किशनगढ़ राज्य का इतिहास एक ऐसी छोटी सी मरुस्थलरीय रियासत का इतिहास है जिसके लिए जयपुर, जोधपुर, बीकानेर एवं मेवाड़ जैसी प्रबल रियासतों के बीच अपना अस्तित्व बनाए रखना मध्यकालीन भारत के इतिहास में किसी चमत्कार से कम नहीं था।
प्राचीन भारतीय क्षत्रियों में यह परम्परा थी कि राजा का ज्येष्ठ पुत्र वंशानुगत अधिकार से राजा बनता था किंतु मुगल शहजादों में बादशाह के जीवनकाल में ही उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर रक्त-रंजित संघर्ष होते थे। जो शहजादा इस संघर्ष में विजयी होकर जीवित रहता था, वही राज्यगद्दी प्राप्त करता था।
अकबर के शासन काल में राजपूताना के राज्य, मुगलों के सम्पर्क में आये। इससे राजपूताना के राज्यों में भी उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष होने लगे। राजपूतों में अब भी राज्यगद्दी पर बड़े पुत्र का नैसर्गिक अधिकार माना जाता था किंतु वह निर्विवाद नहीं रहा।
मालदेव ने अपने तीसरे पुत्र चंद्रसेन को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। चंद्रसेन की मृत्यु के बाद अकबर ने उसके पुत्रों को उसका उत्तराधिकारी नहीं मानकर, चंद्रसेन के बड़े भाइयों में से एक, मोटाराजा उदयसिंह को जोधपुर का शासन दिया। महाराजा उदयसिंह के 16 पुत्र हुए जिनमें से ज्येष्ठ पुत्र सूरसिंह जोधपुर का राजा हुआ और उसके छोटे भाइयों में से एक, किशनसिंह ने अपने लिए अलग राज्य की स्थापना की। वह अकबर का विशेष कृपापात्र सामंत था।
किशनसिंह के राज्य की स्थापना के समय मुगलों के तख्त पर जहाँगीर बैठा हुआ था। किशनसिंह जहाँगीर का भी विश्वासपात्र था। उसी की सहायता एवं संरक्षण के कारण किशनसिंह इस छोटी सी रियासत को स्थापित करने एवं बनाये रखने में सफल रहा। किशनसिंह के वंशजों को भी मुगल शासकों का पूरा सहयोग एवं समर्थन मिलता रहा।
प्रबल केन्द्रीय सत्ता के संरक्षण के बिना, जोधपुर, बीकानेर एवं जयपुर जैसी बड़ी रियासतों के बीच किशनगढ़ की छोटी सी रियासत का बने रहना, किसी भी प्रकार संभव नहीं था। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में राजपूताना के राज्य, देश की राजनीतिक परिस्थितियों से विवश होकर अंग्रेजी संरक्षण में चले गये।
ई.1818 से लेकर ई.1947 तक ये राज्य अंग्रेजी शासन के अधीन रहे। किशनगढ़ भी इनमें से एक था। बीसवीं सदी में देश का राजनीतिक घटनाक्रम बहुत तेजी से घटित हुआ जिसकी परिणति ई.1947 में अंग्रेजी शासन से स्वतंत्रता के रूप में हुई। किशनगढ़ राज्य भी अंग्रेजी शासन के चंगुल से मुक्त होकर स्वतंत्र भारत का हिस्सा बना और अंत में राजस्थान में विलय हो गया।
स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले राजस्थान को राजपूताना कहा जाता था। इसका विस्तार 230 3’ से 260 59’ उत्तरी अक्षांशों और 690 30’ से 780 17’ पूर्वी देशान्तरों के मध्य था एवं कुल क्षेत्रफल 1,30,462 वर्गमील था जिसमें समस्त रियासतों, ठिकाणों एवं ब्रिटिश शासित क्षेत्र अजमेर-मेरवाड़ा भी सम्मिलित था। इसके पश्चिम में सिंधु घाटी, पूर्व में बुंदेलखण्ड, उत्तर में सतलुज का (दक्षिणी) बलुई खण्ड तथा दक्षिण में विंध्य पर्वत स्थित था। राजपूताना की रियासतें दिल्ली के दक्षिण पश्चिम में स्थित थीं। ये पंजाब, सिंध, गुजरात तथा मालवा से घिरी हुई थीं।
राजपूताना, कई रियासतों एवं जागीरों में विभक्त था। इनकी संख्या और आकार समय-समय पर बदलते रहते थे। अकबर के गद्दी पर बैठते समय राजपूताना में 11 राज्य थे- मेवाड़, मारवाड़, बीकानेर, जैसलमेर, सिरोही, आम्बेर, बूंदी, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़ एवं करौली। कोटा, अलवर, भरतपुर, धौलपुर, किशनगढ़ तथा शाहपुरा राज्यों की स्थापना मुगलों के काल में हुई। मेवाड़ (उदयपुर), मारवाड़ (जोधपुर) तथा आम्बेर (जयपुर) तीन बड़े राज्य थे। मेवाड़ में गुहिल, मारवाड़ में राठौड़ तथा आम्बेर में कच्छवाहा वंश का शासन था।
राजपूताना की अन्य रियासतों के संस्थापकों में से अधिकांश शासक इन्हीं तीन बड़े राज्यों के शासकों के वंशज थे। कुछ रियासतें चौहानों की तथा दो रियासतें यादवों की भी थीं। मेवाड़ को छोड़कर राजपूताना की अन्य सब रियासतें अकबर के अधीन हो गई थीं। जहांगीर के समय में मेवाड़ को मुगलों से संधि करनी पड़ी जो औरंगजेब के समय में भंग हो गई। गुहिलों का मुगलों से प्रायः विरोध ही रहा किंतु राठौड़ों और कच्छवाहों के मुगलों से प्रायः सम्बन्ध अच्छे ही रहे।
आशा है इस पुस्तक के माध्यम से किशनगढ़ राज्य के इतिहास का सही मूल्यांकन संभव हो सका है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता