Friday, July 26, 2024
spot_img

84. नया युवराज

अपने विरोधियों को इधर-उधर हुआ देखकर गुलाब ने अपने दत्तक पुत्र शेरसिंह को युवराज बनाने का निर्णय किया। महाराजा ने भी इसकी स्वीकृति प्रदान कर दी। मरुधरानाथ को लगा कि इस समय राजकुमार जालमसिंह, कुँवर भीमसिंह तथा अन्य कुँवरों के साथियों की संख्या अधिक नहीं है इसलिये शेरसिंह को युवराज घोषित किये जाने के निर्णय का राज्य में अधिक विरोध नहीं होगा। थोड़ा बहुत विरोध तो किसी भी कुँवर को युवराज बनाये जाने पर होना ही था। इसलिये मरुधरानाथ गुलाब के निर्णय से सहमत हो गया।

शेरसिंह को मरुधरानाथ ने पासवान गुलाबराय की गोद में डाल दिया था। इससे वह पासवान के पुत्र के रूप में जाना जाता था। मारवाड़ की परम्परा के अनुसार कुँवर जालमसिंह सबसे बड़ा जीवित पुत्र होने के नाते युवराज पद पाने का अधिकारी था किंतु उसकी माता मरुधरानाथ से नाराज होकर अपने पुत्र को लेकर उदयपुर चली गई थी तथा वहीं रहती थी इस कारण युवराज पद पर उसका दावा उतना प्रबल नहीं रहा था।

 मारवाड़ के सारे सरदार तथा स्वयं मरुधरानाथ चाहता था कि सबसे बड़े कुँवर फतहसिंह का एक मात्र दत्तक पुत्र होने के नाते कुँवर भीमसिंह युवराज बने किंतु गुलाब ने राज्य के सरदारों और महाराज की इच्छा के विरुद्ध अपने दत्तक पुत्र शेरसिंह को ही युवराज पद देने का निर्णय किया। इसके लिये उसने सबसे पहले कुँवर जालमसिंह को अपने मार्ग से हटाने का उपाय किया और जोधपुर राज्य से मिली हुई उसकी जागीर को जब्त करके राज्य के समस्त राजस्व अभिलेखों और सनदों में से उसका नाम हटा दिया।

इसके बाद गुलाब ने महादजी सिन्धिया को पत्र लिखा कि यदि आप कुँवर शेरसिंह के लिये टीका भेज दें तो जोधपुर राज्य की ओर से मामलत का चुकारा करने का पूरा दायित्व मेरा रहेगा। उन दिनों महादजी सिन्धिया उदयपुर में महाराणा का अतिथि था। जब राजकुमार जालमसिंह को ज्ञात हुआ कि कुँवर शेरसिंह को मारवाड़ का उत्तराधिकारी बनाने के लिये मेरेे सारे अधिकार समाप्त कर दिये गये हैं तथा पासवान ने महादजी को अपने पक्ष में करने के लिये पत्र भेजा है तो जालमसिंह ने महाराणा के माध्यम से महादजी से सम्पर्क किया। महादजी ने कुँवर को मिलने के लिये बुलावाया।

कुवंर महाराणा के साथ महादजी के डेरे पर गया और बोला-‘मारवाड़ राज्य के उत्तराधिकारी तो हम हैं। हमें जीवित रहते ही मृत मान लिया गया है तथा राजस्व अभिलेखों से हमारा नाम हटा दिया गया है। अतः आप इस प्रकरण में पासवान का पक्ष न लें।’

-‘यह बात मैं भी जानता हूँ किंतु मामलत के चुकारे का जिम्मा पासवान ने लिया है। इससे हमारे राज्य को दो लाख रुपये की वार्षिक आय होती है। अतः भले ही आपको जीवित रहते मृत मान लिया जाये, राज वही करेगा जिसके भाग्य में होगा।’ सिन्धिया ने महाराणा की तरफ देखकर जवाब दिया।

जालमसिंह महादजी का यह उत्तर सुनकर निराश हो गया और वह उसके डेरे से उठकर चला आया। जब महाराणा भी वहाँ से चला गया तब धनसिंह जमादार ने पासवान की ओर से पैरवी की-‘यदि महादजी सिन्धिया शेरसिंह के लिये टीका भिजवायेंगे तो पासवान उन्हें दो लाख रुपये देगी।’

इस पर महादजी ने धनसिंह के साथ, मरुधरानाथ के लिये वस्त्र, सिरपेंच, मोतियों की कण्ठी तथा चौकड़ा (कर्णाभूषण) तथा पासवान के लिये वस्त्र भेज दिये। उसने दीवान भवानीराम और भैरजी को वस्त्र, हथिनी एक मृत्युयोगदान और एक उत्तम घोड़ा भिजवाया।

जब शेरसिंह को टीका देने के काम में महादजी का समर्थन प्राप्त हो गया तब पासवान ने पण्डितों को बुलाकर श्रेष्ठ मुहूर्त्त निकालने के लिये कहा। पण्डितों ने आगामी आश्विन शुक्ला तृतीया को कुँवर शेरसिंह को टीका देने का समय सुझाया। मरुधरानाथ के पांचवे पुत्र गुमानसिंह को इन तैयारियों की जानकारी हुई तो उसने पिता का कड़ा विरोध किया तथा कहा कि न्याय पूर्वक कार्य करना हो तो कुँवर भीमसिंह को युवराज घोषित करो। उससे प्रसन्न नहीं हों तो अपने सबसे बड़े जीवित पुत्र जालमसिंह को युवराज बनाओ। उनसे भी सहमत नहीं हों तो हमें अपना उत्तराधिकारी बनाओ। कुँवर शेरसिंह सबसे छोटा है और वैसे भी पासवान के गोद चला गया है। एक पासवान का पुत्र मारवाड़ का उत्तराधिकारी कैसे हो सकता है!

राज्य के अधिकांश मुत्सद्दी और ठाकुर, कुँवर शेरसिंह को टीका देने से प्रसन्न नहीं थे इसलिये वे खुलकर कुँवर गुमानसिंह के समर्थन में आ गये। इसलिये यह आशंका प्रबल हो गई कि यदि शेरसिंह को टीका मिला तो राजधानी जोधपुर में बड़ा उपद्रव खड़ा होगा। महाराजा के मुत्सद्दियों ने इस मुहूर्त्त को टालने की सलाह दी। बना बनाया खेल इस प्रकार बिगड़ते देखकर गुलाब के क्रोध का पार न रहा। जैसे क्रोध में अंधी नागिन आगा-पीछा देखने की शक्ति खोकर, परिणाम की चिंता किये बिना, जलती आग में कूद पड़ती है वैसे ही गुलाब ने आग से खेलने का निश्चय किया।

उसने अपने आदमियों के माध्यम से कुँवर गुमानसिंह की दवा में सोमल मिलवा दिया। जैसे ही कुँवर ने विष मिश्रित दवा पी, उसके प्राण पंखेरू उड़ गये। कुँवर का आकस्मिक निधन हो जाने से पूरा नगर अपने आप स्तब्ध और शांत हो गया किंतु अब गुलाब के लिये आश्विन तृतीया के दिन शेरसिंह को टीका दिलवाना संभव नहीं रहा। अतः मुहूर्त्त टल गया और कार्तिक शुक्ला द्वादशी का नया मुहूर्त्त निर्धारित किया गया।

जब उदयपुर में बैठे कुँवर जालमसिंह को ज्ञात हुआ कि आश्विन शुक्ला तृतीया का मुहूर्त्त टल गया तो उसने अपने पिता मरुधरानाथ को पत्र लिखकर पुनः अनुरोध किया कि मैं आपकी आज्ञानुसार, बिना कोई उपद्रव किये शांति से बैठा हूँ। आप कुँवर शेरसिंह को राज्य दे रहे हैं, यह अनुचित है। मुझे कोई सन्तान नहीं है। उम्र के पैंतालीस वर्ष तो मैंने गुजार ही दिये हैं। आप वृद्ध हो रहे हैं और यदि अपने सामने ही राज्य की व्यवस्था करने की इच्छा है तो महाराणी शेखावतजी के पौत्र भीमसिंह को राज्य दे दें, वे राज्य के हकदार हैं। हम सब उनके साथ हैं। उनकी सहायता के लिये उनके मामा की ओर से चालीस हजार शेखावत- कच्छवाहे जयपुर में सन्नद्ध हैं। दासी की गोद में अपना लड़का देकर, आप और पासवान दोनों मिलकर उसे राज्य दे रहे हैं, यह बात लोक और परलोक दोनों के लिये ठीक नहीं है। यदि आप शेरसिंह को राज्य देते हैं तो मैं महादजी सिन्धिया के साथ जोधपुर आ रहा हूँ। इसलिये दूरदृष्टि से विचार कर उत्तराधिकारी तय करें।

