युवराज के पद पर रहते हुए ही महाराजकुमार भूपालसिंह ने भारत की राजनीति में अपनी पहचान बनानी आरम्भ की। जून 1919 में सम्राट जॉर्ज पंचम के जन्मोत्सव पर महाराजकुमार भूपालसिंह को के.सी.आई.ई. का खिताब मिला। राजपूताने में किसी महाराजकुमार को ऐसी उपाधि पहली बार दी गई। जिस प्रकार महाराणा अमरसिंह (प्रथम) ने अपने राज्य के समस्त कार्य अपने जीवन काल में ही युवराज कर्णसिंह को सौंप दिये थे, उसी प्रकार महाराणा फतहसिंह ने भी अपने जीवन काल में 28 जुलाई 1921 को अधिकांश कार्यभार महाराजकुमार भूपालसिंह को सौंप दिये। महाराणा फतहसिंह के निधन के बाद महाराजाधिराज महाराणा सर भूपालसिंह बहादुर 24 मई 1930 को उदयपुर राज्य की गद्दी पर बैठे।
राष्ट्रीय राजनीति में उथल-पुथल का युग
जिस समय भूपालसिंह को राज्याधिकार मिले, भारत की राजनीति में तेजी से उथल-पुथल हो रही थी जिसका अंत भारत की स्वतंत्रता, भारत के विभाजन, राजस्थान के निर्माण तथा देशी रियासतों के विलोपन के रूप में होना था। इस उथल-पुथल में गोरी सरकार, कांग्रेस, मुस्लिम लीग, देशी राज्य आदि कई महाशक्तियों को परस्पर संघर्ष करना था। भारत की विषम राजनीतिक संरचना के साथ-साथ, भारत की जटिल सामाजिक संरचना भी इस संघर्ष में कटुता का विष घोलने के लिये तैयार खड़ी थी। इसलिये महाराणा भूपालसिंह के कंधों पर भारत की राजनीति में मेवाड़ के लिये सम्मानजनक स्थान बनाये रखने का महती दायित्व आ गया। महाराणा की भूमिका, मेवाड़ के हितों तक ही सीमित नहीं थी, उन्हें यह भी देखना था कि भविष्य में बनने जा रहे स्वतंत्र भारत का निर्माण, भारत की उच्च परम्पराओं तथा राष्ट्रीयता के अधिकतम हित-संरक्षण के अनुरूप हो। महाराणा भूपालसिंह ने इस चुनौती को स्वीकार कर लिया।
ब्रिटिश भारत तथा रियासती भारत
अंग्रेजों ने भारत में दो प्रकार की शासन व्यवस्था स्थापित की थी। पहली व्यवस्था के अंतर्गत वे ब्रिटिश शासित क्षेत्र आते थे जिन्हें अंग्रेजों ने सैन्य-बल, छल-बल और धन-बल से अपने अधीन किया था। इन क्षेत्रों को ब्रिटिश भारत कहा जाता था। यह क्षेत्र 11 ब्रिटिश प्रांतों में बंटा हुआ था। दूसरी व्यवस्था के तहत वे देशी राज्य आते थे जिन पर परमोच्चता के माध्यम से शासन किया जाता था। इन क्षेत्रों को रियासती भारत कहा जाता था। यह क्षेत्र 565 देशी रियासतों में बंटा हुआ था जिनमें निजाम हैदराबाद और जम्मू काश्मीर की विशाल रियासतों से लेकर काठियावाड़ की नाखूनी (बौनी) रियासतें सम्मिलित थीं। ब्रिटिश भारत की भांति रियासती भारत में भी अधिकांशतः अंग्रेजों के बनाये हुए कानून चलते थे तथा अंग्रेज अधिकारी, पॉलिटिकल एजेंट या रेजीडेण्ट के नाम से शासन करते थे। प्रादेशिक स्तर पर इनका मुखिया एजेंट टू दी गवर्नर जनरल होता था तथा राष्ट्रीय स्तर पर स्वयं गवर्नर जनरल होता था जिसे राज्यों से व्यवहार करते समय वायसराय अर्थात् राजा का प्रतिनिधि कहा जाता था।
नरेन्द्र मण्डल की राजनीति में मेवाड़ की उदासीनता
1920 के दशक में देश में संवैधानिक सुधारों की मांग होने लगी। यह मांग दोहरे स्तर पर थी। एक ओर ‘ब्रिटिश भारत’ में कांग्रेस असहयोग आंदोलन चला रही थी जबकि दूसरी ओर ‘रियासती भारत’ में राजा लोग प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सरकार का भरपूर साथ देने के बदले में पुरस्कार मांग रहे थे। रजवाड़ों की मांगों को देखते हुए मांटेग्यू चैम्सफोर्ड रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया था कि भारतीय नरेशों की एक स्थायी परिषद होनी चाहिये। फलतः ई.1921 में नरेंद्र मण्डल (चैम्बर ऑफ प्रिंसेज) की स्थापना की गयी। 8 फरवरी 1921 को सम्राट जार्ज पचंम के चाचा ड्यूक ऑफ कनॉट ने दिल्ली के लाल किले में इसका उद्घाटन किया।
इस अवसर पर सम्राट की ओर से की गयी घोषणा मेें कहा गया कि मेरे पूर्वजों द्वारा एवं स्वयं मेरे द्वारा अनेक अवसरों पर दिये गये आश्वासनों के अनुसार मैं भारतीय शासकों के विशेषाधिकारों, अधिकारों एवं उनकी गरिमा को बनाये रखूंगा…….राजा लोग इस बात को लेकर निश्चिंत रहें, यह प्रतिज्ञा सदैव अनुल्लंघनीय एवं पवित्र बनी रहेगी। नरेंद्र मण्डल की स्थापना, भारतीय रजवाड़ों के सम्बन्ध में अब तक चली आ रही ब्रिटिश नीति में बहुत बड़ा परिवर्तन था। अब तक ब्रिटिश नीति यह रही थी कि नरेशों को एक-दूसरे से अलग-थलग रखा जाये किंतु नरेंद्र मण्डल ने भारतीय राजाओं को एक साथ बैठने तथा एक आवाज में बोलने का अवसर प्रदान किया।
नरेन्द्र मण्डल के अधिवेशनों की अध्यक्षता वायसराय करता था। वायसराय की अनुपस्थिति में चांसलर द्वारा अध्यक्षता की जाती थी। इसका अधिवेशन प्रतिवर्ष जनवरी या फरवरी में दिल्ली में होता था। ई.1927 तक इसका अधिवेशन बन्द कमरे में हुआ किंतु 1928 से खुला अधिवेशन होने लगा। इस संस्था का प्रथम चासंलर बीकानेर महाराजा गंगासिंह था। 9 फरवरी 1921 को उसे नरेन्द्र मण्डल का चांसलर चुना गया, ई.1926 तक वह इस पद पर रहा।
इस संस्था से अपेक्षा की गयी थी कि यह देशी राज्यों में प्रशासनिक सुधार के काम को आगे बढ़ायेगी किंतु हैदराबाद, कश्मीर, बड़ौदा, मैसूर, त्रावणकोर, कोचीन और इन्दौर आदि कई बड़ी रियासतें नरेन्द्र मण्डल में सम्मिलित नहीं हुईं, दूसरी ओर 127 छोटी-छोटी रियासतों में से कुल 12 सदस्य ही नरेन्द्र मण्डल में लिये गये। इन दोनों कारणों से यह संस्था मध्यमवर्गीय रियासतों की संस्था बन कर रह गयी। यह एक परामर्शदात्री संस्था थी। इसकी बैठक वर्ष में कम से कम एक बार अवश्य होती थी।
इस संस्था का मुख्य कार्य ब्रिटिश सरकार से परामर्श लेना तथा ब्रिटिश सरकार को परामर्श देना था किंतु बाद में यह संस्था भारतीय राजाओं के अधिकारों के सम्बन्ध में तथा ब्रिटिश नीति के सम्बन्ध में भी विचार विमर्श करने लगी। आरंभ में नरेन्द्र मण्डल के अनेक सदस्य अखिल भारतीय संघ के निर्माण के पक्ष में थे। कंेद्रीय धारासभा, गोलमेज सम्मेलन या इस प्रकार के अन्यान्य सम्मेलनों में प्रस्तुत प्रस्ताव एवं विधेयक, नरेश मण्डल की स्वीकृति के बिना संवैधानिक स्तर प्राप्त नहीं कर सकते थे। इस प्रकार ‘नरेन्द्र मण्डल’ या ‘देशी राज्यों का संघ’ सरकार की सुरक्षा प्राचीर था जिसकी चिनाई बाँटो और राज करो के चूने-गारे से हुई थी।
