डों में शासन बनाये रखने में सफल रही।
इसी वंश परम्परा में वि.सं. 623 (ई.566) के लगभग गुहिल नामक एक प्रतापी राजा हुआ। ई.1869 में इस राजा के चांदी के 2000 से भी अधिक सिक्के आगरा से भूमि में गड़े हुए मिले। इन सिक्कों पर ‘श्रीगुहिल’लेख अंकित है। ये सिक्के आकार में छोटे हैं। कार्लाइल ने इन सिक्कों को गुहिल नामक राजा द्वारा प्रचलित माना है नरवर से भी कनिंघम को चांदी का एक ऐसा सिक्का मिला था जिस पर ‘श्रीगुहिलपति’लेख मिला है। इसकी लिपि, आगरा से मिले सिक्कों के समान है। अनुमान लगाया जाता है कि ‘श्रीगुहिलपति’किसी गुहिलवंशी राजा की ही उपाधि होगी।
यद्यपि गुहिल के समय का एक भी शिलालेख अथवा ताम्रपत्र नहीं मिला है जिससे गुहिल के बारे में प्रामाणिक सूचना प्राप्त हो सके तथापि ऐसे कई शिलालेख मिले हैं जिनमें इस शाखा के राजाओं की नामावली गुहिल से आरम्भ होती है। इस कारण यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि ईक्ष्वाकुओं की इस शाखा में गुहिल नामक एक प्रतापी राजा हुआ जिसके वंशज गुहिलोत कहलाये।
जयपुर के निकट चाटसू से ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी का एक शिलालेख मिला है जिसमें गुहिल के वंशज भातृभट्ट अथवा भृर्तभट्टा से बालादित्य तक 12 पीढ़ियों के राजाओं के नाम मिले हैं। चाटसू, आगरा से अधिक दूर नहीं है। अतः माना जा सकता है कि गुहिल से लेकर भृर्तृभट्ट तक के गुहिल राजा, आगरा से लेकर जयपुर तक एवं निकटवर्ती क्षेत्र में शासन करते रहे होंगे।
संस्कृत लेखों में इस वंश के लिए गुहिल, गुहिलपुत्र, गोभिलपुत्र, गुहिलोत और गौहिल्य शब्दों का प्रयोग किया गया है। बोलचाल की भाषा में इस कुल को गुहिल, गोहिल, गहलोत, तथा गैहलोत आदि नामों से पुकारा जाता है। गौरीशंकर ओझा ने सामोली गांव से मिले वि.सं. 703 (ई.646) के शिलालेख को आधार मानकर गुहिल राजा का समय वि.सं. 623 (ई.566) के आसपास निर्धारित किया है।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता