Monday, February 10, 2025
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भगदड़ (74)

मराठे अपनी सेना का एक भाग प्रायः युद्ध के मैदान के पास अलग से रखते थे जिसका उपयोग मुख्य युद्ध में न होकर युद्ध के बाद की परिस्थितियों में तथा भगदड़ मचने पर भागते हुए शत्रुओं का संहार करने में होता था। मराठों ने डांगावास युद्ध में हाथ से निकलती हुई बाजी को इसी आरक्षित सेना के बल पर जीत में बदला था।

मरुधरानाथ की आशंका सही निकली कि जयपुर पर विश्वास नहीं किया जा सकता। वह कभी भी मूर्खता कर सकता है और उसने मूर्खता की। भीमराज बख्शी डांगावास में कच्छवाहों और मिर्जा इस्माईल के आने की प्रतीक्षा करता ही रह गया किंतु कच्छवाहे रणभूमि में नहीं आये। मिर्जा के लिये इतने कम समय में सेना जुटाना संभव नहीं हुआ।

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कोटा, बूंदी और मेवाड़ राज्यों ने भी स्वयं को इस लड़ाई से अलग कर रखा था। इस पर मरुधरानाथ ने बीकानेर और किशनगढ़ के राठौड़ राजाओं को अपनी सहायता के लिये बुलवाया। राठौड़ राजाओं ने पुरानी सारी बातों को भुलाते हुए मरुधरानाथ की सहायता करने का निश्चय किया। इस प्रकार यह लड़ाई मराठों को उत्तर भारत से निकाल बाहर करने की बजाय राठौड़ अस्मिता को बचाने की होकर रह गई थी किंतु वे भी समय पर डांगावास नहीं पहुँच सके। यही कारण था कि डांगावास के मैदान में मरुधरानाथ अकेला रह गया और भीमराज सिंघवी की मूर्खता के कारण पराजित हो गया।

भीमराज सिंघवी निःसंदेह महाराजा के सर्वाधिक योग्य सेनापतियों में से था। वह राज्य का बख्शी, महाराजा का विश्वासपात्र, तुंगा युद्ध का विजेता तथा राठौड़ों का सबसे बड़ा शुभचिंतक था। डांगावास की पराजय उसकी रणनीतिक चूक थी या कुछ और, इस पर विश्वास से कुछ कहा नहीं जा सकता था किंतु महाराजा को उसकी विश्वनीयता पर कोई संदेह नहीं था।

यद्यपि कई वर्ष पूर्व पासवान गुलाबराय ने भरे दरबार में भीमराज का अपमान किया था तथा उसकी खाल में नमक भरने की चेतावनी दी थी किंतु मरुधरानाथ के प्रति दृढ़ निष्ठा होने तथा मरुधरानाथ द्वारा सिंघवी के प्रति विश्वास जताने के कारण सिंघवी ने उस अपमान को हृदय से नहीं लगाया था। फिर भी डांगावास युद्ध में सिंघवी ने ऐसी भयंकर भूलें की थी जिनसे न केवल मरुधरानाथ और मारवाड़ का भविष्य खराब हो गया था अपितु सम्पूर्ण राजपूताने का भविष्य भी डांवाडोल हो गया था।

भीमराज सिंघवी राजपूतों की पुरानी युद्ध शैली को गले लगाये हुए था जिसमें सारी सैनिक शक्ति, मैदान में एक निश्चित व्यूह रचना में जमाकर एक साथ दांव पर लगा दी गई थी जबकि फ्रैंच और ब्रिटिश शक्तियाँ भारतीय क्षेत्र में युद्ध शैली में बड़े परिवर्तन ला चुकी थीं जिसमें सेना को भारी भरकम लश्कर का रूप देने के स्थान पर शीघ्रगामी छोटी बटालियनों में बांटा गया था।

भाग्य से मराठों के पास योग्य फ्रैंच जनरल मौजूद था। उसने मराठों की सेनाओं को यूरोपीय पद्धति पर पूरी तरह आधुनिक बना दिया था। मराठों के पास ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा बनाई गई तोपें भी मौजूद थीं जबकि भीमराज सिंघवी इस पद्धति को समझ नहीं पाया। वह मुगल शैली पर बनी पुरानी और भारी तोपें लेकर युद्ध के मैदान में पहुँचा था जिन्हें युद्ध के दौरान इधर से उधर न तो घुमाया जा सकता था, न उनका स्थान बदला जा सकता था।

जबकि फ्रैंच जनरल डी बोयने ने इस युद्ध के लिये छोटी और हल्की तोपें बनवाईं थीं ताकि उन्हें युद्ध के दौरान एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाया जा सकता था। उसने परम्परागत जातीय सेनाओं के स्थान पर फुर्तीले सैनिकों की बटालियनें खड़ी की थीं जो किसी भी समय व्यूह रचना को बदलने में सक्षम थीं।

छापामार युद्ध पद्धति में पारंगत मराठों की भी एक विशेषता थी जिसका लाभ उन्हें प्रायः मिलता ही था। वह विशेषता थी आरक्षित सेना का प्रावधान। मराठे अपनी सेना का एक भाग प्रायः युद्ध के मैदान के पास अलग से रखते थे जिसका उपयोग मुख्य युद्ध में न होकर युद्ध के बाद की परिस्थितियों में तथा भगदड़ मचने पर भागते हुए शत्रुओं का संहार करने में होता था। मराठों ने डांगावास युद्ध में हाथ से निकलती हुई बाजी को इसी आरक्षित सेना के बल पर जीत में बदला था।

जो भी हो युद्ध के बाद की वस्तुस्थिति यह थी कि राजपूतों में अब इतनी शक्ति शेष नहीं बची थी कि वे भविष्य में कभी भी बिना किसी बाह्य शक्ति की सहायता के मराठों का सामना कर सकें। जब डांगावास पराजय के समाचार जोधपुर पहुँचे तो लोगों में भगदड़ मच गई। उन्हें आशंका थी कि जो हाल मराठों ने पाटन शहर का किया था, वही जोधपुर का भी होगा।

इसलिये सामान्य प्रजा अपने घर खाली करके दूसरी रियासतों की ओर भागने लगी। मारवाड़ की राजधानी जोधपुर में मची भगदड़ को देखकर पासवान गुलाबराय भी दहल गई। उसने महाराजा को सलाह दी कि ऐसी विषम परिस्थिति में आप जोधपुर छोड़कर जालौर चले जायें। जोधाणे के गढ़ में रहना आपके लिये किंचित भी सुरक्षित नहीं है। महाराजा ने पासवान की सलाह मानकर गढ़ छोड़ने का निश्चय किया।

पाठकों को स्मरण होगा कि जब मरुधरानाथ मराठों से अजमेर छीनने की योजना बना रहा था तब गोवर्धन खीची ने मरुधरानाथ को सलाह दी थी कि वह अजमेर लेने का विचार छोड़ दे तथा महादजी के साथ नया पंगा खड़ा न करेे किंतु मरुधरपति ने उसकी सलाह न मानकर विपरीत आचरण किया जिससे रुष्ट होकर खीची काफी दिनों से जोधपुर का गढ़ छोड़कर अपनी जागीर सोयला में रह रहा था किंतु जब मरुधरानाथ ने उसे पाटन युद्ध में भाग लेने का निमंत्रण दिया था तो गोवर्धन पुरानी बातें भुलाकर जोधपुर लौट आया था।

ऐसा करना ही उसका धर्म था। जागीरदार होने के नाते युद्ध में राजा को घुड़सवार और पैदल सैनिक उपलब्ध करवाना और स्वयं तलवार लेकर युद्ध के मैदान में उतरना उसका पहला कर्त्तव्य था। इसी धर्म और इसी कर्त्तव्य से तथा दिवंगत महाराजाधिराज बख्तसिंह को दिये गये वचन से आबद्ध खीची, मरुधरानाथ को युद्ध के समय अकेला नहीं छोड़ सकता था। यही कारण था कि पाटन के युद्ध में गोर्वधन ने महाराजा का पूरा साथ दिया था तथा पाटन पराजय के बाद उसने राजकुमार शेरसिंह को समझौते के लिये महादजी सिन्धिया के पास भिजवाया।

डांगावास पराजय के बाद जब गोवर्धन खीची को ज्ञात हुआ कि मरुधरानाथ गढ़ छोड़कर जालौर जाने की सोच रहा है तो वह फिर से जोधपुर आया। जब वह नाराज होकर जोधपुर से चला गया था तो राजा के बुलाने पर भी नहीं आया था किंतु अब उसे मुसीबत में देखा तो बिना बुलाये आया।

महल में उपस्थित होकर उसने मरुधरानाथ को मुजरा किया। जब मरुधरानाथ ने देखा कि वृद्ध खीची आया है तो उसके बुझे हुए मन को जैसे नया जीवन मिल गया। वह बहुत दिनों से सोच रहा था कि यदि खीची उसके पास होता तो उचित सलाह देता कि इस दुर्दशा से कैसे बचा जाये किंतु मरुधरानाथ ने उसे बुलाने का कोई प्रयास नहीं किया था।

-‘बड़े दिनों में जोधाणे की याद आई ठाकरां?’ मरुधरानाथ ने खीची को देखकर प्रसन्नता व्यक्त की।

-‘मैं राठौड़नाथ से केवल इतनी विनती करने आया हूँ कि आप जोधाणे में दृढ़ होकर विराजे रहें। अपने बाप दादों का गढ़ छोड़कर न जायें। एक बार गढ़ छूटा तो मराठे भविष्य में फिर कभी राठौड़ों को नहीं लौटायेंगे। अपने राजा की और अपने गढ़ की रक्षा के लिये पूरा मारवाड़ तैयार खड़ा है।’

-‘जब मराठों ने हमारे पास बीठली गढ़ नहीं छोड़ा, मालकोट नहीं छोड़ा, पाटन नहीं छोड़ा तो आप क्या समझते हैं कि वे मेहरानगढ़ केवल इसलिये हमारे पास छोड़ देंगे कि हम यहाँ बैठे हैं और मारवाड़ का बच्चा-बच्चा हमारी रक्षा के लिये प्राण न्यौछावर करने के लिये तैयार है?’

-‘राठौड़ों ने पहले भी मराठों से अपने गढ़ बचाये हैं।’

-‘तब की बात और थी, आज की बात और है।’

-‘बात तो आज भी वही है स्वामी, अभी धरती राठौड़ों से खाली नहीं हुई। युद्ध में हार जीत तो चलती रहती है।’

-‘किंतु यह पहली बार हुआ है कि प्रजा जोधाणा छोड़कर भाग रही है।’

-‘कुछ लोगों को पूरी प्रजा नहीं कहा जा सकता महाराज। फिर भी इतना तो निश्चित है कि प्रजा को मराठों के राज में रहना स्वीकार्य नहीं, इसीसे प्रजा जोधाणा छोड़कर जा रही है।’

-‘बातों को घुमाओ मत ठाकरां। प्रजा के जोधाणा छोड़ने का मतलब केवल यह नहीं है कि उन्हें मराठों पर विश्वास नहीं, अपितु यह भी है कि प्रजा को हम पर विश्वास नहीं। प्रजा को साफ दिख रहा है कि मराठे किसी भी समय जोधाणे पर अधिकार कर लेंगे और हम जोधाणे को बचा नहीं पायेंगे।’

-‘प्रजा के विश्वास को तो फिर से लौटाया जा सकता है बापजी!’ खीची ने हार नहीं मानी।’

-‘कैसे?’

-‘आप मुट्ठी बांध कर गढ़ में बैठिये। तोपों में बारुद भरिये। डांगावास के मैदान से बचे राठौड़ निश्चित रूप से मराठों से पहले जोधपुर पहुँचेंगे, उनका उपयोग कीजिये। पहले राठौड़ों ने मराठों को जयप्पा सिंधिया का शव भेंट किया था इस बार उन्हें महादजी सिंधिया का शव उपहार में दीजिये।’

-‘खीची! तुम्हारी बातों से मेरे बूढ़े मन में उत्साह तो आता है किंतु विश्वास नहीं आता।’

-‘तो नाथ एक बूढ़े को दूसरे बूढ़े की सलाह मानने दीजिये। मैं आपसे दस पंद्रह साल अधिक बूढ़ा हूँ। आप जोधाणा छोड़कर मत जाइये। आप और हम दोनों मिलकर गढ़ से तोपें चलायेंगे और देखेंगे कि हजारों युवा मराठे, दो बूढ़े राजपूतों का सामना कैसे कर पाते हैं!’

-‘तुम्हारी यही बात तो सबसे अलग है खीची। तुम संकट में भी परिहास कर सकते हो। यही तुम्हारी शक्ति है। तुम्हारा यही परिहास हमें सम्बल देता है……. तो तय रहा कि ये दो बूढ़े राजपूत मेहरानगढ़ की प्राचीर से तोपें छोड़ेंगे।’

-‘बिल्कुल महाराज। जब जवान अपनी धरती की रक्षा नहीं कर सकते तो बूढ़ों को मोर्चा संभालना ही चाहिये।’

-‘तो ठीक है, हम यहीं मोर्चा बांधेगे, जालौर नहीं जायेंगे।’ मरुधरानाथ ने अपना निर्णय सुनाया।

गुलाब बहुत देर से दोनों मित्रों का वार्त्तालाप सुन रही थी। एक बार फिर खीची, महाराज को गुलाब की सलाह के विपरीत करने को कह रहा था और एक बार फिर महाराज गुलाब की सलाह न मानकर अपने मित्र और सलाहकार की बात मानने को तैयार हो गया था।

जब जोधाणे की प्रजा ने सुना कि मरुधरानाथ और खीची ने घोषणा की है कि वे दोनों गढ़ की प्राचीर से स्वयं तोपें चलाकर मराठों का सामना करेंगे तो पलायन रुक गया। प्रजा गढ़ छोड़कर जाने की बजाय महाराजा के महल के समक्ष आकर जयघोष करने लगी। सैंकड़ों नौजवानों ने अपने पुश्तैनी धंधे छोड़कर युद्ध कौशल सीखने की इच्छा जताई।

लुहार, सुनार, मोची, धोबी, नाई, महाजन, मोदी, तेली, ब्राह्मण, छींपे, कुम्हार, खाती आदि छत्तीसों कौमों के युवक राठौड़पति की सेना में भर्ती होने के लिये गढ़ के भीतर एकत्रित होने लगे। खीची ने इन युवकों को सेना में भर्ती करने और हथियार चलाने का प्रशिक्षण देने के लिये समुचित प्रबंध किया। इसके बाद उसने नवलराम व्यास को महादजी के पास संधि का प्रस्ताव लेकर भेजा।

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