Sunday, October 13, 2024
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महाराणा फतहसिंह का राष्ट्रीय राजनीति में प्रभाव – 1

23 दिसम्बर 1884 को महाराणा सज्जनसिंह का निधन हो गया। सज्जनसिंह के पुत्र नहीं होने के कारण, शिवरती के महाराज दलसिंह का तीसरा पुत्र फतहसिंह, मेवाड़ का महाराणा हुआ। राष्ट्रीय राजनीति पर महाराणा फतहसिंह ने जो प्रभाव स्थापित किया, उसकी तुलना युग-धर्म परिवर्तन के कारण भले ही महाराणा सांगा, महाराणा कुंभा, महाराणा प्रताप तथा महाराणा राजसिंह से न की जा सके किंतु महाराणा फतहसिंह का भारतीय राजनीति पर प्रभाव, अपने युग के समस्त राजाओं में सबसे बढ़ा-चढ़ा था तथा अपने पूर्ववर्ती किसी भी महाराणा से कम महत्त्व का नहीं था।

उदयपुर राज्य में महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों का आगमन

महाराणा फतहसिंह के गद्दी पर बैठते ही ई.1885 में जोधपुर का महाराजा जसवंतसिंह (द्वितीय), कृष्णगढ़ का राजा शार्दूलसिंह, जयपुर नरेश माधवसिंह (द्वितीय), ईडर नरेश केसरीसिंह आदि राजा उदयपुर आये तथा महाराणा सज्जनसिंह की मृत्यु पर शोक व्यक्त कर एवं कुछ दिन उदयपुर में ठहरकर वापस चले गये। 10 अक्टूबर 1885 को मद्रास का गवर्नर ग्रेंट डफ उदयपुर की यात्रा पर आया। वह चित्तौड़ भी गया।

8 नवम्बर 1885 को वायसराय लॉर्ड डफरिन, लेडी डफरिन तथा अपने दो बच्चों के साथ उदयपुर आया। महाराणा ने लॉर्ड डफरिन एवं लेडी डफरिन के हाथों से वॉल्टर अस्पताल की नींव रखवाई। ई.1885 में महाराणा ने उदयपुर में वाल्टरकृत राजपूत हितकारिणी की शाखा स्थापित की। ई.1890 में इंग्लैण्ड के युवराज एडवर्ड सप्तम का पुत्र एलबर्ट विक्टर उदयपुर आया। महाराणा ने उसके हाथों से सज्जन निवास बाग में विक्टोरिया हॉल के सामने रानी विक्टोरिया की संगमरमर की मूर्ति का उद्घाटन करवाया।

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मेयो कॉलेज से उदयपुर की अनुपस्थिति

मेयो कॉलेज की स्थापना ई.1870 में हुई थी। इसके माध्यम से अंग्रेज, भारतीय राजाओं तथा सामंतों में अंग्रेजियत के प्रति सम्मान का भाव उत्पन्न करना चाहते थे ताकि देशी राजा, भारतीय परम्पराओं को हेय मानते हुए, हृदय से अंग्रेजों की उच्चता को स्वीकार कर लें। इस कॉलेज को चलते हुए 20 साल हो गये थे किंतु अब तक उदयपुर, जयपुर एवं जोधपुर राज्यों से एक भी शासक अथवा राजकुमार इस कॉलेज में पढ़ने के लिये नहीं आया था। इससे अंग्रेजों में इस कॉलेज को लेकर निराशा छाने लगी। ई.1890 में लेंसडाउन ने कॉलेज की असफलता को स्वीकार किया।

महाराणा का अंग्रेज अधिकारियों से विवाद

ई.1892 के लगभग महाराणा फतेहसिंह और स्थानीय अंग्रेज अधिकारियों में काफी मतभेद हो गया था जो उदयपुर की एक बैंकिंग फर्म जवाहरमल छोगमल से 5 लाख रुपये की वसूली को लेकर था। महाराणा रुपया वसूल करना चाहता था, फर्म भी अधिकांश राशि देने के तैयार थी किंतु विन्गेट, भूराजस्व अधिकारी, थॉमसन रेलवे अभियंता, कर्नल माइल्स रेजीडेण्ट तथा पन्नालाल प्रधान इसमें रुकावटें उत्पन्न कर रहे थे। अंततः ट्रेवर एजीजी ने रेजीडेण्ट आदि की बात को स्वीकार नहीं किया तथा महाराणा के पक्ष का समर्थन किया।

श्यामजी कृष्ण वर्मा की उदयपुर में नियुक्ति

महाराणा ने अजमेर से श्यामजी कृष्ण वर्मा बैरिस्टर को महाद्रजसभा का सदस्य नियुक्त कर उदयपुर बुलाया, जहाँ कुछ समय तक रहने के पश्चात् वह जूनागढ़ का दीवान नियुक्त होने से वहाँ चला गया। माना जाता है कि श्यामजी कृष्ण वर्मा की नियुक्ति के पीछे महाराणा फतहसिंह की अंग्रेज विरोधी भावना एवं राष्ट्रीय विचारधारा काम कर रही थी। महाराणा को अंग्रेज सरकार के साथ उठने वाले विवादों से निपटने के लिये ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जो अंग्रेजी भाषा का विद्वान, राजनीति-पटु तथा कूटनीति में प्रवीण हो।

ठाकुर केसरीसिंह को राज्य का प्रधानमंत्री तलाशने का कार्य सौंपा गया। केसरीसिंह ने देश के सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी श्यामजी कृष्ण वर्मा को इस कार्य के लिये चुना। केसरीसिंह के बुलावे पर श्यामजी कृष्ण वर्मा सितम्बर 1893 में उदयपुर आये। श्यामजी कृष्ण वर्मा भारत के क्रांतिकारियों में सम्मानजनक स्थान रखते थे। उस समय तक वे, अंग्रेजी शासन का विरोध करने के कारण अंग्रेजों के शत्रु के रूप में विख्यात हो चुके थे। श्यामजी कृष्ण वर्मा की नियुक्ति से महाराणा और अंग्रेजों के सम्बन्धों पर विपरीत असर पड़ा।

केसरीसिंह बारहठ की नियुक्ति

श्यामजी कृष्ण वर्मा की नियुक्ति में बारहठ कृष्णसिंह का हाथ जानकर, भारत सरकार के वैदेशिक विभाग को बारहठ कृष्णसिंह के सम्बन्ध में संदेह हो गया। अतः वैदेशिक विभाग ने महाराणा पर दबाव डाला कि वे कृष्णसिंह को अपने पद से हटा दें। ई.1893 में पोलिटिकल एजेण्ट के निर्देश पर कृष्णसिंह को मेवाड़ की सेवा से निकाल दिया गया। जोधपुर महाराजा जसवंतसिंह, बारहठ कृष्णसिंह को जोधपुर ले गये। इस पर महाराणा फतहसिंह ने कृष्णसिंह के स्थान पर उनके पुत्र केसरीसिंह को नियुक्त कर दिया। कुछ दिनों तक महाराणा ने इस नियुक्ति को गुप्त रखा। उसको प्रकट नहीं किया। बारहठ केसरीसिंह, महाराणा से रात्रि के बारह बजे मिलते थे। ई.1900 तक वे इस पद पर कार्य करते रहे। श्यामजी कृष्ण वर्मा ई.1895 तक उदयपुर रियासत में काम करते रहे तथा बाद में जूनागढ़ के दीवान होकर चले गये।

कृष्णसिंह बारहठ जो कि इन सब घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी थे, उन्होंने श्यामजी कृष्ण वर्मा की उदयपुर में नियुक्ति होने तथा वहाँ से जूनागढ़ जाने की घटनाओं के वर्णन में ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि श्यामजी कृष्ण वर्मा की नियुक्ति से अंग्रेज अधिकारी नाराज थे या अंग्रेज अधिकरियों के दबाव के कारण कृष्णसिंह बारहठ एवं श्यामजी कृष्ण वर्मा, उदयपुर छोड़कर गये। कृष्णसिंह बारहठ के अनुसार कृष्णसिंह बारहठ एवं श्यामजी कृष्ण वर्मा, महाराणा फतहसिंह की कृपणता एवं खराब व्यवहार के कारण उदयपुर दरबार की नौकरी छोड़कर गये लेकिन फतहसिंह की कृपणता एवं खराब व्यवहार की बात इसलिये स्वीकार योग्य नहीं है क्योंकि कृष्णसिंह के जाने के बाद भी उनके पुत्र केसरीसिंह, उदयपुर में ही नौकरी करते रहे।

इसी प्रकार जब श्यामजीकृष्ण वर्मा उदयपुर की नौकरी छोड़कर जूनागढ़ गये तब भी महाराणा फतहसिंह अगले एक साल तक वर्मा को एक हजार रुपये मासिक की वही तन्खाह देते रहे जो कि श्यामजी को उदयपुर में नौकरी करने के दौरान मिलती थी। कहा नहीं जा सकता कि श्यामजी कृष्ण वर्मा की नियुक्ति के पीछे महाराणा फतहसिंह के मन में क्या चल रहा था। ऐसा माना जाता था कि राजस्थान के तीन राजाओं- गंगासिंह (बीकानेर), सर प्रताप (जोधपुर) तथा महाराणा फतहसिंह (उदयपुर) का क्रांतिकारियों को मूक समर्थन था या फिर क्रांतिकारियों का ऐसा विश्वास था। ये सभी वीर भारत समिति के सदस्य भी बने थे जहाँ से क्रांतिकारियों को सहायता दी जाती थी।
देबारी तक रेल लाइन का निर्माण

ई.1893 में महाराणा ने अंग्रेज इंजीनियर कैम्बेल टॉमसन की देखरेख में चित्तौड़ से देबारी घाटे तक रेल बनवाई। रेल बन जाने से महाराणाओं की राष्ट्रीय राजनीति में सक्रियता और प्रभाव दोनों में वृद्धि हुई क्योंकि अब राज्य के अधिकारी सुगमता से दिल्ली जाने लगे। इसी प्रकार वायसराय तथा उसके एजेंट आसानी से उदयपुर आने लगे।

वायसराय लॉर्ड एल्गिन का उदयपुर आगमन

12 नवम्बर 1896 को भारत का वायसराय एल्गिन उदयपुर आया। वह पहला वायसराय था जिसने चित्तौड़ से देबारी तक रेल द्वारा यात्रा की। जब कभी वायसराय, रियासत में आते थे तो महाराणा, अपनी राजधानी से तीन मील आगे जाकर उसका स्वागत करता था किंतु इस बार अंग्रेजों ने दबाव बनाया कि महाराणा, वायसराय का स्वागत देबारी रेलवे स्टेशन पर करे। महाराणा को बहुत बुरा लगा किंतु उसे देबारी तक जाना पड़ा जो कि उदयपुर से 9 मील दूर था। इसलिये महाराणा ने रेल को देबारी से उदयपुर तक बढ़ा दिया ताकि उसे वायसराय की पेशवाई के लिये देबारी न जाना पड़े। वायसराय ने जगदीश मंदिर में, हाथ में पहनने का सोने का कड़ा भेंट किया।

महाराणा की तोपों की सलामी में वृद्धि

ई.1897 में महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती के अवसर पर अंग्रेज सरकार की ओर से महाराणा को दी जाने वाली सलामी 21 तोपों की कर दी गई और महाराणी को ऑर्डर ऑफ दी क्राउन ऑफ इण्डिया की उपाधि दी गई। यह राजपूताने की पहली महारानी थी जिसे इस उपाधि से विभूषित किया गया। बारहठ कृष्णसिंह ने तोपों की सलामी में वृद्धि किये जाने का कारण बताते हुए लिखा है- ‘गो कि महाराणा से अंगरेजी अफसर खुश नहीं है और इनको निहायत जिद्दी समझते हैं मगर अभी झालावाड़ के राजराणा जालिमसिंह बिला किसी खास कुसूर के गद्दी से उतारे गए, उस बात को भुलाने और गवर्नमेंट को मुन्सिफ साबित करने की निगाह से यह कार्यवाही की गई है।’ यदि कृष्णसिंह बारहठ की उक्त बात सत्य है तो इस घटना से महाराणा का तत्कालीन राष्ट्रीय राजनीति पर जबर्दस्त प्रभाव होना अनुमानित किया जा सकता है।

मोरबी के राजकुमार की उदयपुर में नियुक्ति

ई.1897 में महाराणा ने मोरबी राज्य के राजकुमार हरभाम को महाद्रज सभा का सदस्य बनाकर उदयपुर बुलाया। वह दो वर्ष तक उदयपुर रहा तथा तत्पश्चात् काठियावाड़ चला गया।

रेजीडेंट रैवन्शॉ से विवाद

ई.1897 में मेवाड़ का पॉलिटिकल रेजीडेंट वायली छुट्टी पर गया तो रैवन्शॉ रेजीडेंट का काम करने लगा। वह महाराणा फतहसिंह के स्वतंत्र आचरण एवं व्यवहार से अप्रसन्न रहता था। महाराणा ने ज्ञानानंद नामक एक बंगाली साधु को अपना योग गुरु नियुक्त किया। वह संस्कृत तथा अंग्रेजी पढ़ा-लिखा स्वतंत्र विचारों का व्यक्ति था। महाराणा उससे एकांत में वार्त्ता करता था तथा उसकी सलाह से राज्यकार्य भी करने लगा। रैवन्शॉ को महाराणा की तरफ से कुछ चिट्ठियों के सख्त जवाब भेजे गये। इनके लिये ज्ञानानंद को जिम्मेदार माना गया। इस पर रैवन्शॉ ने महाराणा पर दबाव बनाया कि वे राज्यकार्य में सलाह लेने के लिये पन्नालाल को नियुक्त करें या अंग्रेज सरकार से किसी को मंगवा लें।

महाराणा ने रैवन्शॉ का सुझाव मानने से मना कर दिया। इस पर पॉलिटिकल एजेंट ने एजीजी से शिकायत की। एजीजी क्रॉस्थवेस्ट 25 अगस्त 1897 को स्वयं उदयपुर आया तथा उसने रैवन्शॉ को समझा-बुझा कर शांत किया। इस पर पर भी रैवन्शॉ ने जिद्द नहीं छोड़ी। उसे सूचना मिली कि अंग्रेज सरकार से विद्रोह में लिप्त एक बंगाली आदमी भेष बदल कर ज्ञानानंद के नाम से उदयपुर में रहता है। रैवन्शॉ ने उस आदमी का फोटो मंगवाकर उसे ज्ञानानंद से मिलाया तथा ज्ञानानंद को बंदी बनाना चाहा किंतु रैवन्शॉ अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सका।

कृष्णसिंह बारहठ ने लिखा है कि चूंकि वायली के अवकाश से लौटने का समय हो गया था इसलिये रैवन्शॉ महाराणा से विवाद नहीं बढ़ाना चाहता था। कृष्णसिंह की यह बात भी स्वीकार करने योग्य नहीं है क्योंकि कुछ ही दिन बाद जब वायली का स्थानांतरण हो गया तब पुनः रैवन्शॉ ही रेजीडेंट बन गया, तब भी वह ज्ञानानंद के स्थान पर पन्नालाल को महाराणा का प्रधान नियुक्त करवाना चाहता था किंतु रैवन्शॉ, ज्ञानानंद के विरुद्ध कुछ नहीं कर सका।

सर प्रताप को उदयपुर आने से रोकना

जोधपुर का प्रधानमंत्री सर प्रतापसिंह जोधपुर नरेश सरदारसिंह का चाचा था। वह महाराजा की नाबलिगी के कारण अंग्रेजों की तरफ से गठित रीजेंसी कौंसिल का अध्यक्ष भी बनाया गया था किंतु सरदारसिंह, प्रतापसिंह को पसंद नहीं करता था। प्रतापसिंह का अंग्रेजों पर अच्छा-खासा प्रभाव था इसलिये सरदारसिंह, अपने चाचा के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं कर पाता था। ई.1898 में प्रतापसिंह ने योजना बनाई कि महाराणा फतहसिंह के माध्यम से सरदारसिंह को समझाने का प्रयास किया जाये। इसलिये प्रतापसिंह ने महाराणा फतहसिंह को संदेश भिजवाया कि वह उदयपुर आना चाहता है। महाराणा फतहसिंह, सर प्रतापसिंह के अंग्रेज-प्रेम को पसंद नहीं करता था। इसलिये महाराणा ने बारहठ कृष्णसिंह के माध्यम से सर प्रतापसिंह को कहलवाया कि चूंकि आप अंग्रेजों के साथ मेज पर खाना खाना नहीं छोड़ते इसलिये हम आपको एक थाल में सम्मिलित भोजन नहीं करायेंगे। इस पर सर प्रतापसिंह ने उदयपुर का कार्यक्रम निरस्त कर दिया।

वायसराय लॉर्ड कर्जन की मेवाड़ यात्रा

ई.1902 में लॉर्ड कर्जन ने उदयपुर का दौरा किया। उसका मेवाड़ दौरा उन घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में और अधिक महत्त्वपूर्ण था जो 1892-94 के मध्य हो चुकी थीं। कर्जन ने उदयपुर में दिये गये अपने भाषण में कहा कि महाराणा कर्त्तव्यपरायण और अत्यधिक परिश्रमी हैं। वे अपने आप बहुत कार्य करते हैं और अपने कुल की मर्यादाओं और देश प्रेम का साकार रूप हैं। उसने आशा व्यक्त की कि आने वाले शासक भी उन्हीं भावनाओं से प्रेरित रहेंगे जिनसे महाराणा स्वयं प्रेरित हैं। राज्य में नियुक्त रेजीडेण्ट ने महाराणा के विरुद्ध शिकायतें भेज रखी थीं तथा उन्हें आशा रही होगी कि अपने कठोर स्वभाव के कारण लॉर्ड कर्जन उन शिकायतों के लिये महाराणा से कुछ कहेगा किंतु कर्जन ने महाराणा से कुछ नहीं कहा अपितु उसके अच्छे व्यवहार और अच्छे राज्य प्रबंधन के लिये महाराणा की प्रशंसा की। कर्जन के इस अप्रत्याशित व्यवहार से, सर वॉल्टर लॉरेन्स आदि अंग्रेज अधिकारियों को अत्यंत आश्चर्य हुआ।

सर वॉल्टर लॉरेन्स ने अपनी पुस्तक ‘दी इण्डिया वी सर्वड्’ में लिखा है- ‘‘लॉर्ड कर्जन मुझे अक्सर कहा करता था कि तुम्हें मनुष्यों को पहचानने की तमीज नहीं है और भिन्न-भिन्न मनुष्यों के विषय में मेरी जो धारणायें होतीं उनके सम्बन्ध में यह कहकर मेरी हंसी उड़ाया करता था कि जिन्हंे तुम अक्लमंद समझते हो, वे निरे बेवकूफ हैं परंतु जब हम दोनों उदयपुर गये और पहले पहल महाराणा से लॉर्ड कर्जन की भेंट हुई तब मैंने ध्यानपूर्वक कर्जन की चेष्टा का निरीक्षण किया और मुझे यह देखकर प्रसन्नता हुई कि जिस लॉर्ड कर्जन पर किसी व्यक्ति की शक्ल-सूरत का कभी असर नहीं पड़ा उस पर भी महाराणा की चित्ताकर्षक आकृति का प्रभाव पड़े बिना न रहा। उसने महाराणा से न तो शासन सम्बन्धी प्रश्न किये, न उसकी त्रुटियां बताईं और न सुधार तजवीज किये।’’

continue …….

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