कुछ भारतीय नरेशों ने नरेन्द्र मण्डल के माध्यम से अपनी राजनीति चमकाने का कार्य आरम्भ किया। इनमें राजपूताना के अलवर, बीकानेर और धौलपुर राज्य अग्रणी थे। राजपूताने से बाहर के नरेशों में पटियाला एवं भोपाल राज्य प्रमुख थे। एक ओर ये राजा नरेन्द्र मण्डल को मंच बनाकर राष्ट्रीय राजनीति पर अपना प्रभाव बनाने का प्रयास कर रहे थे तो दूसरी ओर इनमें परस्पर ईर्ष्या और प्रतिस्पर्द्धा का भाव अपने चरम पर पहुंच गया। इन राजाओं को आशा थी कि इस मंच के माध्यम से वे अपनी आंतरिक स्वायत्तता, सम्मान तथा अधिकारों की रक्षा कर सकेंगे।
राजस्थान के राज्यों के साथ की गई संधियों की भाषा अत्यंत उदार थी। उन संधियों को आधार बनाकर, भारत की अंग्रेजी सरकार बढ़ते हुए राष्ट्रवाद के विरुद्ध राजाओं का सहयोग प्राप्त करने के लिये कुछ मूल्य चुकाने को तैयार थी।
सामूहिक रूप से एकजुट होकर यदि शासकों की अपने योगदान के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट योजना होती तो निश्चय ही वे इस अवसर का लाभ उठा सकते थे। इसके विपरीत उनमें से प्रत्येक केवल अपने सम्मान और अधिकारियों के विषय में अधिक जागरूक निकला। वे अपने सम्मान और अधिकारों की ही चर्चा करते रहे और इसी चर्चा की परिधि में घिरते चले गये। अपने राज्यों के बाहर हो रहे जन आंदोलनों को देखने और समझने की इच्छा उनमें नहीं थी। 1921 के पश्चात् बीकानेर और अलवर में प्रतिस्पर्द्धा और छोटी-छोटी बातों में बाजी मारने के उदाहरण चैम्बर ऑफ प्रिंसेज की कार्यवाही में भरे पड़े हैं।
चैम्बर ने चार सदस्यों की एक समिति नियुक्त की जिसे कुछ प्रस्ताव भारत सचिव मोंटेग्यू के समक्ष प्रस्तुत करने को कहा गया किंतु गंगासिंह उन प्रस्तावों पर अलवर नरेश जयसिंह के हस्ताक्षर नहीं करवा सका क्योंकि अलवर नरेश को शिकार पर जाना अधिक आवश्यक दिखाई दिया। अलवर-बीकानेर वैमनस्य, नाभा-पटियाला वैमनस्य जैसा ही था।
एम. एस. जैन ने आरोप लगाया है कि उदयपुर महाराणा अपनी प्रतिष्ठा को बचाने के लिये चैम्बर की बैठकों में भाग लने के लिये नहीं गया। यह विश्लेषण सही नहीं है। वस्तुतः जब हैदराबाद, कश्मीर, बड़ौदा, मैसूर, त्रावणकोर, कोचीन और इन्दौर आदि कई बड़ी रियासतें नरेन्द्र मण्डल में सम्मिलित नहीं हुईं थीं तथा यह अनुभव किया जा रहा था कि नरेन्द्र मण्डल भारतीय नरेशों की प्रतिनिधि सभा नहीं बन पाई है, ऐसी स्थिति में महाराणा का उससे दूर रहना ही श्रेयस्कर था। आगे चलकर महाराजा गंगासिंह तथा जयसिंह ने जिस तरह की पैंतरेबाजियां दिखाईं उनसे भी स्पष्ट है कि महाराणा, नरेन्द्र मण्डल में मुखर राजाओं के उद्देश्यों को स्पष्ट रूप से देख और समझ रहे थे। अंग्रेज शासकों द्वारा नरेन्द्र मण्डल को ब्रिटिश उद्देश्यों के लिये उपकरण के रूप में काम लिया जा रहा था जबकि महाराणा की रुचि, ब्रिटिश सत्ता का उपकरण बनने में नहीं थी।