गुलाब यह पत्र पढ़कर आग बबूला हो गई। उसने कहा कि जो कुँवर मारवाड़ के दुश्मन महादजी सिंधिया को लेकर महाराज पर आक्रमण करने की धमकी दे, उसकी कोई बात नहीं सुनी जायेगी तथा उसे देशद्रोही समझा जायेगा। यह कहकर गुलाब ने जालमसिंह के कारभारी को कैद करके उसके पैरों मे बेड़ियां डलवा दीं। उसी दिन राजकीय सिपाहियों द्वारा कुँवर जालमसिंह के कारभारी के घर को भी लूट लिया गया।

अंततः गुलाब की इच्छानुसार द्वादशी के मुहूर्त्त पर शेरसिंह को टीका दे दिया गया। जब टीका देने की विधि पूरी हो गई तो गुलाब ने सारे सरदारों और मुत्सद्दियांे के समक्ष मरुधरानाथ से करबद्ध निवेदन किया-‘महाराज! अब आप वृद्ध हैं, राज्य कार्य करने में आपको काफी कठिनाई होती है इसलिये आज से राज्य कार्य युवराज को करने की अनुमति प्रदान करें और अपने पुरखों का सिंहासन तथा मोरछल आदि राजकीय चिह्न युवराज को सौंप दें।’

-‘नहीं अन्नदाता! यह उचित नहीं है। इस समय कुवंरों के बीच असंतोष है। इसलिये आप कुँवर भीमसिंह को राज्यकार्य चलाने की आज्ञा भले ही दे दें किंतु मोरछल तथा सिंहासन अपने पास ही रखें।’ गोवर्धन खीची ने हाथ जोड़कर निवेदन किया।

गोवर्धन की ऐसी दृढ़ता देखकर मरुधरानाथ चुप हो गया। गोवर्धन और गुलाब, दोनों ही महाराज के जीवन के लिये ऐसी कठिन पहेली बन गये थे जिसे सुलझाना महाराज के वश की बात नहीं थी। पता नहीं क्यों, आरंभ से दोनों व्यक्तियों की राय एक दूसरे के विपरीत होती थी! महाराज का मन सदैव गोवर्धन की राय मानने का होता था किंतु महाराज सदैव गुलाब की राय मानता आया था। इसलिये गुलाब ने गोवर्धन के विरोध की परवार नहीं की और उसने अपना अनुरोध फिर दोहराया।

-‘अन्नदाता! यदि युवराज पर राज का जिम्मा छोड़ा गया और उन्हें मोरछल तथा सिंहासन नहीं दिये गये तो उनका आदेश कौन स्वीकार करेगा?’ गुलाब ने प्रतिवाद किया।

इससे पहले कि यह विवाद आगे बढ़ता महाराजा उठ कर खड़ा हो गया और दरबार समाप्त हो गया। मरुधरानाथ का यह रुख देखकर गुलाब भौंचक्की रह गई। महाराजा ने राजसिंहासन नहीं छोड़ा। गोवर्धन खीची की राय मान ली तथा युवराज को मोरछल आदि सामग्री प्रदान नहीं की। गुलाब समझ गई कि मुझे प्रसन्न रखने भर के लिये टीका देने की रस्म की गई है। वास्तव में युवराज नहीं बनाया गया है। इसलिये वह क्रुद्ध होकर बोली-‘आपने मेरे साथ मजाक किया है। बिना सिंहासन और बिना मोरछल के कैसा राजा?’

गुलाब की बात सुनकर कई मुत्सद्दी और ठाकुर खिलखिलाकर हँस पड़े। गुलाब को लगा कि वह सबके सामने मजाक बन कर रह गई है। ठाकुरों और मुत्सद्दियों के हँसने पर भी मरुधरानाथ चुप रहा। इस पर गुलाब का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया। वह भभक कर बोली- ‘आपने जैसा किया उसका फल भी वैसा ही मिलेगा।’

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source