Friday, July 26, 2024
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85. दगा ही दगा

मरुधरपति पूरा प्रयास कर रहा था कि मराठों के साथ हुई संधि के अनुसार उनका कर समय पर चुका दिया जाये किंतु मराठों का कर था कि महारानी द्रौपदी के चीर की तरह उसका छोर आता ही नहीं था! उधर मराठे रुपयों के लिये अपना शिकंजा कस रहे थे और इधर गुलाबराय महाराजा पर दबाव डाल रही थी कि वह राजसिंहासन और मोरछल युवराज शेरसिंह को सौंप दे। पासवान की इस कुचेष्टा से चिढ़कर राज्य के मुत्सद्दी और ठाकुर, पासवान को नीचा दिखाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ते थे। पासवान भी उन पर आघात-प्रतिघात करती रहती थी।

इन सब कारणों से मरुधरपति को अपने चारों ओर षड़यंत्रों की दुर्गन्ध आती थी। उसे लगता था कि राज्य के किसी आदमी की आँख में शर्म नहीं बची। महल से लेकर दरबार और ड्यौढ़ी पर सबके सब उद्दण्ड, मुँहजोर, षड़यंत्री और कामचोर हो गये हैं। जब मरुधरानाथ अपने चारों ओर के वातावरण से ऊबने लगा तो राज्य कार्य से उदासीन होने लगा। शनैः शनैः उसका मन भगवत् चरणों में लग गया। इन दिनों उसे देखकर केवल एक ही उक्ति का स्मरण होता था- हारे को हरिनाम!

गुलाब विरोधी मुत्सद्दियों और सामंतों ने प्रयास किया कि वे मरुधरानाथ को राज्य कार्य में प्रवृत्त रखें ताकि शासन पूरी तरह शेरसिंह और गुलाबराय के हाथों में न चला जाये किंतु मरुधरानाथ पर इन प्रयासों का कोई प्रभाव नहीं हुआ।

जब मुत्सद्दियों ने मरुधरानाथ को राज्यकार्य के लिये तत्पर होते नहीं देखा तो उन्होंने उसे मराठों का भय दिखाकर मारवाड़ पर भावी युद्ध का खतरा मण्डराने का नाटक रचा। उन्होंने खूबचंद खीची के माध्यम से मरुधरानाथ को यह परामर्श दिलवाया कि मराठे सांभर, अजमेर तथा राठौड़ों की अन्य भूमि पर आनुवांशिक रूप से स्थाई अधिकार जमाना चाहते हैं इसलिये आप जयपुर नरेश के साथ मिलकर महादजी सिन्धिया से युद्ध करें। इस प्रकार उन्होंने भावी युद्ध के बीजारोपण का प्रयास किया और वकील खुशालीराम बोहरा को जयपुर नरेश से वार्त्ता करने के लिये जयपुर भेजा। किशनगढ़ वालों को भी मराठों के विरुद्ध तैयार किया गया।

जोधपुर के मुत्सद्दियों ने अपने दूतों के माध्यम से माचेड़ी के रावराजा प्रतापसिंह नरुका से भी सम्पर्क साधा और उसे फिर से भड़काने का प्रयास किया कि जयपुर की राज्यगद्दी पूर्व नरेश पृथ्वीसिंह के पुत्र को मिलनी चाहिये। जोधपुर के मुत्सद्दियों ने महादजी सिंधिया को रणथंभौर और करोड़ों रुपयों का आमिष दिखाकर उसे जयपुर राज्य पर आक्रमण करने के लिये भी भड़काया। इस प्रकार एक बार फिर से चारों ओर युद्ध का वातावरण तैयार होने लगा।

खुशालीराम बोहरा की बात जयपुर में नहीं सुनी गई तो वह जोधपुर आकर जयपुर वालों के विरुद्ध षड़यंत्र करने लगा। इस पर मरुधरानाथ ने उसे नजरबंद करके जयपुर भिजवा दिया। कुछ दिनों बाद मरुधरानाथ ने नारो गणेश तथा शिवचंद को मराठों के सूबेदार तुकोजीराव होलकर के पास भेजा तथा सूबेदार के लिये दो लाख रुपये मूल्य के उपहार उनके साथ भिजवाये। नारो गणेश तथा शिवचंद ने वे उपहार मराठा सूबेदार को न देकर स्वयं हड़प लिये।