इस काल में गंगासिंह (बीकानेर) तथा जयसिंह (अलवर) ने समकालीन घटनाओं से विमुख रहकर, जनता का नेतृत्व ग्रहण करने के स्थान पर उस नेतृत्व को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मान लिया और अपने उत्तरदायित्व परिवर्तन से स्पष्ट मुकर गये। नरेन्द्र मण्डल में मुखर इन राजाओं की प्रतिस्पर्द्धी राजनीति के कारण ही भारतीय नरेशों को ई.1928 में इण्डियन स्टेट्स समिति (बटलर समिति) में मुंह की खानी पड़ी तथा मेवाड़ जैसे धीर-गंभीर शासक, न केवल नरेन्द्र मण्डल तथा बटलर समिति से अपितु क्रिप्स कमीशन और कैबिनेट मिशन से भी लगभग अनुपस्थित दिखाई दिये।
बटलर समिति ने हवा में उड़ने वाले राजाओं को धरती दिखाई
मई 1927 में भारतीय राजाओं ने वायसराय लॉर्ड इरविन (ई.1926-31) से मांग की कि परमोच्च सत्ता (ब्रिटिश सरकार) के साथ देशी राज्यों के सम्बन्धों की समीक्षा की जाए। तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट बर्कनहैड ने 16 दिसम्बर 1927 को सर हरकोर्ट बटलर की अध्यक्षता में तीन सदस्यों की इण्डियन स्टेट्स समिति गठित की जिसे बटलर समिति भी कहते हैं। यह समिति ई.1928 में भारत आई। समिति ने 16 राज्यों का दौरा किया तथा राजाओं के वकील के माध्यम से राजाओं का पक्ष सुना। दो वर्ष बाद बटलर समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। समिति ने परमोच्च सत्ता की परिभाषा इस प्रकार दी-
‘इंग्लैण्ड के सम्राट का अधिकार, सेक्रेटरी ऑफ स्टेट तथा गवर्नर जनरल इन कौंसिल के द्वारा ग्रेट ब्रिटेन की पार्लियामेण्ट के प्रति उत्तरदायी है। परमोच्चता सदैव के लिये परमोच्च है तथा परमोच्चता ने ही राजाओं के अस्तित्व को बनाये रखा है।’
समिति ने राज्यों की यह मांग स्वीकार कर ली कि राज्यों के सम्बन्ध भारत सरकार से न होकर इंगलैण्ड की सरकार से माने जाएं। समिति ने सिफारिश की कि ब्रिटिश सरकार की परमोच्चता को बनाये रखने के लिये यह आवश्यक है कि देशी राज्यों में चलने वाले जन आंदोलन को समाप्त करने के लिये ब्रिटिश सरकार राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करे। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि हम प्रतिबद्ध हैं कि इस आधार पर कि राजाओं की गंभीर आशंकाओं की ओर ध्यान आकर्षित करें और दृढ़ता से अपनी राय दें कि परमोच्चसत्ता और राजाओं के सम्बन्धों की ऐतिहासिक प्रकृति को दृष्टि में रखते हुए, उनको बिना उनकी सम्मति के किसी भारतीय सत्ता से जो भारतीय विधान मण्डल के प्रति उत्तरदायी हो, सम्बन्ध रखने के लिये हस्तांतरित न किया जाएं।
बटलर समिति की रिपोर्ट को देखकर राजाओं में क्षोभ उत्पन्न हुआ। इसमें राजाओं के पक्ष में केवल इतना कहा गया कि देशी राज्यों के संधि विषयक सम्बन्ध सम्राट के साथ हैं अतः उनको देशी राज्यों की सहमति के बिना किसी भी ऐसी अन्य सत्ता को नहीं सौंपा जा सकता जिस पर कि सम्राट का पूर्ण नियंत्रण न हो। रिपोर्ट के शेष भाग में भारत सरकार की वर्तमान एवं विगत कार्यवाहियों का समर्थन किया गया था। राजाओं की इस मांग के प्रति कि सर्वोपरि सत्ता को सीमांकित किया जाये, प्रतिवेदन में कहा गया था, सर्वोपरि सत्ता सर्वदा सर्वोपरि ही रहनी चाहिये। बटलर समिति की रिपोर्ट पर सभी ओर से आलोचना की गयी।
फरवरी 1930 में नरेन्द्र मण्डल के अधिवेशन में महाराजा गंगासिंह ने राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के आधार की परिभाषा के सम्बन्ध में प्रस्ताव रखते हुए इस विषय में बटलर समिति द्वारा अपनाई गई विचार पद्धति की तीव्र भर्त्सना की। उन्होंने स्वीकार किया कि सर्वोपरि सत्ता ने बाह्य आक्रमण एवं आंतरिक विद्रोह के विरुद्ध राज्यों के सामान्य संरक्षण का दायित्व ले रखा है, उसे हस्तक्षेप करने का अधिकार है किंतु यह अधिकार कुछ निश्चित मामलों तक ही सीमित है।
महाराजा ने कहा कि कभी-कभी तो मामले की स्थिति तथा वास्ततिकता की ओर ध्यान दिये बिना ही केवल राजप्रतिनिधियों की सत्ता एवं उनके अधिकारों का प्रदर्शन करने के उद्देश्य से ही यह हस्तक्षेप किया गया है। अतः सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न सर्वोपरि सत्ता द्वारा उसके हस्तक्षेप करने के अधिकारों का परिसीमन करने का तथा उन क्षेत्रों को सूक्ष्म तथा निर्धारित करने का है।
नरेन्द्र मण्डल में भाषणों का लहजा बदल चुका था। इससे न केवल भारत सरकार को अपितु आंग्ल भारत की जनता को भी भारी विस्मय हुआ। बटलर समिति की योजनाओं के विरोध का बल स्पष्ट था। नरेशों के स्थान को सुरक्षित करने की तथा एक सुनिश्चित विचार पद्धति अपनाने की आवश्कता थी। अपने घटते प्रभाव को सुरक्षित रखने के लिये भारतीय नरेश उत्तरोत्तर अपने आप को राष्ट्रीय आंदोलन के विरुद्ध प्रस्तुत करते रहे। बटलर समिति का प्रमुख प्रयोजन देशी राजाओं और साम्राज्यवादियों के गठजोड़ से राष्ट्रीय आंदोलन की धार को कुण्ठित बनाना था।
इस प्रकार गंगासिंह (बीकानेर) एवं जयसिंह (अलवर) आदि राजाओं का, नरेन्द्र मण्डल के माध्यम से राष्ट्रीय नेता बनने तथा बटलर समिति के माध्यम से स्वयं को भारत सरकार के अधीन होने की बजाय ब्रिटिश क्राउन का मित्र कहलाने की योजना धरी रह गई। अतः यदि महाराणा ने स्वयं को अंग्रेजों द्वारा बुने गये दो सुनहरे जाल- नरेन्द्र मण्डल तथा बटलर समिति से दूर रखकर परिपक्वता का ही परिचय दिया। जो राजा उस काल में इन मंचों के माध्यम से राष्ट्रीय राजनीतिक कर रहे थे, वे राजा अपने राज्यों में जनता के आंदोलनों को कुचलने के लिये हर तरह के हथकण्डे अपना रहे थे जबकि दूसरी ओर साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा महाराणा पर यह आरोप लगाया जा रहा था कि राज्य में होने वाले किसान आंदोलनों को महाराणा का समर्थन प्राप्त है। इससे स्पष्ट है कि बीसवीं सदी में महाराणा ही अधिक उचित मार्ग पर थे तथा अंग्रेजों की बजाय जनआकांक्षाओं के अधिक निकट थे।