Wednesday, December 4, 2024
spot_img

महाराणा फतहसिंह का राष्ट्रीय राजनीति में प्रभाव -3

महाराणा की तीर्थयात्रा

ई.1909 में महाराणा फतहसिंह, एकलिंग मंदिर के गोस्वामी कैलाशानंद को साथ लेकर, कृष्णगढ़ तथा देहरादून होता हुआ हरिद्वार की यात्रा पर गया। वहाँ उसने विधिपूर्वक श्राद्ध करके सोने का तुलादान किया तथा वहाँ के ऋषिकुल की सहायता के लिये 10,000 रुपये दिये। महाराणा ने वहाँ ब्राह्मणों, साधुओं तथा निर्धन लोगों को भोजन कराया एवं रुपये दिये।

लॉर्ड मिण्टो की उदयपुर यात्रा के बाद अंग्रजों की नीति में परिवर्तन

भारत में अंग्रेजों की शासन पद्धति शुरू से कुछ ऐसी रही जैसे कोई बूढ़ा स्कूल मास्टर कक्षा के उज्जड विद्यार्थियों को बंेत के जोर पर सही करने निकला हो। इस स्कूल मास्टर को पूरा विश्वास था कि विद्यार्थियों को जो शिक्षा वह दे रहा है, वही उनके लिये सही और सर्वश्रेष्ठ है। इस कारण राज्यों में नियुक्त पॉलिटिकल अधिकारी अपनी मनमानी करते थे और राज्य की सदियों से चली आ रही परम्पराओं को एक ही झटके में बदलने का हठ करते थे। इस कारण प्रायः राजपरिवारों एवं जनसामान्य में अंग्रेज अधिकारियों के प्रति असंतोष बना रहता था। भारत का वायसराय एवं गवर्नर जनरल लॉर्ड मिण्टो इस असंतोष को ब्रिटिश सरकार के लिये उचित नहीं मानता था। वह विभिन्न राज्यों में घट रही इस प्रकार की घटनाओं के लिये राजाओं की बजाय, पोलिटिकल एजेंटों को जिम्मेदार मानता था।

31 अक्टूबर 1909 को मिण्टो उदयपुर आया। महाराणा ने उसके हाथों से उदयपुर के महलों में मिण्टो दरबार हॉल का शिलान्यास करवाया। इस अवसर पर दिये गये भाषण में मिण्टो ने कहा कि भारतीय नरशों को अंग्रेजों के साथ भारतीय साम्राज्य के गौरव और कीर्ति को बढ़ाने के लिये कार्य करना चाहिये। मिण्टो ने पोलिटिकल अधिकारियों के व्यवहार से उत्पन्न असहिष्णुता को कम करने का प्रयत्न किया। उसने अंग्रेजी सर्वोच्चता को कम करने की बात नहीं कही किंतु उसने प्रत्येक राज्य की पृथक समस्याओं को समझने की अपनी इच्छा अवश्य प्रकट की। यह सभ्य बनाने के उस मिशन की अंत्येष्टि थी जो ई.1870 के लगभग आरम्भ हुआ था। पोलिटिकल अधिकारियों की भूमिका कम करते हुए उसने कहा कि सुधारों का आरम्भ दरबार के द्वारा ही किया जाना चाहिये।

To purchase this book, please click on photo.

प्रशासनिक कुशलता अच्छी है और पोलिटिकल विभाग के अधिकारियों को अधिक आकर्षक लग सकती है लेकिन केवल यह ही एकमात्र उद्देश्य नहीं हो सकता। प्रशासनिक दोष और भ्रष्टाचार दूर होने चाहिये लेकिन पोलिटिकल अधिकारियों को उस सामान्य प्रचलित प्रशासनिक व्यवस्था को भी स्वीकार करना चाहिए। परम्परा से चले आ रहे तौर-तरीके लोगों को प्रिय लगते हैं और उन्हीं को ध्यान में रखकर कार्य करना चाहिए। प्रजा की राजा के प्रति भक्ति वैयक्तिक थी और अधिकारियों को ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिससे वह कम हो जाए। उसने अधिकारियों को एक नई जिम्मेदारी सौंपते हुए कहा कि उन्हें राज्य दरबार की भावनाओं का भी ध्यान रखना चाहिये।

वायसराय लॉर्ड मिण्टो के ई.1909 के भाषण के पश्चात् किसी पोलिटिकल अधिकारी ने राजा की इच्छा के विरुद्ध सुधार करने पर जोर नहीं दिया। मिण्टो के भाषण का पोलिटिकल विभाग के अधिकारियों पर तथा भारतीय नरेशों पर उचित प्रभाव पड़ा। अब दरबार और पोलिटिकल एजेण्ट के मध्य विवाद कम होने लगे। अंग्रेजी नीति नरेशों के अधिकारों, सम्मान और प्रतिष्ठा की पोषक बनने लगी।

1911 के दिल्ली दरबार में महाराणा की अनुपस्थिति

12 दिसम्बर 1911 को जॉर्ज पंचम तथा क्वीन मेरी ने दिल्ली दरबार का आयोजन किया। इसमें भारत के समस्त राजा-महाराजा सम्मिलित हुए। भारत सरकार के विशेष अनुरोध पर महाराणा भी दिल्ली गया परंतु वह अपने वंश गौरव का विचार करके न तो शाही जुलूस में सम्मिलित हुआ और न दरबार में। उसने दिल्ली रेलवे स्टेशन पर इंग्लैण्ड के सम्राट जॉर्ज पंचम का स्वागत किया जहाँ महाराणा ने उससे, सब रईसों से पहले, भेंट की। इस अवसर पर महाराणा, लॉर्ड हार्डिंग तथा भारतीय नरेशों से भी मिला। जॉर्ज पंचम ने महाराणा के बड़प्पन का विचार करके उसे जी.सी.आई.ई. की उपाधि दी।

निमेज कत्ल केस के दौरान हुई अभियुक्तों की गवाही से पता चलता है कि ई.1911 में भी केसरीसिंह बारहठ तथा खरवा ठाकुर राव गोपालसिंह ने यह प्रयत्न किया था कि महाराणा दरबार में सम्मिलित न हों। अभियुक्त सोमदत्त उर्फ त्रिवेणीदास लहरी ने अपने बयान में कहा है- ‘मेवाड़ के सरदारों की ओर से महाराणा के नाम का एक गुमनाम पत्र तैयार किया गया जिसकी शुद्ध लिपि मेरे द्वारा करवाई गई। पत्र में लिखा गया कि महाराणा सूर्यवंशी हैं, उन्होंने कभी मुगलों के आगे सिर नहीं झुकाया। महाराणा को फिरंगी के सन्मुख झुकने के बनिस्पत आत्महत्या कर लेना उचित होगा। ठाकुर गोपालसिंह के कहने पर लहरी ने यह पत्र अजमेर डाक से रवाना किया था।’

रघुबीरसिंह ने लिखा है- ई.1911 में पुनः दिल्ली दरबार का आयोजन होने लगा, तब उसे पूर्ण रूपेण सफल बनाने के लिये राजस्थानी नरेशों ने भरसक प्रयत्न किये। भारतीय इतिहास में प्रथम और अन्तिम बार इंगलैण्ड के नये बादशाह पंचम जार्ज ने दिल्ली में भारत सम्राट के पद पर आरूढ़ होकर अन्य भारतीय नरेशों के साथ ही राजस्थानी नरेशों का भी आत्मसमर्पण स्वीकार कर लिया परन्तु इस बार भी महाराणा फतहसिंह ने अपनी टेक रख ली; दिल्ली में होकर भी न तो शाही जुलूस में वह सम्मिलित हुआ और न दरबार में ही उपस्थित हुआ। संसार ने आश्चर्य चकित होकर मेवाड़ के उस बुझते हुए दीपक की वह अन्तिम चमक देखी।

प्रथम विश्व युद्ध में भारत सरकार की सहायता

यूरोप में प्रथम विश्वयुद्ध (ई.1914-19) छिड़ जाने पर महाराणा ने मेवाड़ लांसर्स स्क्वाड्रन की स्थापना की जो अंग्रेजों की तरफ से लड़ने के लिये युद्ध में भेजी गई। महाराणा की ओर से अंग्रेजों को 500 रंगरूट दिये गये। महाराणा ने राजपूताना एयर क्राफ्ट तथा मशीनगन फंड के लिये एक लाख रुपये, इम्पीरियल रिलीफ फंड के लिये दो लाख रुपये तथा युद्ध ऋण के लिये आठ लाख रुपये भिजवाये। महाराणा ने मेवाड़ की खानों से अभ्रक भेजने की आज्ञा प्रदान की। यूरोपीय महायुद्ध के अवसर पर अंग्रेज सरकार को सहायता देने के उपलक्ष्य में ई.1918 में महाराणा को जी.सी.वी.ओ. की उपधि दी गई।

महाराणा की राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता

महाराणा फतहसिंह लोकप्रिय एवं समस्त भारतीय नरेशों तथा प्रजा का सम्मान भाजन था। शिष्टता, नम्रता, सरलता मितभाषिता, आतिथ्य सत्कार आदि गुणों के कारण उसकी ख्याति भारत में ही नहीं अपितु इंग्लैण्ड आदि देशों में भी फैली हुई थी। मेवाड़ के रेजीडेण्ट क्लॉड हिल तथा सर वॉल्टर लॉरेन्स आदि अंग्रेज अधिकारी जी भरकर उसके गुणों की प्रशंसा करते थे। देशी-विदेशी सब उसे चाहते थे और बड़े आदर की दृष्टि से देखते थे। लॉर्ड डफरिन से लेकर लॉर्ड इरविन तक भारत के समस्त वायसराय उससे उदयपुर आकर मिले।

भारत सरकार की बड़ी कौंसिल के बहुत से सदस्य, लॉर्ड रॉबर्ट्स, लॉर्ड किचनर, जनरल सर पॉवर पामर आदि प्रधान सेनापति, बम्बई के गवर्नर लॉर्ड रे तथा मद्रास के गवर्नर सर एम. ग्रेंट डफ़ ने भी उदयपुर आकर महाराणा से भेंट की। जयपुर, जोधुपर, किशनगढ़, इंदौर, बड़ौदा, काश्मीर, कोटा, बनारस, धौलपुर, नाभा, कपूरथला, मोरबी, लीमड़ी, भावनगर आदि राज्यों के राजा भी उसके शासनकाल में उदयपुर आये और उसके अतिथि हुए। महाराणा ने हिन्दू विश्वविद्यालय बनारस, मेयो कॉलेज अजमेर तथा भारत धर्म महामण्डल काशी को डेढ़-डेढ़ लाख रुपये प्रदान किये।

महाराजकुमार के पक्ष में राज्याधिकारों का त्याग

बीसवीं शताब्दी में राजपूताना की रियासतों में से केवल मेवाड़ अकेली ऐसी रियासत ऐसी थी जिसके महाराणाओं का प्रायः ब्रिटिश सरकार से विरोध रहा। यद्यपि मेवाड़ का महाराणा अपनी उच्चता को बनाये रहा किंतु ऐसे अवसर भी आये जब महाराणा को अपनी गद्दी छोड़नी पड़ी। जब बिजोलिया आंदोलन के कारण किसानों ने मेवाड़ के महाराणा को राजस्व देने से मना कर दिया तो ब्रिटिश सरकार के कान खड़े हुए। ब्रिटिश सरकार का मानना था कि इस आंदोलन से महाराणा को सहानुभूति है जिसके कारण आंदोलन नहीं कुचला गया। ब्रिटिश सरकार ने महाराणा फतहसिंह को आदेश दिये कि वह राज्याधिकार अपने पुत्र को सौंप दे। उस समय महाराणा की आयु 71 वर्ष थी। अतः 28 जुलाई 1921 को महाराणा फतहसिंह ने महाराजकुमार भूपालसिंह को राज्याधिकार सौंप दिये।