इधर गुलाब विरोधी मुत्सद्दियों के सिखाने पर खूबचंद खीची, गोवर्धन खीची से दुश्मनी होने का प्रदर्शन करके मरुधरानाथ का परामर्शदाता बन गया और उसे महादजी के विरुद्ध भड़काने लगा। उधर से महादजी सेना लेकर जोधपुर की ओर रवाना होने की तैयारी करने लगा।

जब पेशवा के प्रधानमंत्री नाना साहब को इन सब बातों का पता लगा तो उसने मरुधरानाथ को चेतावनी भिजवाई कि राजपूताने की शांति को फिर से भंग करने का प्रयास नहीं किया जाये तथा महादजी के साथ सम्बन्ध बिगाड़ने की कुचेष्टा बंद की जाये। इस पर मरुधरानाथ ने काफी रुखाई के साथ नाना साहब को उत्तर भिजवाया कि महादजी मारवाड़ का रक्त पीकर ही शांत रहना चाहता है किंतु हम उसे रक्त पिलाने के लिये तैयार नहीं है। हम अपने रक्त को युद्ध के मैदान में बहा देंगे।

कृष्णाजी जगन्नाथ को इस बात का पता लग गया कि इन सब गतिविधियों के पीछे और कोई नहीं, महाराजा के अपने विश्वसनीय मुत्सद्दी और सामंत हैं। उसने इन मुत्सद्दियों का भेद महाराजा विजयसिंह के सामने खोल दिया और उसे बता दिया कि खूबचंद खीची, गोवर्धन खीची का शत्रु नहीं है, उसने आपके निकट आने के लिये यह नाटक रचा है।

मरुधरानाथ ने गोवर्धन खीची को गढ़ में बुलकार सच्चाई जानने का प्रयास किया कि मराठों के विरुद्ध युद्ध का वातावरण तैयार करने का षड़यंत्र किसने तैयार किया! इस पर मुत्सद्दियों ने गोवर्धन खीची को नजरबंद कर लिया ताकि महाराजा के समक्ष सच्चाई न पहुँच सके। पासवान ने अपने आदमियों के माध्यम से इस पूरे छल का पता लगा लिया। राज की ओर से छः मुत्सद्दियों पर घर भेदिये होने का आरोप लगा। उन्हें पासवान के आदमियों द्वारा तत्काल धर लिया गया। महाराजा ने पेशवा से क्षमा याचना का पत्र लिखा कि अपने मुत्सद्दियों के कहने में आकर मैंने आपकी बात नहीं मानी, उसका यह फल हुआ।

महाराजा ने सवाईसिंह चम्पावत के चाचा बुधसिंह और भवानीराम भण्डारी को महादजी के वकीलों के पास समझौता वार्त्ता करने के लिये भेजा। महाराजा चाहता था कि इस समझौते की मध्यस्थता कृष्णाजी जगन्नाथ करे किंतु महादजी के आदमियों ने जगन्नाथ को वार्त्ता में साथ नहीं रखा। इस पर महाराजा ने निश्चय किया कि यदि महादजी के साथ समझौता हो जाता है तो उसकी शर्तें स्वीकार कर लेने के आशय का पत्र महादजी के वकील को सौंप दंेगे किंतु यदि समझौता नहीं होता है तो इस्माईल बेग को साथ लेकर युद्ध के लिये तैयार रहेंगे।

भवानीराम भण्डारी पीढ़ी दर पीढ़ी से जोधपुर राज्य का नौकर था। वह मरुधरानाथ की ओर से संधि का प्रस्ताव लेकर महादजी के पास गया किंतु वापस लौट कर आने के स्थान पर महादजी सिन्धिया के कारभारी आबाजी रघुनाथ चिटनिस की सहायता से वहीं जम गया। उसके विश्वासघात से क्रुद्ध होकर महाराजा ने विचार किया कि किसी तरह उसे जोधपुर वापस लाया जाये तथा विश्वासघात के लिये उसे दण्डित किया जाये।

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