Saturday, December 21, 2024
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बयाना दुर्ग

बयाना दुर्ग का निर्माण उत्तर वैदिक काल में हुआ। इस काल में ही यजुर्वेद एवं सामवेद की रचना हुई। उत्तर वैदिक ग्रंथों की रचना ई.पू. 1000 से ई.पू. 600 में होना अनुमानित है। इस युग में दुर्ग अपनी प्रारम्भिक अवस्था में थे किंतु दुर्गों की रक्षा के लिये पत्थर फैंकने के चरिष्णु आदि का आवष्किार हो गया था। सैन्य व्यवस्था भी समुचित आकार लेने लगी थी। वर्तमान में इस काल का केवल एक ही दुर्ग चिह्नित किया जा सकता है जिसे अब बयाना दुर्ग के नाम से जाना जाता है।

दिल्ली-मुम्बई रेलमार्ग पर स्थित बयाना जंक्शन, दिल्ली से 220 किलोमीटर तथा आगरा से 95 किलोमीटर दूर स्थित है। यहाँ एक अत्यंत प्राचीन दुर्ग स्थित है। यह दुर्ग एक ऊंची पहाड़ी पर 826 मीटर लम्बे तथा 250 मीटर चौड़े क्षेत्र में बना हुआ है।

संसार का सबसे प्राचीन नर कंकाल

ब्रज का सांस्कृतिक इतिहास लिखने वाले श्री प्रभुदयाल मित्तल के अनुसार बयाना एक सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल है। वहाँ नदी की सतह से 35 फुट नीचे जो नरकंकाल प्राप्त हुआ उसे समाजशास्त्रियों ने अब तक उपलब्ध मानव शरीर का सबसे प्राचीन नर कंकाल माना है।

वैदिक अथवा उत्तर वैदिक स्थल

विजयमंदिर गढ़ की स्थापना कब हुई, यह कहना कठिन है किंतु यह वैदिक अथवा उत्तर वैदिक कालीन स्थल होना अनुमानित है। उत्तर वैदिक काल में इसे भंडका अथवा भंडा जनपद कहते थे। महाजनपद काल में यह शूरसेन प्रदेश में स्थित था जिसकी राजधानी मथुरा थी।

दुर्ग के नाम

बयाना दुर्ग का सर्वाधिक प्रचलित नाम विजयमंदिर गढ़ है किंतु विभिन्न कालों में इसके भिन्न नाम रहे हैं। श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के समय में यह शोणितपुर के नाम से जाना जाता था। अष्टाध्यायी के लेखक तथा पांचवी शताब्दी ईस्वी पूर्व के महान रचनाकार पाणिनी ने बयाना को श्रीप्रस्थ कहा। गुप्त काल में इसे श्रीपथ, संत पाल के काल में संतपुर, बालचंद के काल में रामगढ़, राजा विजयपाल के काल में (ई.1040 एवं उसके आसपास) विजय मंदिर गढ़ तथा विजयचन्द्रगढ़ कहा जाता था। दिल्ली सल्तनत के अंतिम दिनों में यह बयाना कहलाया। कुछ लोग बाणासुर नाम से इसका पुराना नाम बाणपुर तथा बाणपुर से बयाना होना मानते हैं।

महाभारत काल में बयाना दुर्ग

गुप्तों के इस क्षेत्र में आने से पहले, ‘यौधेय’ बयाना के शासक थे। यौधेय भगवान कार्तिकेय के उपासक थे। यौधेय महाभारत कालीन क्षत्रिय जाति है। अनुमान किया जा सकता है कि महाभारत काल में भी यहाँ पर एक दुर्ग रहा होगा।

गुप्तों के अधिकार में

ई.360 ई. में समुद्रगुप्त ने बयाना पर अधिकार कर लिया। बयाना की विजय के उपलक्ष्य में जारी किये गये समुद्रगुप्त के सोने के सिक्के बयाना के निकट ‘नंगला छेला’ से मिले हैं। समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति लेख में बयाना के यौधेय, पंजाब के माद्रक तथा अर्जुनायनों द्वारा समुद्रगुप्त के दरबार में उपस्थित होकर समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार किये जाने का उल्लेख मिलता है।

समुद्रगुप्त के काल में बयाना के किले में ‘राजस्थान के प्रथम विजय स्तम्भ’ का निर्माण कराने का उल्लेख मिलता है। ‘भीमलाट’ नामक यह स्तम्भ विक्रम संवत 428 (ई.363) है। राजा विष्णुवर्धन पुण्डरीक द्वारा निर्मित यह लाट आज भी मौजूद है। अपनी मूल अवस्था में इसकी लंबाई 26 फुट 3 इंच थी किंतु आज यह 22 फुट 7 इंच है। इसकी ऊपर चढ़ने के लिये सीढ़ियां बनी हुई थीं जो अब अब टूट गई हैं।

हूणों से लेकर राष्ट्रकूटों तक

छठी शताब्दी ईस्वी में मिहिरकुल नामक हूण आक्रांता ने बयाना पर अधिकार किया। सातवीं शताब्दी ईस्वी में थानेश्वर के राजा हर्षवर्धन ने बयाना को अपने साम्राज्य में मिलाया। हर्ष के बाद गुर्जर-प्रतिहारों ने इस क्षेत्र पर अधिकार किया तथा बयाना को गुर्जर राज्य में सम्मिलित किया।

हिन्दू स्थापत्य कला का उत्कृष्ट मनूना ‘उषा मंदिर’ गुर्जर प्रतिहार राजा लक्ष्मण सेन की पत्नी चित्रलेखा (चित्रांगदा) द्वारा ई.956 में बनवाया गया था। इल्तुतमिश के शासन काल में ई.1224 में इसे मस्जिद में बदल दिया गया। गुर्जर-प्रतिहार शासक नागभट्ट (द्वितीय) के बाद महिपाल के काल में बयाना पर दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा इंद्र (तृतीय) का अधिकार हो गया।

यदुवंशियों द्वारा नवीन दुर्ग की स्थापना

ई.900 के लगभग यदुवंशी इच्छपाल मथुरा का राजा हुआ। उसके ब्रह्मपाल और विनयपाल नामक दो पुत्र हुए। इच्छपाल के बाद, ब्रह्मपाल और उसके बाद जयइन्द्रपाल मथुरा के राजा हुए। जयइन्द्रपाल को कहीं-कहीं जयपाल अथवा जयेन्द्रपाल भी लिखा गया है।

जयेन्द्रपाल के 11 पुत्र हुए जिनमें विजयपाल सबसे बड़ा था। वह ई.992 में मथुरा का शासक हुआ। उसके सिंहासन पर बैठने से पूर्व ही भारत पर महमूद गजनवी के आक्रमण प्रारम्भ हो चुके थे। गजनवी ने महावन पर आक्रमण करके वहाँ के शासक कुलचन्द को मार डाला। इसके बाद वह मथुरा की ओर बढ़ा।

मथुरा पूरी तरह मैदानी क्षेत्र है जहाँ महमूद जैसे प्रबल आक्रांता के सामने राजा की सुरक्षा सम्भव नहीं थी। इसलिये विजयपाल अपनी सेना का बहुत बड़ा भाग मथुरा की रक्षा के लिये नियुक्त करके स्वयं बयाना आ गया तथा यहाँ उसने एक पहाड़ी पर विशाल दुर्ग की स्थापना की तथा उसका नाम विजयमंदिर गढ़ रखा।

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि विजयपाल ने विजयमंदिर गढ़ की स्थापना गजनवी के आक्रमण से पूर्व ही कर दी थी। करौली की ख्यात में कहा गया है कि विजयपाल ने पहले से ही स्थित बयाना दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाकर उसका नाम विजय-मंदिर दुर्ग रखा। बाद में यह दुर्ग बयाना के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

अब बयाना भरतपुर जिले में है। बयाना के बाहरी-भीतरी मुहल्ले की एक मस्जिद पर लगे शिलालेख में विजयपाल के नाम के साथ-साथ वि.सं.1100 अर्थात् ई.1043 वर्ष का उल्लेख हुआ है। विजयपाल द्वारा बयाना के किले की तलहटी में ‘बाजार’ का निर्माण कराया गया। यह आज भी टूटी-फूटी अवस्था में मौजूद है।

विजयपाल युद्ध-प्रिय राजा था। उसने दूसरे राजाओं पर आक्रमण करके अनेक उल्लेखनीय विजयें प्राप्त कीं। विजयपाल ने बैराठ पर आक्रमण करके उसे अपने राज्य में मिला लिया। उसने गुजरात के चौलुक्यों को भी परास्त किया तथा मेवाड़ के गुहिलों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये। विजयपाल ने दक्षिण में तेलंगाना तक अपना राज्य फैला लिया। उसने अपनी विजयों को दुर्ग में पहले से ही स्थित गुप्तकालीन विजय स्तंभ ‘भीमलाट’ पर अंकित करवाया। विजयपाल की प्रशस्ति में ‘नल्ल’ नामक कवि ने ‘विजयपाल रासो’ लिखा।

अबू बकर का आक्रमण

गजनी के शासक इब्राहीम के पुत्र मसूद ने तीन बार विजयमंदिर गढ़ पर आक्रमण किया किंतु वह विजयपाल को परास्त नहीं कर सका। मसूद की मृत्यु के बाद अफगानिस्तान में अबू बकर नामक सरदार का उदय हुआ। उसने खलीफा से अनुमति लेकर भारत पर आक्रमण किया। लाहौर और मुल्तान को जीतने के बाद उसने विजयमंदिर गढ़ पर आक्रमण किया।

अनेक राजपूत राजा एवं सरदार विजयपाल की सहायता के लिये सेनाएं लेकर आये। इस समय तक विजयपाल काफी वृद्ध हो चुका था फिर भी वह वह दुर्ग की सुरक्षा का भार राजकुमार रतनपाल को सौंपकर स्वयं सेना लेकर अबू बकर की ओर चल पड़ा। ख्यातों के अनुसार राजा विजयपाल ने दुर्ग रक्षकों को निर्देश दिये कि यदि युद्ध की समाप्ति के बाद दुर्ग की ओर आती हुई सेना के हाथों में अपने झण्डे दिखाई दें तो दुर्ग के द्वार खोलकर सेना का स्वागत करना और यदि शत्रु के काले झण्डे दिखाई दें तो दुर्ग को नष्ट करके स्त्रियों के लिये जौहर का आयोजन किया जाये तथा वीर सैनिक दुर्ग से बाहर आकर शत्रु का सामना करें।

ई.1046 में कनावर के मैदान में विजयपाल तथा अबूवक्र की सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। तीन दिन तक चले संघर्ष के बाद यादवों ने मुसलमानों पर विजय प्राप्त कर ली। कहा जाता है कि यादव सैनिक मुसलमानों के काले झण्डे लूटकर उन्हें फहराते हुए विजयमंदिर गढ़ की ओर चल दिये। जब दुर्ग रक्षकों ने शत्रु के झण्डे फहराते हुए देखे तो उन्होंने तुरंत दुर्ग की दीवारों में बारूद भरकर उसे नष्ट करना आरम्भ कर दिया।

वीर ललनाओं ने जौहर का आयोजन किया तथा दुर्ग के भीतर मौजूद यादव सैनिक तलवारें लेकर दुर्ग के बाहर आ गये। जब तक राजा विजयपाल विजय का ध्वज लेकर विजयमंदिर दुर्ग पहुंचता तब तक उसके रनिवास की समस्त रानियां और राजकुमारियां जलकर भस्म हो चुकी थीं। राजा विजयपाल ने भी दुखी होकर अपना सिर काटकर महादेव को चढ़ा दिया। ख्यातों के अनुसार राजा विजयपाल की चिता के साथ 360 स्त्रियां सती हुईं।

उधर जब अबू बकर को विजयमंदिर गढ़ की बर्बादी की जानकारी मिली तो वह फिर से अपनी सेना एकत्रित करके यादवों पर चढ़ बैठा और सहजता से दुर्ग पर अधिकार जमाने में सफल रहा। इस सम्बन्ध में यह दोहा कहा जाता है-

ग्यारह सौ तेहत्तर फाग तीज रविवार।

विजय मंदि रगढ़ तोड़यो अबूवक्र कन्धार।।

मुंशी अकबर अली बेग ने तवारीखे करौली में लिखा है कि बयाना निवासी लाल खां तेली की एक खूबसूरत लड़की थी जिसे विजयपाल अपने महल में रखना चाहता था किंतु लाल खां तैयार नहीं हुआ और उसने महाराजा से मिलकर 6 मास का समय मांगा। लाल खां अबू बकर से मिला तथा उसे विजयगढ़ मंदिर पर चढ़ा लाया। इस घटना में कितनी सच्चाई है, कहा नहीं जा सकता।

महाराजा विजयपाल ने 51 वर्ष तक शासन किया। उसने 35 लड़ाइयां लड़ीं और 29 विवाह किये। उसके 18 पुत्र थे जिनमें से 10 पुत्र कनावर के युद्ध में मारे गये। महाराजा विजयपाल का मंत्री कल्याण नामक एक ब्राह्मण था जिसने योग्यता से महाराजा के राज्य का शासन प्रबन्ध किया।

दिल्ली सल्तनत के अधीन

महाराजा विजयपाल की मृत्यु के बाद उसके आठ पुत्र- तिमनपाल, इन्द्रपाल, भीमपाल, जीजपाल, तिनयपाल, रतनपाल, रठपाल और गीजपाल जीवित बचे थे। इनमें से तिमनपाल अथवा तहनपाल अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ। उसने विजयमंदिर गढ़ पर आक्रमण करके अबूवक्र को परास्त किया तथा अपने पिता का खोया हुआ दुर्ग फिर से प्राप्त कर लिया। तहनपाल तथा उसके वंशज विजयमंदिर गढ़ पर अधिक समय तक अधिकार नहीं रख सके।

मुहम्मद गौरी ने इस दुर्ग को गजनवियों से छीना। जब यह दुर्ग दिल्ली सल्तनत के हाथों से खिसक गया तो मुहम्मद गौरी के उत्तराधिकारी कुतुबुद्दीन ऐबक ने इस किले पर पुनः अधिकार किया। फिरोज तुगलक के शासनकाल में भी यह दुर्ग दिल्ली के मुसलामान शासकों के अधिकार में रहा। दक्षिण विजय के बाद फिरोज तुगलक इस दुर्ग में कई माह तक रुका। लोदीवंश के शासनकाल में यह दुर्ग सिकन्दर लोदी के अधिकार में रहा। सिकन्दर लोदी ने दिल्ली के बाद बयाना को अपनी दूसरी राजधानी घोषित किया।

मुगलों के अधीन

जब लोदी शासकों का अंत करके मुगलों ने दिल्ली तथा आगरा पर अधिकार किया तब विजयगढ़ भी मुगलों के अधीन चला गया। मुगलकाल में इसे सुल्तानकोट तथा सिकन्द्रा आदि नामों से पुकारा जाता था। वर्तमान में यह दुर्ग बयाना दुर्ग के नाम से प्रसिद्ध है तथा धौलपुर जिले में है।

संसार का दूसरा मक्का-मदीना

अबूबकर से लेकर मुगलों तक के शासन काल में बयाना पूरी तरह मुस्लिम आबादी में बदल गया। इन मुसलमानों ने बयाना के प्राचीन मंदिरों को तोड़ कर मस्जिदें खड़ी कर लीं। कहा जाता है कि बयाना में ढाई कब्र कम पड़ गईं अन्यथा बयाना संसार का दूसरा मक्का-मदीना होता। आज भी बयाना में सैंकड़ों प्राचीन मजारें और मकबरे देखे जा सकते हैं जिन पर मुसलमान जियारत करने आते हैं।

जाटों के अधीन

मुगल बादशाह फर्रुखसीयर के समय में इदरत खाँ को बयाना का सूबेदार बनाया गया। उसके बाद बयाना दुर्ग पर भरतपुर के जाटों का अधिकार हो गया।17 मार्च 1948 को बयाना मत्स्य राज्य में विलीन हो गया और वहाँ से राजस्थान में प्रविष्ट हुआ।

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