किशनगढ़ के महाराजा प्रतापसिंह के साथ पूर्व में हुए समझौते के अनुसार किशनगढ़ वालों में जोधपुर रियासत के पचास हजार रुपये अभी तक शेष थे। कई वर्ष बीत गये थे किंतु किशनगढ़ वालों की तरफ से रुपये चुकाने की कोई चर्चा नहीं हुई तो गुलाबराय ने किशनगढ़ के वकील को बुलाकर रुपये मांगे-‘जोधपुर राज्य को इस समय रुपयों की आवश्यकता है, आपकी ओर हमारे पचास हजार रुपये हैं, वे दीजिये।’
-‘किशनगढ़ वालों के पास रुपया है ही कहाँ?’ वकील ने उत्तर दिया।
इस पर गुलाबराय ने किशनगढ़ के दीवान हमीरसिंह को बुलाया जो उन दिनों जोधपुर में ही था और उससे राशि की मांग की क्योंकि वह भी इकरारनामे में शामिल था। हमीरसिंह ने पासवान की बात स्वीकार नहीं की। इस पर पासवान ने उसे बंदी बनाना चाहा किंतु हमीरसिंह, मराठा जमादार धनसिंह को पाँच हजार रुपये, सदाशिव पन्त को दो हजार रुपये तथा भैरजी साणी को पाँच हजार रुपये, सिरोपाव, घोड़ा, कण्ठी और कुड़की देकर जोधपुर से निकल भागा तथा किशनगढ़ पहुँचकर अपने स्वामी से सब समाचार जा कहे। जोधपुर से निकलते समय हमीरसिंह ने पासवान से कहलवाया कि आप जोधपुर का राज्य शेरसिंह को दिलवा रही हैं। यदि आवश्यकता हो तो हम पाँच हजार राजपूतों के साथ उपस्थित हैं किंतु जिस समय आप शेरसिंह को टीका दिलायेंगी, उस समय हम भी नये स्वामी के सेवक हो जाते हैं। अतः हमारे लिये भी टीका भिजवाया जाना चाहिये। आज से ठीक दसवें दिन हम टीका लेकर आयेंगे।
हमीरसिंह से पासवान की कारगुजारियों के समाचार पाकर महाराजा प्रतापसिंह ने मरुधरानाथ के ज्येष्ठ कुँवर जालमसिंह को पत्र लिखा कि यदि आप चाहते हैं कि हम दासीपुत्र के लिये टीका भेज दें तो ठीक है और यदि आपका विचार अन्यथा हो तो हमें पत्र लिखिये। कुंवर जालमसिंह ने किशनगढ़ महाराजा को प्रत्युत्तर भेजा कि आप अपने स्थान पर चैन से बिराजे रहें। शेरसिंह के लिये टीका न ले जावें। हम वादा करते हैं कि यदि आवश्यकता होगी तो आपको अवश्य बुलाया जायेगा।