पाँचवी शताब्दी ईस्वी में यूरोप में प्रबल पश्चिमी रोमन साम्राज्य का अंत हो गया तथा छठी शताब्दी ईस्वी का आगमन होने तक, यूरोप छोटे-छोटे जरमेनियन-राज्यों में बिखर गया। इस स्थिति का लाभ उठाकर पूर्वी रोमन साम्राज्य ने सम्राट जस्टीनियन के नेतृत्व में विस्तार करना आरम्भ कर दिया तथा उसने नॉर्थ अफ्रीका पर कब्जा करके इटली पर भी अधिकार कर लिया। इसके बाद जस्टीनियन ने पश्चिमी रोमन साम्राज्य की तरफ बढ़ना आरम्भ किया किंतु जस्टीनियन के मरते ही उसका राज्य बिखर गया तथा पुनः नवीन राज्य स्थापित होने लगे।
जब यूरोप में यह घटनाचक्र अपने चरम पर था तब उत्तर भारत में शक्तिशाली गुप्तवंश का शासन था जिनका काल, भारत के इतिहास का स्वर्णकाल कहलाता है। यह वंश भारत में विष्णु धर्म की पुनर्स्थापना के लिये जाना जाता है। इसकी स्वर्ण मुद्राओं पर लक्ष्मी की मूर्तियां मिलती हैं तथा इस काल में बनी विष्णु की विविध मुद्राओं की प्रतिमाएं सम्पूर्ण भारत में प्रचुरता से प्राप्त होती हैं।
इनकी दो राजधानियों थीं जिनमें से पहली एवं मुख्य राजधानी मगध में थी। समुद्रगुप्त (ई.330-389) से लेकर पुरुगुप्त (ई.467-472) तक ‘अयोध्या’ गुप्तों की दूसरी राजधानी रही। इस वंश में स्कंदगुप्त (ई.455-467) अंतिम प्रतापी राजा हुआ। उसके समय हूणों ने डैन्यूब नदी पार करके सिंधु नदी तक के क्षेत्र में क्रूर एवं विनाशकारी स्थिति उत्पन्न कर दी। उनके नेता अत्तिल ने रवेन्ना तथा कुस्तुंतुनिया दोनों ही राजधानियों पर भयानक आक्रमण करके उन्हें तहस-नहस कर डाला।
उसने ईरान को परास्त करके वहाँ के राजा को मार डाला। मध्य एशिया को रौंदकर इन बर्बर हूणों ने भारत भूमि की तरफ रुख किया। ऐसे विषम समय में स्कन्दगुप्त ने हूणों को भारत भूमि से परे धकेलकर राष्ट्र एवं प्रजा की रक्षा की। स्कन्दगुप्त की मृत्यु के उपरान्त कई शक्तिहीन गुप्त-सम्राट् उसके उत्तराधिकारी हुए जो गुप्त साम्राज्य को हूणों के प्रहारों से न बचा सके।
पांचवी शताब्दी ईस्वी के अन्तिम भाग में हूणों ने अपने नेता तोरमाण के नेतृत्व में फिर से भारत पर आक्रमण किया। तोरमाण ने गान्धार पर अधिकार करके गुप्त साम्राज्य के पश्चिमी भाग पर आक्रमण किया। एरण नामक स्थान पर भानुगुप्त एवं तोरमाण की सेनाओं में भीषण संग्राम हुआ जिसमें भानुगुप्त का सामन्त गोपराज मारा गया तथा भानुगुप्त परास्त हो गया। इस कारण पूर्वी मालवा पर हूणों का अधिकार हो गया।
मंजुश्रीमूलकल्प के अनुसार मालवा विजय के बाद हूण मगध तक बढ़ गये। ई.484 के लगभग हूणों के राजा तोरमाण ने कश्मीर, पंजाब और मालवा पर अधिकार कर लिया। उसने साकल अर्थात् स्यालकोट को अपनी राजधानी बनाया और वहीं से शासन करने लगा। ग्वालियर अभिलेख के अनुसार मध्य भारत पर भी उसका अधिकार था।
जब हूणों ने गुप्तों के साम्राज्य का पश्चिमी भाग तथा मध्य भारत दबा लिया तब गुप्तों के प्रांतीय शासक यशोवर्मन ने, गुप्तों की कमजोरी का लाभ उठाने के लिये गुप्तों की राजधानी मगध पर धावा बोला। यशोवर्मन का पूर्वी भारत अभियान, गुप्त साम्राज्य के लिये जानलेवा सिद्ध हुआ। ई.570 के लगभग गुप्तों का राज्य पूरी तरह नष्ट हो गया तथा यह सम्पूर्ण क्षेत्र यूरोप के रोमन साम्राज्य की भांति, छोटे-छोटे राज्यों में बिखर गया।
गुप्तों का राज्य बिखर जाने पर देश के बहुत बड़े भू-भाग पर हूणों का राज्य हो गया। उत्तर भारत में हूण शासक मिहिरकुल के सिक्के पर्याप्त संख्या में मिले हैं। इन सिक्कों के बाद के काल में, मध्य भारत से सबसे पहले गुहिल के ही सिक्के उपलब्ध हुए हैं। अतः अनुमान किया जा सकता है कि विदेशी हूणों का सामना करने के लिये गुहिल ने अपनी सेवाएं राष्ट्र को समर्पित कीं तथा उसने ईक्ष्वाकुओं एवं रघुवंशियों की गौरवमयी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए आगरा और चाटसू के क्षेत्र में अपने राज्य का विस्तार करना आरम्भ किया।
यद्यपि इस राजा के सम्बन्ध में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाई है किंतु आगरा से मिले उसके चांदी के सिक्के जिन पर ‘श्रीगुहिल’अंकित है तथा चाटसू से मिला उसके किसी वंशज का सिक्का जिस पर ‘श्रीगुहिलपति’अंकित है, यह मत स्थिर करने के लिये पर्याप्त हैं कि ‘श्रीगुहिल’ने उत्तर भारत में उत्पन्न राजनीतिक शून्यता को भरने के लिये गुप्त साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर नवीन राजनीतिक शक्ति की स्थापना की। उसने अपने वंशजों के लिये ईक्ष्वाकुओं के वही उच्च आदर्श स्थिर किये जिन आदर्शों की स्थापना, ईक्ष्वाकुओं के प्रथम राजा वैवस्वत मनु ने ‘मनु संहिता’ में की थी।
अपनी विजयों से उत्साहित यशोवर्मन ने मालवा पर आक्रमण करके मिहिरकुल को वहाँ से मार भगाया। मिहिरकुल ने भाग कर काश्मीर के राजा के यहाँ शरण ली परन्तु मिहिरकुल ने कश्मीर के राजा साथ विश्वासघात करके उसकी हत्या कर दी तथा काश्मीर पर अधिकार स्थापित कर लिया। इस विश्वासघात के बाद एक वर्ष के भीतर ही मिहिरकुल की मृत्यु हो गई तथा हूणों का पतन आरम्भ हो गया।
ठीक इसी समय उत्तर-पश्चिम की ओर से तुर्कों ने हूणों को दबाना आरम्भ किया। इधर, पूर्व की ओर से गुहिल तथा यशोवर्मन ने हूणों पर दबाव बनाया और हूणों का विनाश आरम्भ कर दिया। इस प्रकार हूण, दो प्रबल शक्तियों के बीच पिस गये और उनकी राजनीतिक शक्ति समाप्त हो गई।
गुप्तकाल के पतन के साथ देश में महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक परिवर्तन हुए। गुप्त शासक मूलतः वैष्णवधर्म के अनुयायी थे किंतु परवर्ती गुप्त शासकों ने बौद्धधर्म अंगीकार कर लिया था। इस कारण देश में स्थान-स्थान पर बौद्धमठ एवं विहार स्थापित हो गये थे। राजस्थान में जयपुर तथा भीनमाल में भी इस काल में बौद्धमठों एवं विहारों के अस्तित्व में होने के प्रमाण मिलते हैं।
हूणों के आक्रमणों के दौरान उत्तर भारत में निवास करने वाले करोड़ों बौद्धों की हत्या हुई। ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि मिहिरकुल ने बौद्धों पर बड़ा अत्याचार किया, उनके 1600 स्तूपों तथा विहारों को ध्वस्त कर दिया और 9 कोटि बौद्ध उपासकों की हत्या कर दी।
इस भीषण रक्तपात का परिणाम यह हुआ कि देश में अहिंसक बौद्धधर्म के विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया हुई तथा विदेशी आक्रांताओं का सामना करने के लिये प्राचीन क्षत्रियकुलों ने तलवार के जोर पर अपने-अपने राज्य स्थापित कर लिये। इन क्षत्रियकुलों में अपने-अपने राज्य के विस्तार के लिये कड़ी प्रतिस्पर्धा का युग आरम्भ हुआ।
राजस्थान में गुहिल राजवंश, इनमें सर्वप्रमुख था जिसने लगभग ई.566 से पहले अपने राज्य की स्थापना की। कालांतर में गुहिलों की कई शाखाएं बन गईं जिनमें कल्याणपुर के गुहिल, वागड़ के गुहिल, चाटसू के गुहिल, मालवा के गुहिल, मारवाड़ के गुहिल, धौड़ के गुहिल, काठियावाड़ के गुहिल तथा मेवाड़ के गुहिल अधिक प्रसिद्ध हैं। इनमें मेवाड़ के गुहिल सर्वाधिक प्रतापी हुए। इस प्रकार गुहिलों ने छठी शताब्दी ईस्वी के मध्य (ई.566 से पूर्व किसी समय) से लेकर बीसवीं शताब्दी ईस्वी के मध्य (ई.1949) तक अर्थात् लगभग 1400 सालों तक राष्ट्र की रक्षा एवं प्रजा का पालन किया।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता