स्वतंत्रता सेनानियों, समाज सुधारकों एवं कवियों ने अपने शब्दों से आजादी की अलख जगाई। उनकी भावनाएं आजादी के गीत , नारे एवं कविताएं आदि का रूप लेकर जन-जन में व्याप्त हो गईं।
पराधीन भारत में राजस्थान देशी रियासतों में बंटा हुआ था। प्रजा, राजाओं के अधीन थी और राजा अंग्रेजों के किंतु अंग्रेजी सत्ता से मुक्ति की चाह राजस्थान के जनमानस में ब्रिटिश भारत से किसी भी तरह कम नहीं रही।
शब्दों ने आजादी के नारों एवं गीतों में ढलकर, न केवल शहरी समाज में अपतिु ग्रामीण समाज में भी अद्भुत जोश उत्पन्न किया। प्रस्तुत है उस काल के कुछ प्रसिद्ध गीतों, नारों एवं कविताओं की झलक-
भरतपुर राज्य ने ई.1803 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी से संधि की थी किंतु जब ई.1805 में मराठा सरदार होलकर ने भरतपुर में शरण ली और ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने राजा रणजीतसिंह से होलकर की मांग की तो भरतपुर राज्य, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ और अंग्रेजों को जी भरकर हिन्दुस्तानी तलवार का पानी चखाया।
इस घटना की स्मृति में एक लोक गीत उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में प्रचलित हुआ जो आजादी मिलने तक गांवों में गाया जाता था-
ओछा, गोरा हट जा!
राज भरतपुर को रै गोरा हट जा!
भरतपुर गढ़ बांको, किलो रै बांको,
गोरा हट जा!
यूं मत जांणी रै गोरा लड़ै रे बेटो जाट को,
ओ कंवर लड़ै रै राजा दसरथ को रै
गोरा हट जा!
ई.1817-18 में राजपूताना रियासतों ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से संरक्षण के समझौते किये। इसके बाद रियासतों का बाह्य एवं आंतरिक शासन अंग्रेजों के अधीन चला गया। इस दुर्दशा को देखकर जोधपुर के राज्यकवि बांकीदास आसियां ने रियासतों के राजाओं को ललकारते हुए कहा –
आयो इंगरेज मुलक रै ऊपर, आहंस लीधा खेंचि उरा।
धणियां मरै न दीधी धरती, धणियां ऊभां गई धरा।
फौजां देख न कीधी फौजां, दोयण किया न खळा-डळा।
खवां खांच चूड़ै खावंद रै, उण हिज चूड़ै गई यळा।
जोधपुर नरेश मानसिंह ने स्वयं भी ई.1818 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी से संरक्षण का समझौता किया था जिसे अंग्रेज अधीनस्था सहायता की संधि कहते थे। बाद में इस संधि से बचने के लिये महाराजा मानसिंह ने पागल होने का नाटक कर लिया। उन्हें अपनी दुरावस्था पर इतना क्लेश था कि उन्होंने लिखा है-
राणियां तळेटियां ऊतरै, राजा भुगते रेस,
गढ ऊपर गोरा फिरै, सरग गयां सगतेस।
ई.1825 से 1850 की अवधि में शेखावाटी के बठोठ गांव के डूंगरसिंह तथा जवाहरसिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाये तथा अजमेर क्षेत्र में धावे मारकर अंग्रेजों का खजाना लूटने लगे। ई.1847 में इन्होंने नसीराबाद छावनी को लूट लिया। इन डाकुओं को जनता ने नायक की तरह सम्मान दिया। इनकी प्रशंसा में गीत गाये जाने लगे जो आजादी के गीत बन गए-
खावै आतंक आगरो, खापां न मावै भ्रमावै खळां,
धावै थावै अजांण लगावै चौड़े धेस।
ऊगां भांण नाग वंसां माथै खगां राज आवै,
दावै लागो पजावै फिरंगी वाळा देस।।
ई.1857 की सैनिक क्रांति के समय क्रांतिकारी सैनिक, आउवा ठिकाणे में एकत्रित हुए। इस समय राजाओं ने अंग्रेजों का साथ दिया तथा भारतीय क्रांतिकारी सैनिकों का दमन किया। तब राजस्थान के कवियों ने राजाओं को धिक्कारते हुए आजादी के गीत लिखे-
वणिया वाळी गोचर मांय, काळो लोग पड़ियो ओ,
राजाजी रै भैळो तो फिरंगी लड़िया ओ,
काळी टोपी रो।
हे ओ काळी टोपी रो, फिरंगी फैलाव कीधो ओ।
काळी टोपी रो।
बारली तोपां रा गोळा धूड़गढ़ में लागै ओ
मांयली तोपां रा गोळा तंबू तोड़ै ओ,
झल्लै आउवो।
हे झल्लै आउवो, आउवो धरती रो थांबो ओ,
झल्लै आउवो।…………………….।
राजाजी रा घोड़लिया काळां रे लारै दौड़ै ओ।
आउवे रा घोड़ा तो पछाड़ी तोड़ै ओ,
झगड़ो व्हैण दो।
हे ओ झगड़ो व्हैण दो, झगड़ां में थांरी जीत व्हैला ओ,
झगड़ो व्हैण दो।
जब आउवा के क्रांतिकारी सैनिकों ने पोलिटिकल एजेंट मॉक मेसन का सिर काट कर आउवा गढ़ के बाहर टांग दिया तब होली पर इस प्रकार फाग गाये जाने लगे-
ढोल बाजै, थाळी बाजै, भेळो बाजै बांकियो,
अजंट ने ओ मारने दरवाजे नांकियो,
जूंझै आउवो।
हे ओ जूंझे आउवो, आउवो मुलकां में चावो ओ,
जूंझै आउवो।
आउवा की घटना को महाकवि सूर्यमल्ल मीसण (ई.1815-1868) ने भी अपनी कविताओं का विषय बनाया। उन्होंने लिखा है-
लोहां करंतो झाटका फणां कंवारी घड़ा रो लाडौ,
आडो जोधांण सूं खेंचियो वहे अंट।
जंगी साल हिदवांण रा आवगो जींनै।
आउवो खायगो फिरंगाण रो अजंट।।
आउवा ठाकुर कुशालसिंह को अपना ठिकाणा छोड़कर मेवाड़ रियासत के कोठारिया ठिकाणे में शरण लेनी पड़ी। कोठारिया ठाकुर जोधसिंह की प्रशंसा में भी लोक गीत गाये जाने लगे-
बांकड़ली मूंछां रो ठाकर कोठारिया में आयो रै
अंगरेजां रा दुसमण ने मेवाड़ वधायो रै
झगड़ो झालियौ
हां रे झगड़ो झालियो
धरती में थांरो नाम रेसी ओ
झगड़ो झालियो।
सलेदी ठाकुर कानसिंह ने भी ई.1857 की सैनिक क्रांति में क्रांतिकारी सैनिकों की सहायता की। उसकी प्रशंसा में लोक गीत इस प्रकार गाया जाता था-
हद करग्यौ कान सलेदी को रै,
हद करग्यौ।
अेक तो कान बिरज को बासी
दूजौ कान सलेदी को रै
हर करग्यौ
हाँ रे हद करग्यौ।
ई.1857 की सैनिक क्रांति के समय गोपालपुरा के राव हम्मीरसिंह द्वारा क्रांतिकारी सैनिकों की सहायता करने से मना करने पर उसे धिक्कारते हुए शंकरसिंह सामौर ने लिखा-
तन मोटो तात मोटो, मोटो बस गम्भीर।
हुयौ देस हित क्यूं हमै, मन छोटो हम्मीर।
ई.1857 की क्रांति में राजस्थान, तात्यां टोपे की गतिविधियों का केन्द्र रहा। तात्यां की प्रशंसा करते हुए राजस्थान के कवियों ने लिखा-
जठै गयो जंग जीतियो, खटके बिन रणखेत।
तकड़ो लड़ियो तांतियो हिन्द थान रे हेत।।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने ई.1863 से 1883 तक भारत में जनजागरण का काम किया। राजस्थान की अनेक रियासतों तथा पंजाब एवं दिल्ली आदि क्षेत्रों पर उनका अच्छा प्रभाव था। उनका निधन राजस्थान में ही हुआ। वे भारत की मुक्ति के आकांक्षी थे। उन्होंने एक नारा दिया जो राजस्थान के शिक्षित वर्ग में प्रचलित था। वह नारा इस प्रकार से था- सुराज्य से स्वराज्य अच्छा है। इस नारे के जन्म के समय तक कांग्रेस की स्थापना भी नहीं हुई थी।
ई.1903 में जब महाराणा फतहसिंह वायसराय द्वारा बुलाये जाने पर दिल्ली दरबार में जाने लगे तो ठाकुर केसरीसिंह ने चेतावणी के चूंगटिये लिखकर महाराणा को ऐसा करने से मना किया। महाराणा दिल्ली तो पहुंचे किंतु चूंगटियों की टीस ऐसी थी कि दिल्ली दरबार में भाग लिये बिना ही लौट आये। चूंगटियों की प्रारम्भिक पंक्तियां इस प्रकार थीं-
पग-पग भम्या पहाड़, धरा छोड़ राख्यो धरम।
महारांणा मेवाड़, हिरदे बसिया हिंद रै।
घण घलिया घमसांण, रांणा सदा रहिया निडर।
पेखंतां फुरमांण, हल चल किम फतमल हुवै।
गिरद गजां घमसांण, नहचै धर माई नहीं
मावै किम महारांण, गज सौ रै घेरे गिरद।।
ई.1915 में खरवा के राव गोपालसिंह, ब्यावर के दामोदर दास राठी तथा संयुक्त प्रांत से आये विजयसिंह पथिक ने, बंगाल के क्रांतिकारियों के सहयोग से सशस्त्र क्रांति की योजना बनाई। यह योजना विफल हो गई। गोपालसिंह को जेल में बंद कर दिया गया। जब राहुल सांकृत्यायन ने जेल में राव गोपालसिंह से भेंट की तो गोपालसिंह ने राहुल सांकृत्यायन को कई स्वरचिव कविताएँ सुनाईं जिनमें से एक कविता इस प्रकार से थी-
गौरांग गण के रक्त से
निज पितृ गण तरपण करूंगा।
ई.1919 में जलियांवाला काण्ड हुआ। इसकी प्रतिक्रिया पूरे देश में हुई। अर्जुनलाल सेठी ने अंग्रेजों के राज्य को खूनियों और डाकुओं का राज बताते हुए लिखा-
खूनियां रौ राज, यो तो खूनियां को राज
यो तो डाकुओं को राज।
पापी गोरा पाळै छै यो, खूनियां को राज।
गोरा-गोरा मूंडा ऊपर, राता-राता दाग
मिनखां नै मार नांख्या, जळियां वाळै बाग।
म्हांको धणी लेबा गयै, बजारां में खांड
गोरां मारी गोली ऊं के, भूलै कोनी रांड
भूरी-भूरी भोपणी है, नीली-नीली आंख
सारा घर नै खूंद नाख्यौ, छोड़ी कोनी राख
छोटी-छोटी कूकड़ी रे, काचौ-काचौ सूत
गोरां पापी मार गेरो, म्हांको स्याणौ पूत।।—–
म्हांकी सुणले रामजी रे, थांकी पूरी आस
गोरा डाकू पापियां को, करजै सत्यानास।
ई.1927 में बम्बई में अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद की स्थापना के बाद राजस्थान की रियासतों में प्रजामण्डलों की स्थापना हुई। चालीस के दशक में प्रजामण्डलों के काम ने जोर पकड़ लिया। इस दौरान आजादी के अर्थ में किंचित् विस्तार हुआ। अब अंग्रेजी राज्य से मुक्ति के साथ-साथ अच्छे राज्य एवं नागरिक अधिकारों की मांग होने लगी। इस काल में मारवाड़ लोक परिषद के नेता जयनारायण व्यास ने लिखा-
कह दो आ डंके री चोट।
मारवाड़ नहीं रहसी ठोट।
अब म्हें सूता नहीं रहांला
गांव-गांव आब बात कहांलां
पैला काढौ घर री खोट
मारवाड़ नहीं रहसी ठोट।।
इस दौर में कृषकों और श्रमिकों को भी झकझोर कर उठाने का प्रयास किया गया-
धान घणौ उपजावै कुण,
पेट नहीं भर पावै कुण,
हाथां वस्त्र बनावै कुण,
फिर नागो रह जावै कुण?
जनकवि गणेशलाल व्यास ‘उस्ताद’ ने अपने गीतों से राजस्थान में धूम मचा दी-
जागण रौ दिन आयौ साथियां, जागण रौ दिन आयौ
औ ढळतौ दिन आयौ, जुग जगत पलटियौ पायौ
दिन बीत गया जद वै मतवाळा, बांटां सिर लटका देता
धावड़ियां सूं धाक भराता, वैहता धन पटका लेता
जद कमतरिया रोता रह जाता, वै करता मन चायौ
अै सगळौ जगत नचायौ, बेलियां जागण रौ दिन आयौ।
जयनारायण व्यास ने राजाओं का आह्वान कर उन्हें भी जगाने का प्रयास किया-
म्हानै अैसो दीजौ राज म्हांरा राजाजी
म्हानै अैसो दीजौ राज।
गांव-गांव पंचायत चुणकर पंच चलावै राज
जिले-जिले री कमेटियां मै व्है परजा रौ राज।
मेवाड़ प्रजा मण्डल के नेता माणिक्यलाल वर्मा ने किसानों को जगाते हुए कहा-
मरदाओं रे! काली तो भादूड़ा री रातां सोवे छा।
तन का कपड़ा भी खोवे छा। हां पड़ा-पड़ा थें रोवे छा।
आंसू सूं डीलड़ो धोवे छा।
मरदाओं रे। ढांडा थाने जाण सिपाई फूटे छा।
धन माल कमाई लूटे छा, दूजां के खूटे-खूटे छा।
आपस में भाई फूटे छा।
जयपुर राज्य प्रजा मण्डल के नेता हीरालाल शास्त्री ने जन आंदोलनों की सफलता की कामना करते हुए आजादी के गीत लिखे-
सपनो आयो एक घणो जबरो रे, सपनो आयो।
काळी पीळी आंधी उठी,
चाल्यो सूंठ घणो जबरो रे- सपनो आयो।
थळ को तो हो गया जळ, जळ को थळ होयो
सपट पाट घणो जबरो रे-सपनो आयो।
डूंगर टूट जमीं मिलग्या,
देखो ख्याल घणो जबरो रे, सपनो आयो।……..।
म्हां को सपनो सांचो होसी,
समझो भेद धणी जबरो रे, सपनो आयो।
कोटा राज्य प्रजा मण्डल के नेता भैरवलाल ने काळा बादळ नाम से एक गीत लिखा। यह गीत इतना लोक प्रिय हुआ कि उसके बाद भैरवलाल काळा बादळ नाम से ही पहचाने जाने लगे-
काळा बादळ रे! अब तो बरसा दे बळती आग्
बादळ राजा कान बिना रौ, सुणै न म्हांकी बात
थांका मन की थूं करै जद, चालै बांका हाथ, काळा बादळ रे।
छोरा-छोरी दूध बिना रे, चून बिना घर नार
नाज नहीं छै, लूण नहीं छै, नहीं तेल री धार, काळा बादळ रे।
स्वतंत्रता संग्राम के इसी दौर में कन्हैयालाल सेठिया ने प्रदेश वासियों को जाग्रत करने का काम किया। उन्होंने ई.1936 से काव्य सृजन आरम्भ किया। उनकी एक कविता की पंक्तियां इस प्रकार से हैं-
मांग रही है कितने युग से पीड़ित माँ बलिदान,
किंतु छिपाये बैठे हो तुम कायर अपने प्राण!
फुटकर दोहों में भी स्वतंत्रता की अलख जगाई जाती रही-
पराधीन भारत हुयो, प्यालां री मनुवार।
मात्र-भोम परतंत्र हो, बार-बार धिक्कार।।
ओ सुहाग खारो लगै, जद कायर भरतार।
रंडापो लागै भलो, होय सूर सिरदार।।
सीख राज री होय तो, पण चालूं में साथ।
दुसमण पण फिर देख ले, म्हांरा दो-दो हाथ।।
तिरंगे झण्डे को लेकर रियासती जनता ने राज्यव्यापी आंदोलन किया। क्रांतिकारी विजयसिंह पथिक ने तिरंगे पर एक गीत इस प्रकार लिखा-
झण्डा यह हर किले पर चढ़ेगा, इसका बल रोज दूना बढ़ेगा।
तोप तलवार बेकार होंगे, सोने वाले भी बेदार होंगे।
सब कहेंगे कि सर है कटाना, पर न झण्डा यह नीचे झुकाना।
शांत हथियार होंगे हमारे, पर ये तोड़ेंगे आरे दुधारे।
ई.1939 में जयपुर में जमनालाल बजाज की गिरफ्तारी के बाद शेखावटी क्षेत्र के चौमूं, झुंझुनूं एवं सीकर में बड़ी-बड़ी सभाएं हुईं। अंग्रेजों ने इन सभाओं को कुचलने का प्रयास किया। इसकी प्रतिक्रिया में गांव-गांव में आंदोलन उठ खड़े हुए। झुंझुनूं में आंदोलन का जोर सबसे अधिक थ। इसलिये झुंझुनूं को सैनिक छावनी में बदल दिया गया। यदि कोई व्यक्ति तिरंगा लिये दिख जाता तो सैनिक उस पर डण्डों की बरसात कर देते किंतु जनता दिन पर दिन उग्र होती गई। गांव-गांव में चंग बजने लगे जिन पर यह गीत गाया जाता-
आठ फिरंगी नौ गोरा,
लड़ै जाट का दो छोरा।
द्वितीय विश्वयुद्ध (ई.1939-1942) के समय भारत में स्वाधीनता संग्राम अपने चरम पर पहुंच चुका था। उन दिनों ग्रामीण जनता में तरह-तरह की अफवाहें फैली हुई थीं। एक अफवाह यह भी थी कि जर्मनी की फौजें भारत को आजाद करवाने के लिये आ रही हैं तथा स्वेज नहर तक पहुंच चुकी हैं। पशुपालकों में उन दिनों ये पंक्तियां प्रचलित थीं-
घर-घर बकरी घर-घर ऊँट,
जर्मन फिरगौ चारों कूंट।।
सागरमल ने जैसलमेर के महारावल द्वारा प्रजा पर किये जा रहे अत्याचारों के बारे में देश भर की पत्रिकाओं और अखबारों में लेख लिखे तथा नागपुर से ‘जैसलमेर का गुण्डा राज’ शीर्षक से एक पुस्तक भी प्रकाशित करवायी। सागरमल ने महारावल के चापलूस दरबारियों के विरोध में ‘महारावल के नवरत्न’ शीर्षक से एक कविता लिखी जिससे महारावल और उनके चापलूस सागरमल से कुपित हो गये। यह कविता इस प्रकार से थी –
प्रथम रतन पूना जिण देश किया सूना
चुगलखोरी का नमूना, भरे राज का कन्न है।
चापलूस चानणमल, चूके नहीं एक पल्ल,
जेल में दरोगा करनू खल खेल चुका फन्न है।
डॉक्टर दूरगू पायो व्यभिचारी फल है
नंदिये, नैपाले ने किया देश का पतन है।
राजमल, गुमान महादान डाकू आदि
भूपति? जवाहर के ऐसे रतन हैं।
अंग्रेजों और अत्याचारी शासकों के विरुद्ध जन भावनाएं लगातार बढ़ती चली गईं। 16 जनवरी 1946 को सागरमल गोपा ने जैसलमेर राज्य में झूठ के बल पर चल रहे शासन के बारे में जेल में एक कविता लिखी –
कूड़ी अदालत, कूड़ो शासन, कूड़ो कानून करे मन चायो
कूड़ो गवाह, कूड़ कुरान को, आई की आन में कूड़ समायो।
सैशन में जब केस गयो, तब लेश नहीं मैं सांच को पायो
ढोल के तान पै नाचत पोल, मदारी गुमाने ज्यों ढोल बजायो।
मुरादाबाद से कूड़ को लाद के, मोती को पूत यहाँ अब आयो
जीवनलाल को जेल में डाल के, लाले जोशी को कूड़ फंसायो।
सागरमल कियो न अमल, तब लाठी से कूड़ मंजूर करायो
किससे कहूँ, कौन सुने, अन्याय को यहाँ पर शासन छायो।
इस गीत की आंच से घबराकर जैसलमेर पुलिस ने सागरमल गोपा को जेल में ही जलाकर मार डाला। गोपा तथा उनके जैसे हजारों देशभक्तों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। 15 अगस्त 1947 को देश स्वतंत्र हुआ तथा देशी रियासतों का एकीकरण होने के बाद 30 मार्च 1949 को वर्तमान राजस्थान अस्तित्व में आया। आज यही राजस्थान, भारत का सबसे बड़ा प्रांत है।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता