Thursday, December 26, 2024
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महाराणा प्रताप की प्रशंसा में रचित अन्य काव्य

अज्ञात रचनाकर-

ओछो तिल न कूं न कूं तिल अधको मुणतां सुकव करां ले माप।

तूं  ताहरा  राण  टोडरमल  परियां  सारीखो  परताप।।

परियां अधक कहां किम पातल रायां तिलक हींदुवा रांण।

तैं सिर नहं नमियौ सुरताणां सांगै ग्रह मूका सुरतांण।।

ओछो केम कहाँ ऊदावत अकबर कहर तणै तप ईख।

अकबर सूं रहियौ अणनमियौ सरताणां ग्रहियां सारीख।।

कुळ ऊधोर प्रताप कहंतां पोढौ घणौ घणा वद पाय।

मणां न तो कुल मणां न तो में मणां न सुकव बखाणां मांय।।

दुरसा आढा कृत विरुद छीहोतरी काव्य के सोरठे-

अकबर गरब न आंण, हिन्दू सह चाकर हुआं

दीठौ कोई दीवांण करतो लटका कटहड़े?

अर्थात्- हे अकबर! तू हिन्दू राजाओं को तेरे सेवक हो जाने पर गर्व मत कर। क्या किसी ने दीवाण (महाराणा) को शाही कटघरे के आगे झुक-झुक कर सलाम करते हुए देखा है।

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कदै न नामै कंध, अकबर ढिग आवै न ओ।

सूरजबंस समंध पाळै रांण प्रतापसी।।

अर्थात्- वह (महाराणा) न तो कभी अकबर के निकट आता है और न सिर झुकाता है। राणा प्रतापसिंह तो सूर्यवंश की मर्यादा का पालन करता है।

सुख हित स्याळ समाज, हिन्दू अकबर बस हुवा।

रोसीलौ म्रगराज, पजै न राण प्रतापसी।।

अर्थात्- अपने सुख के निमित्त गीदड़ों के झुण्ड के समान हिन्दू अकबर के अधीन हो गये परन्तु खीझे हुए सिंह जैसा राणा प्रताप, अकबर के फंदे में कभी नहीं फंसता।

लोपै हिन्दू ताज, सगपण रोपे तुरक सूं।

आरजकुल री आज पूंजी राण प्रतापसी।।

अर्थात्- अनेक हिन्दू राजा, तुर्क अकबर से सगाई-सम्बन्ध कर रहे हैं जिससे हिन्दुओं का ताज लुप्त हो रहा है किंतु आर्यकुल की पूंजी आज प्रतापसिंह के रूप में ही बची है।

करै कुसामद कूर, करै कुसामद कूकरा,

दुरस कुसामद दूर, पुरस अमोल प्रतापसी।।

अर्थात्- कायर और कुत्ते खुशामद करते है। दृढ़-प्रतिज्ञ लोग खुशामद से दूर रहते हैं, प्रतापसिंह के बोल अमूल्य है।

अकबर पथर अनेक, कै भूपत भेळा किया।

हाथ न लागो हेक, पारस राण प्रतापसी।।

अर्थात्- अकबर ने पत्थर रूपी कई हिन्दू राजाओं को एकत्रित कर लिया है किंतु पारस रूपी एक राणा प्रतापसिंह ही उसके हाथ नहीं आया।

अकबर समंद अथाह, तिहं डूबा हिन्दू तुरक।

मेवाड़ो तिण मांह, पोयण फूल प्रतापसी।।

अर्थात्- अकबर रूपी समुद्र में हिन्दू और मुसलमान डूब गये परंतु मेवाड़ का स्वामी प्रतापसिंह कमल के पुष्प के समान उसके ऊपर ही शोभा दे रहा है।

अकबरिये इक बार दागल की सारी दुनी।

अणदागल असवार, एकज राण प्रतापसी।।

अर्थात्- अकबर ने सारी दुनिया के दाग लगा दिया है किंतु राणा प्रतापसिंह ही बिना दाग वाले घोड़े पर सवार होता है।

अकबर घोर अंधार, ऊँघाणा हिन्दू अवर।

जागै जग दातार, पौहरै रांण प्रतापसी।।

अर्थात्- अकबर रूपी घोर अंधेरी रात में अन्य समस्त हिन्दू नींद में सो रहे हैं किंतु जगत् का दाता प्रतापसिंह जगता हुआ पहरे पर खड़ा है।

गोहिल कुलधन गाढ लेवण अकबर लालची।

कोडी दै नह काढ, पणधर राण प्रतापसी।।

अर्थात्- गुहिलों की वंशरूपी सम्पत्ति को लालची अकबर लेना चाहता है किंतु प्रणवीर राणा प्रतापसिंह एक कौड़ी भी लेने नहीं देता।

कळपै अकबर कार्य, गुण पूंगीधर गोड़ियो।

मिणधर छाबड़ मांय, पडै़ न रांण प्रतापसी।।

अर्थात्- अकबर रूपी पुंगीधर संपेरा कई यत्न कर रहा है किंतु मणिधारी सर्प रूपी प्रतापसिंह उसकी छाबड़ी के भीतर नहीं घुसता।

दुरसा आढा कृत गीत-

आयां दळ सबळ सामहौ आवै

रंगियै खग खत्रवट रतौ।

ओ नरनाह नमै नहं आवै

पतसाहण दरगाह पतौ।

दाटक अनड़ दंड नहं दीधौ

रोयण घड सिर दाव दियौ।

मेळ न कियौ जाय बिच महलां,

केळपुरै खग मेळ कियौ।।

किलमां बांग न सुणियै कानां,

सुणियै वेद पुराण सुभै।

आहोड़ौ सूर मसीत न अरचै

अरचै देवळ गाय उभै।।

असपत इन्द्र अवनि आव्हड़ियां

धारां झड़ियां सहै धका।

घण पडियां सांकड़ियां घड़ियां

ना धीहड़ियां पढी नका।।

ऊभी अणी रहै ऊदावत

साखी आलम किलम सुणौ।

राणै अकबर वार राखियौ

पातल हिन्दू धरम पणौ।।

माला सांदू कृत गीत-

मह लागो पाप अझनमा मोकळ

पँड सुदतार भटतां पाप।

आज हुवा निकळंक अहाड़ा

पेखे मुख ताहरो परताप।।

चढ़तां कळजुग जोर चढंतो

घणा असत जाचतो घणौ।

मिळतां समै राण मेवाड़ा

टळियौ प्राछत देह तणौ।।

स्रग म्रत लोक मुणै सीसोदा

पाप गया उजमे परा

होतां भेट समै राव हींदू

हुवा पवित्र संग्रामहरा।।

ईषे तूझ कमळ ऊदावत

जनम तणौ गो पाप जुवौ

हेकण वार ऊजळा हींदू

हर सूं जांण जुहार हुवौ।।

माला सांदू कृत गीत- (कुछ लोग इस गीत को किसी अन्य कवि का मानते हैं)-

सामो आवियौ सुर साथ सहेतो ऊंच बहा उदाणा।

अकबर साह सरस अणमिळियां राम कहै मिळ राणा।

प्रमगुरु कहै पधारो पातळ प्राझा करण प्रवाड़ा।

हेवै सरस अमिळिया हींदू मोसूं मिळ मेवाड़ा।।

एकंकार ज रहियो अळगो अकबर सरस अनैसो।

विसन भणै रुद्र ब्रह्म विचाळै बीजा सांगण बैसौ।।

रामा सांदू कृत गीत (प्रताप के हाथों बहलोलखां के मारे जाने पर)- (कुछ लोग इसे गोरधन बोगसा द्वारा लिखित मानते हैं)

गयंद मान रै मुहर ऊभौ हुतौ दुरदगत

सिलहपोसां तणा जूथ साथै।

तद बही रूक अणचूक पातल तणी

मुगल बहलोलखां तणै माथै।

तणै भ्रम ऊद असवार चेटक तणै

घणै मगरूर बहरार घटकी।

आचरै जोर मिरजा तणै आछटी

भाचरै चाचरै बीज झटकी।

सूरतन रीझतां भीजतां सैलगपुर

पहां अन दीजतां कदम पाछै।

दांत चढ़तां जवन सीस पछटी दुजड़

तांत साबण ज्युंही गई त्राछै।

वीर अवसाण केवाण उजबक बहे

रांण हथवा दुय राह रटियौ।

कर झिलम सीस बगतर बरंग अंग कटे

कटे पाखर सुरंग तुरंग कटियौ।।

स्वामी गणेसपुरी कृत छप्पय (चेटक की मृत्यु पर)-

नच्चन बेर निहारि, पुत्त कहि चारु प्यार चाहि।

उहि छिन उमगि उडात, कंध धर हाथ भ्रात कहि।।

बग्ग उठत रन रुप्पि, बप्प कहि अपिप विरुदवर

तात भ्रात सुत सोक, गजब त्रिक परिग अरिग गर।

कट्टिग न पैर कट्टिग यकृत, कट्टिग मान निसान धन।

हय मरिग नहिंन चेटक अहह, मरिग रान पत्ता सुमन।।

जोधपुर के महाराजा मानसिंह कृत सोरठा-

गिरपुर देस गमाड़ भमिया पग पग भाखरां।

मह अंजसै मेवाड़ सह अंजसै सीसोदिया।।

अर्थात्- महाराणा प्रताप ने अपने पर्वतीय नगर और देश को खोकर पहाड़ों में जगह-जगह फिरा, इसी से आज मेवाड़ देश और सीसोदिया कुल गर्व करता है।

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