महाराणा द्वारा ब्रिटिश शासन के विरोध की कार्यवाहियां

इस घटना के बाद महाराणा फतहसिंह अंग्रेजों से घृणा करने लगा। जब वायसराय की काउंसिल का सदस्य बी. नरसिंह शर्मा उदयपुर आया तो ब्रिटिश रेजीडेंट ने उसे महाराणा से नहीं मिलने दिया। एक दिन अचानक जब महाराणा घूमने निकला हुआ था तब शर्मा दौड़कर महाराणा फतहसिंह के काफिले में घुस गया। महाराणा ने उसके कान में कहा- देश को इन दुष्टों से मुक्ति दिलवाओ। 25 नवम्बर 1921 को जॉर्ज पंचम् का पुत्र प्रिंस ऑफ वेल्स उदयपुर आया तो महाराणा ने यह कहकर उससे मुलाकात नहीं की कि महाराणा बीमार हैं। इसलिये महाराजकुमार भूपालसिंह ने युवराज का स्वागत किया। महाराणा ने प्रिंस को भलाई के कार्यों के लिये 1 लाख रुपये दिये। प्रिंस से भेंट नही करने को, ब्रिटिश सरकार ने महाराणा द्वारा की गयी विरोधपूर्ण कार्यवाही समझा।

महाराणा फतहसिंह के अंग्रेज विरोध की आलोचना

आधुनिक राजस्थान के इतिहास लेखक एम. एस. जैन ने महाराणा फतहसिंह द्वारा किये गये ब्रिटिश अधिकारियों के विरोध की बात को नकराते हुए लिखा है- ‘फतेहसिंह को अंग्रेज विरोधी दिखाने में जिन लोगों की रुचि है वे माइल्स के साथ मतभेद को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं। वे महाराणा के समस्त कार्यों की अनदेखी करके उसे अंग्रेज विरोधी दिखाना चाहते हैं। 1884 से 1921 तक अनगिनत ऐसे उदाहरण हैं जो महाराणा की अंग्रेज भक्ति और मैत्री के परिचायक हैं। डफरिन के उदयपुर आगमन पर 1885 में एक जनाने अस्पताल का निर्माण, 1887 में स्वर्ण जयंती पर लंदन की एक संस्था को खुला अनुदान तथा पारगमन व्यापार को कर मुक्त कर देना, विक्टोरिया के सम्मान में एक म्यूजियम की स्थापना, जी.सी.एस.आई. उपाधि ग्रहण करना, 1888 में उत्तर-पश्चिमी सीमा-सुरक्षा के लिये 6 लाख रुपये का अनुदान, 1889-90 में ड्यूक ऑफ कनॉट और प्रिंस एलबर्ट का स्वागत, 1891 में विन्गेट को आमंत्रित करना, 1897 में हीरक जयंती का जोरदार मनाया जाना तथा अंग्रेजों द्वारा महाराणा की सलामी तोपों में दो की वृद्धि, महारानी द्वारा उदयपुर को सीआईई की उपाधि से सम्मानित करना- यह कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो महाराणा के अंग्रेज विरोधी होने के तर्क को झुठलाते हैं।

और यदि अधिक प्रमाणों की आवश्यकता हो तो मेवाड़ दरबार द्वारा प्रकाशित वह पुस्तिका देख लेनी चाहिये जिसमें 1890-1921 तक के विभिन्न अंग्रेज अधिकारियों के उदयपुर आगमन पर दोनों ओर से दिये गए भाषण प्रकाशित हैं। कर्जन स्वयं 1902 में उदयपुर गया और महाराणा के सम्बन्ध में बहुत अच्छे वाक्य कहे। कर्जन उन व्यक्तियों में से नहीं था जो किसी के दबाव में आकर कोई बात कहे। उसने महाराणा की अत्यधिक प्रशंसा इसलिये की क्योंकि वह (महाराणा) उन मूल्यों की साकार मूर्ति था जिन्हें कर्जन भारतीय नरेशों में देखना चाहता था।’’

एम. एस. जैन द्वारा महाराणा फतहसिंह की अंग्रेज विरोधी छवि की आलोचना उचित नहीं मानी जा सकती। एक ओर तो एम. एस. जैन स्वयं ही लिखते हैं कि 1892-94 के बीच हुई घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में लॉर्ड कर्जन की मेवाड़ यात्रा अत्यंत महत्त्वपूर्ण थी। दूसरी ओर एम. एस. जैन लिखते हैं कि फतेहसिंह को अंग्रेज विरोधी दिखाने में जिन लोगों की रुचि है वे माइल्स के साथ मतभेद को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं। 1892-94 के बीच की घटनाओं में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना महाराणा का पॉलिटिकल एजेंट माइल्स से विवाद होना ही थी।

एम. एस. जैन, महाराणा द्वारा किये गये उन कामों का तो उल्लेख करते हैं जो महाराणा और ब्रिटिश सत्ता के बीच अच्छे सम्बन्धों के द्योतक हैं किंतु वे उन कामों का उल्लेख नहीं करते जो महाराणा द्वारा ब्रिटिश सत्ता के विरोध स्वरूप किये गये थे। ई.1903 और 1911 के दरबारों में महाराणा का भाग न लेना, भारतीय राष्ट्रभक्तों के लिये प्रेरणादायक घटनाएं थीं तथा राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छाप छोड़ने वाली थीं। महाराणा के इस साहस से अंग्रेज सत्ता भीतर ही भीतर आतंकित थी। उन दिनों में मेवाड़ के भीतर चल रहे किसान आंदोलन को सफलतापूर्वक नहीं कुचले जाने के पीछे भी महाराणा की किसानों के प्रति सहानुभूति को माना जाता था। महाराणा द्वारा प्रिंस ऑफ वेल्स से उदयपुर में भेंट करने से इन्कार कर देना तथा अंग्रेज सत्ता द्वारा महाराणा को राज्याधिकार महाराजकुमार के पक्ष में त्याग देने के लिये दबाव बनाना भी क्या महाराणा के अंग्रेज विरोधी कार्यों के प्रमाण नहीं थे?

एम. एस. जैन यह क्यों भूल जाते हैं कि महाराणा द्वारा अंग्रेज अधिकारियों के केवल उन कामों का विरोध किया जा रहा था जो प्रजा एवं राज्य हित के उपयुक्त नहीं थे। महाराणा ने न तो अंग्रेजों से कोई विद्रोह किया था और न ही महाराणा ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध सम्बन्ध विच्छेद करके, कोई क्रांति करने जा रहा था। एम. एस. जैन यह भी क्यों भूल जाते हैं कि कर्जन का शुष्क स्वभाव उसे किसी की प्रशंसा नहीं करने देता था फिर भी यदि पॉलिटिकल एजेंट माइल्स के विरोध की कटु घटनाओं के उपरांत भी उदयपुर यात्रा में कर्जन ने महाराणा की प्रशंसा में ऐसे शब्द कहे जो उसने अपने जीवन में कम ही बार उच्चारित किये होंगे तो इतना निश्चित है कि महाराणा फतहसिंह अपने युग के सर्वश्रेष्ठ राजाओं में से था जिसकी प्रशंसा के लिये कर्जन जैसे शुष्क व्यक्ति ने भी सरस शब्द कहे।

आंतरिक प्रशासन के मामले में वास्तव में महाराणा की स्थिति इतनी मजबूत थी कि ई.1904 में मेवाड़ का रेजीडेण्ट पिन्हे मेवाड़ की व्यापक रूढ़िवादिता से अत्यंत दुखी था किंतु जब उससे निश्चित सुधार के लिये सुझाव देने को कहा गया तो वह लेखा विभाग की पुरानी पद्धति के बदलने से अधिक कुछ न कह सका।

महाराणा के अंग्रेज विरोध को नकारने से पहले, यह भी स्मरण रखना चाहिये कि मेवाड़ के महाराणाओं ने अपनी शालीनता कभी नहीं छोड़ी। उन्होंने बीसवीं सदी के राजपूताना के अन्य राजाओं से उलट, अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिये न तो अंग्रेजों की ठकुरसुहाती की और न कभी उनके लिये कटु वचनों का प्रयोग किया। मराठों, पिण्डारियों, सिंधी मुसलमानों तथा मेवाड़ के सामंतों के कुचक्रों से मेवाड़ की रक्षा करने के लिये जिन परिस्थितियों में महाराणा भीमसिंह ने ई.1818 में अंग्रेजों से संधि की थी, उसे कोई भी महाराणा कैसे भूल सकता था! महाराणा का अंग्रेज विरोध केवल इसलिये था कि ब्रिटिश सत्ता ई.1818 की संधि की सीमा में रहकर अपने अधिकारों एवं दायित्वों का प्रयोग करे, न कि परमोच्चता की नई परिभाषाएं गढ़कर देशी राज्यों में मनमाना अथवा प्रजा के प्रतिकूल आचरण करे।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source