प्राचीन आर्यों ने भारत में राजन्य व्यवस्था आरम्भ की थी जो सूर्यवंशी, चंद्रवंशी एवं यदुवंशी राजाओं के नेतृत्व में, जनपदों का निर्माण करती हुई महाजनपदों में बदल गई। प्रत्येक महाजनपद अपने आप को राष्ट्र कहता था। अपने कुल, गोत्र, स्वामि एवं भूमि के प्रति अनन्य निष्ठा ने आर्य राजाओं में राजन्य काल से ही परस्पर संघर्ष की परम्परा को जन्म दिया। इस कारण आर्य राजा, राजनीतिक रूप से एक स्थाई राष्ट्र का निर्माण नहीं कर पाये किंतु सांस्कृतिक स्तर पर ऋग्वैदिक काल से ही एक राष्ट्र के निर्माण का कार्य चल रहा था जिसके कारण आर्यों की संस्कृति हिन्दुकुश पर्वत से लेकर समुद्र तटों तक तथा उनके पार भी फैल गई। आसेतु हिमालय विविध नृवंशों के अधिवासन के उपरांत भी यह सम्पूर्ण भू-भाग सांस्कृतिक ऐक्य के आधार पर ही भारतवर्ष कहलाया। ईक्ष्वाकु वंश की विभिन्न शाखाएं विभिन्न नामों से, भारतवर्ष के अधिंकाश क्षेत्रों पर शासन करती थीं।
रामायण काल एवं महाभारत काल से आगे निकलकर, चौथी शताब्दी ई.पू. में आचार्य चाणक्य के मार्गदर्शन में मौर्य सम्राटों ने पहली बार राजनीतिक रूप से भारत राष्ट्र का निर्माण किया जिसमें अन्य राजाओं को केन्द्रीय सत्ता की प्रत्यक्ष अधीनता स्वीकार करनी पड़ी तथा वे मौर्य साम्राज्य के अधीनस्थ तथा करद राज्य बन गये। मौर्यों के पतन के बाद भारत में कई सौ वर्षों तक केन्द्रीय सत्ता का अभाव रहा तथा छोटे-छोटे राज्य, परस्पर लड़भिड़ कर बड़ी राज्यसत्ता स्थापित करने का प्रयास करते रहे।
चौथी शताब्दी ईस्वी में गुप्त साम्राज्य के उदय के साथ ही भारत में पुनः एक केन्द्रीय सत्ता दिखाई देती है जो हूणों से लड़कर बिखर गई। इसी दौर में गुहिल राज्यवंश अस्तित्व में आया जो सूर्यवंशी ईक्ष्वाकु राजकुल की ही एक शाखा था। गुहिलों ने चित्तौड़ में जिस राज्य की स्थापना की, वह मेवाड़ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
इस वंश के राजा, सूर्यवंशी राजाओं की प्राचीन मान्यताओं, आदर्शों एवं मूल्यों में गहरी आस्था रखते थे। इस कारण गुहिलवंशी राजाओं ने कभी भी, किसी भी शक्ति के समक्ष हथियार नहीं रखे, न किसी से पराजय स्वीकार की। महाराणाओं ने मंदशक्ति के काल में भी अपने स्वाभिमान का त्याग नहीं किया, न अपनी मर्यादा के विपरीत आचरण किया। इस कारण उन्हें हर युग में राष्ट्रीय राजनीति में सर्वोच्च सम्मान और स्थान मिलता रहा। मेवाड़ के गुहिल राजा, कभी भी अपने राज्य की राजनीति तक सीमित नहीं रहे, जैसे ही उन्हें अवसर मिला तथा जब भी राष्ट्र को मेवाड़ की सेवाओं की आवश्यकता हुई, महाराणाओं ने राष्ट्रीय राजनीति का नेतृत्व किया।
काल के प्रवाह में गुहिलों का अधिकांश प्राचीन इतिहास विलुप्त हो गया है फिर भी जो कुछ उपलब्ध है, उससे गुहिलों की, भारत की राष्ट्रीय राजनीति पर पकड़ स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। मध्यकाल में गुहिलों ने न केवल भारतीय राजनीति का निर्माण किया अपितु वे हिन्दू आन-बान और शान का प्रतीक बन गये। आधुनिक काल में मेवाड़ के गुहिलों ने अपनी प्रतिष्ठा उसी ठाठ-बाट के साथ बनाये रखी किंतु स्वतंत्र भारत में लिखे गये इतिहास में राजनीतिक दलों के नेताओं के इतिहास को इतनी प्रमुखता से लिखा गया कि इस काल में गुहिलों के राष्ट्रीय अवदान पर ध्यान नहीं दिया गया तथा उनकी राष्ट्रीय सेवाओं का समुचित मूल्यांकन नहीं किया गया। यद्यपि लेखक इतना प्रतिभा-सम्पन्न नहीं है कि मेवाड़ के महाराणाओं के राष्ट्रीय अवदान का सही-सही मूल्यांकन कर सके तथापि उपलब्ध सामग्री के आधार पर इस ग्रंथ की रचना करने का लघु प्रयास किया गया है। विविध ऐतिहासिक साक्ष्यों का उपयोग करके शोधपूर्ण एवं प्रामाणिक तथ्य एकत्रित किये गये हैं तथा प्राप्त तथ्यों का बिना किसी लाग-लपेट एवं राग-द्वेष के, विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
मैं इस पुस्तक के लेखन हेतु प्रेरणा देने के लिये महाराणा मेवाड़ हिस्टोरिकल पब्लिकेशन्स ट्रस्ट के अध्यक्ष श्री अरविंदसिंह मेवाड़ तथा उनके अधिकारियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ जिन्होंने मेरी लेखनी को मेवाड़ के महाराणाओं का इतिहास राष्ट्रीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में लिखने के लिये अवलम्बन प्रदान किया। मेवाड़ चेरिटेबल फाउण्डेशन ट्रस्ट के उपसचिव श्री मयंक गुप्ता तथा राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर के श्री राजेन्द्र सिंघवी को संदर्भ सामग्री जुटाने में सहयोग करने के लिये मैं उनका हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ। इतिहास विषयक बहुमूल्य सुझावों के लिये श्री राजेन्द्रनाथ पुरोहित को धन्यवाद ज्ञापित करने में, मैं अपना गौरव समझता हूँ। आशा है यह पुस्तक जिज्ञासु पाठकों, इतिहास के शोधार्थियों एवं विश्वविद्यालयों के अध्यापकों के लिये उपयोगी सिद्ध होगी। शुभम्।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता