करकेड़ी किशनगढ़ के राठौड़ों का एक महत्वपूर्ण ठिकाणा था तथा करकेड़ी दुर्ग किशनगढ़ राज्य के प्रमुख दुर्गों में से एक था।
ईस्वी 1756 में जब सावंतसिंह के पुत्र सरदारसिंह तथा सावंतसिंह के भाई बहादुरसिंह में किशनगढ़ राज्य का बंटवारा हुआ तब रूपनगढ़, अरांई, सलेमाबाद और करकेड़ी सरदारसिंह के अधिकार में रहे तथा किशनगढ़, कुचील, बांदर, सींधरी, सरवाड़ और फतेहगढ़ बहादुरसिंह के अधिकार में चले गये। इस प्रकार किशनगढ़ राज्य दो रियासतों- किशनगढ़ एवं रूपनगढ़ में विभक्त हो गया।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार राजसिंह के पुत्रों में से बहादुरसिंह को किशनगढ़ का, सावंतसिंह को रूपनगढ़ का और वीरसिंह को करकेड़ी का शासन मिला।
कुछ समय बाद किशनगढ़ के राजा बहादुरसिंह की मृत्यु हो गई तथा बहादुरसिंह का पुत्र बिड़दसिंह किशनगढ़ का राजा हुआ। जब बिड़दसिंह राज्य छोड़कर वंृदावन चला गया तो किशनगढ़ राज्य की बागडोर बिड़दसिंह के पुत्र प्रतापसिंह के हाथों में आ गई। चूंकि महाराजा सरदारसिंह ने अपने अंतिम दिनों में करकेड़ी के राजा अमरसिंह को गोद लेने की इच्छा व्यक्त की थी इसलिए अमरसिंह स्वयं को किशनगढ़ का वास्तविक शासक मानता था। अतः वह किशनगढ़ पर अधिकार करने के लिए जोधपुर के महाराजा विजयसिंह के पास सहायता मांगने के लिए गया। ईस्वी 1787 में जोधपुर नरेश विजयसिंह ने करकेड़ी के राजा अमरसिंह के नाम रूपनगढ़ की जागीर लिख दी इससे किशनगढ़ नरेश प्रतापसिंह जोधपुर नरेश विजयसिंह से नाराज हो गया तथा मराठों की शरण में चला गया।
जब जयपुर राज्य तथा मराठों के बीच युद्ध हुआ तब किशनगढ़ नरेश प्रतापसिंह ने मराठों की सहायता की। इससे नाराज होकर जयपुर नरेश ने करकेड़ी के राजा अमरसिंह को रूपनगढ़ का राज्य दिलाने का वचन दिया। युद्ध के बाद जयपुर नरेश प्रतापसिंह ने 4,000 सैनिक देकर अमरसिंह को रूपनगढ़ पर चढ़ाई करने भेजा। (उस समय किशनगढ़ तथा जयपुर दोनों राज्यों के राजाओं के नाम प्रतापसिंह थे।)
जोधपुर के महाराजा विजयसिंह ने भी करकेड़ी के राजा अमरसिंह की सहायता की किंतु जयपुर तथा जोधपुर दोनों मिलकर भी करकेड़ी के राजा अमरसिंह को रूपनगढ़ पर अधिकार नहीं करवा सके। बाद में जोधपुर नरेश विजयसिंह ने किशनगढ़ पर आक्रमण करके रूपनगढ़ पर अमरसिंह का अधिकार करवा दिया।
इस प्रकार करकेड़ी के कारण जयपुर, जोधपुर एवं किशनगढ़ के राजाओं में वैमनस्य बढ़ गया और मराठों को राजपूताना राज्यों में अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिल गया।
किशनगढ़ के महाराजा यज्ञनारायण सिंह ने करकेड़ी दुर्ग को सुन्दर बनाया तथा करकेड़ी में लाखों रुपये की लागत से अपने पिता जवानसिंह की संगमरमर के पत्थर की सुन्दर समाधि बनवाई। यह समाधि करकेड़ी दुर्ग में आज भी देखी जा सकती है।
19वीं शती में किशनगढ़ रियासत लगातार कई बड़े अकालों से पीड़ित रही। ईस्वी 1803-04 में जयपुर, मारवाड़, सिरोही अलवर एवं किशनगढ़ रियासतों में व्यापक क्षेत्र में अकाल पड़ा। वि.सं. 1960 का अकाल होने के कारण किशनगढ़ रियासत में इसे साठिया अकाल के नाम से जाना गया। इस अकाल में रियासत की ओर से अकाल राहत कार्य के रूप में करकेड़ी दुर्ग का पुनर्निर्माण करवाया गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता