बड़ी सादड़ी के राजराणा मेवाड़ के 16 प्रमुख रजवाड़ों में स्थान रखते थे। बड़ी सादड़ी दुर्ग मेवाड़ राज्य के प्रमुख दुर्गों में से था। इस मध्यकालीन दुर्ग का निर्माण बड़ी सादड़ी के राजराणा ने करवाया था।
बड़ी सादड़ी के राजराणा चंद्रवंशी झाला राजपूत थे जो गुजरात के ध्रांग्धरा राज्य के शासक थे। पंद्रहवीं शताब्दी ईस्वी में ध्रांग्धरा का राज्य झालों के हाथों से निकल गया। इस पर वे मेवाड़ आ गए। मेवाड़ के महाराणा रायमल ने झाला अज्जा को बड़ी सादड़ी की जागीर दी। उस काल में मेवाड़ के 16 प्रमुख ठिकाने थे जिनमें से बड़ी सादड़ी का ठिकाना भी एक था।
बड़ी सादड़ी के राजराणा मेवाड़ महाराणा के प्रथम श्रेणी के उमरावों में गिने जाते थे। ये चंद्रवंशी झाला राजपूत थे जो सिन्ध से गुजरात तथा गुजरात से मेवाड़ आये। इन्हें राजराणा की उपाधि प्राप्त थी। झाला सामंतों ने मेवाड़ के महाराणाओं के लिए बड़े-बड़े बलिदान दिए।
जब खानवा के युद्ध में महाराणा संग्रामसिंह युद्ध के मैदान में बेहोश हो गया, तब झाला अज्जा, महाराणा के राजकीय चिह्न धारण करके महाराणा के हाथी पर चढ़ गया ताकि युद्ध को निरंतर जारी रखा जा सके। अंत में अज्जा, मुगलों से युद्ध करता हुआ, रणक्षेत्र में ही वीरगति को प्राप्त हुआ।
झाला अज्जा का पुत्र सिंहा, महाराणा विक्रमादित्य के समय गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह से लड़ता हुआ चित्तौड़ दुर्ग की हनुमानपोल में वीरगति को प्राप्त हुआ। झाला सिंहा का पुत्र आसा, महाराणा उदयसिंह के समय वणवीर से लड़ता हुआ चित्तौड़ दुर्ग में वीरगति को प्राप्त हुआ।
आसा का पुत्र सुल्तान, महाराणा उदयसिंह के समय अकबर से लड़ता हुआ चित्तौड़ दुर्ग में सूरजपोल के निकट काम आया। सुल्तान का पुत्र बीदा (झाला मानसिंह) हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से अकबर के विरुद्ध लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ।
बीदा का पुत्र राजराणा देदा, महाराणा अमरसिंह (प्रथम) के समय जहांगीर से लड़ता हुआ अमर हुआ। देदा का पुत्र हरिदास, महाराणा अमरसिंह (प्रथम) के साथ रहकर शहजादा खुर्रम के दांत खट्टे करता रहा। जब ई.1615 में महाराणा अमरसिंह का पौत्र जगतसिंह, जहांगीर से मिलने गया तो हरिदास उसे अपने संरक्षण में लेकर मुगल दरबार में गया।
जहांगीर, राजकुमार जगतसिंह के साथ-साथ स्वामिभक्त राजराणा हरिदास को भी प्रसन्न करने में लगा रहता था। जहांगीर ने राजराणा हरिदास को विदा करते समय पांच हजार रुपये, एक घोड़ा तथा खिलअत देकर प्रसन्न किया। जब खुर्रम ने जहांगीर से विद्रोह किया तब खुर्रम (बाद में शाहजहाँ) कई दिनों तक बड़ी सादड़ी दुर्ग में शरण लिये रहा। खुर्रम के बड़ी सादड़ी में शरण लेने की स्मृति में एक दरवाजा बनवाया गया जो आज भी देखा जा सकता है।
झाला हरिदास के पुत्र रायसिंह के साथ महाराणा कर्णसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह किया। जब महाराणा राजसिंह (प्रथम) का पुत्र जयसिंह, औरंगजेब से मिलने अजमेर गया तो रायसिंह के पौत्र चंद्रसेन को राजकुमार जयसिंह का संरक्षक बनाया गया। चन्द्रसेन ने राजसिंह (प्रथम) की बड़ी सेवा की और औरंगजेब के पुत्र अकबर की सेना का भयानक संहार किया।
जब मेवाड़ और मराठों के बीच युद्ध हुआ तो बड़ी सादड़ी ने मराठों को बहुत छकाया। मराठों ने राजराणा चंदनसिंह से बड़ी सादड़ी का दुर्ग छीन लिया। चंदनसिंह ने लड़कर पुनः अपने दुर्ग पर अधिकार किया। ई.1857 की सैनिक क्रांति के समय राजराणा शिवसिंह ने कप्तान शॉवर्स का साथ दिया जिसके कारण निम्बाहेड़ा में सैनिक विद्रोह दबा दिया गया।
दुर्ग परिसर में स्थित एक बावड़ी के बारे में जनश्रुति है कि दुर्ग में कार्यरत एक भण्डारी ने बड़ी सादड़ी के शासक को दुर्ग में छिपा गुप्त खजाना दिखाया। जब राजा ने उस खजाने की चाबी मांगी तो भण्डारी ने वह चाबी इस बावड़ी में फैंक दी।
महाराणा भीमसिंह के समय झाला जालिमसिंह कोटा रियासत की सेवा में चला गया तथा कोटा रियासत का सबसे शक्तिशाली सामंत बन गया। ईस्वी 1838 में झाला जालिमसिंह के वंशज मदनसिंह को अंग्रेजों ने कोटा राज्य का विभाजन करके झालावाड़ रियासत का शासक बनाया। राजस्थान के समस्त राजाओं ने राजराणा मदनसिंह को राजा मानने से तथा अपने बराबर बैठने से मना कर दिया।
इस पर महाराणा भीमसिंह ने राजराणा मदनसिंह को अपने दरबार में बुलाया तथा उसे राजाओं की तरह चंवर ढुलाते हुए दरबार में आने की अनुमति दी। महाराणा ने उसे राजाओं की तरह अपने बराबर आसन दिया। इसके बाद राजस्थान के समस्त राजाओं ने राजराणा मदनसिंह को राजा मानना स्वीकार कर लिया।
यह बड़ी सादड़ी के राजराणा का चरम उत्कर्ष था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता