जनसंख्या, राजस्व तथा क्षेत्रफल के आधार पर उदयपुर राज्य, स्वतंत्र भारत में पृथक रह सकने योग्य इकाई अर्थात् सक्षम राज्य की श्रेणी में आता था किंतु उसके संयुक्त राजस्थान संघ में मिलने के निर्णय से जोधपुर, बीकानेर तथा जयपुर को बड़ा धक्का लगा तथा इन रियासतों को अपना भविष्य खतरे में दिखाई देने लगा।
बीकानेर द्वारा मेवाड़ को राजस्थान में विलय से रोकने का प्रयास
बीकानेर नरेश सादूलसिंह ने महाराणा को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि मेवाड़, राजस्थान यूनियन में नहीं मिले। सादूलसिंह ने बीकानेर रियासत की अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री कुंवर जसवंतसिंह दाउदसर को उदयपुर भेजा ताकि वह महाराणा से व्यक्तिगत भेंट करके महाराणा को राजस्थान में मिलने से रोके। जसवंतसिंह ने महाराणा से कहा कि मेवाड़ एक ऐसी रियासत थी जो मुगलों के सामने नहीं झुकी, आज वही रियासत कांग्रेस सरकार के सामने कैसे झुक रही है? महाराणा ने महाराजा सादूलसिंह के इस अनुरोध को स्वीकार नहीं किया और सादूलसिंह को कहलवाया कि वह तो अपनी रियासत कांग्रेस को समर्पित कर चुके हैं, अन्य राज्यों का समर्पण भी अवश्यंभावी है। महाराणा के इस जवाब से बीकानेर नरेश के मनोबल में काफी गिरावट आई।
संयुक्त राज्य राजस्थान में विलय हेतु महाराणा की शर्तें
संयुक्त राजस्थान के उद्घाटन के तीन दिन बाद संयुक्त राजस्थान में मेवाड़ के विलय पर वार्त्ता आरंभ हुई। मेवाड़ के दीवान रामामूर्ति दिल्ली गये और भारत सरकार को महाराणा की तीन प्रमुख मांगों से अवगत करवाया। पहली यह कि महाराणा को संयुक्त राजस्थान का वंशानुगत राजप्रमुख बनाया जाये, दूसरी यह कि उन्हें 20 लाख रुपया प्रिवीपर्स दिया जाये, तीसरी यह कि उदयपुर को संयुक्त राजस्थान की राजधानी बनाया जाए। भारत सरकार ने महाराणा की मांगों के सम्बन्ध में कोटा, डूंगरपुर एवं झालावाड़ के शासकों से विचार विमर्श कर मेवाड़ को संयुक्त राजस्थान में विलय करने का निश्चय किया।
यद्यपि प्रत्येक राज्य का भारत सरकार के साथ अलग समझौता हुआ किंतु सामान्यतः छोटे राज्यों के मामले में राज्य के कुल राजस्व का 10 प्रतिशत तथा बड़े राज्यों के मामले में राज्य के कुल राजस्व का 8 प्रतिशत प्रिवीपर्स देना निश्चित किया गया था। रियासती सचिवालय ने यह नीति निश्चित कर ली थी कि किसी भी रियासत के शासक को 10 लाख रुपये से अधिक प्रिवीपर्स नहीं दिया जायेगा किंतु महाराणा की मांग पूरी करने के लिये निश्चय किया गया कि महाराणा को 10 लाख रुपये वार्षिक प्रिवीपर्स, 5 लाख रुपये राजप्रमुख पद का वार्षिक भत्ता और शेष 5 लाख रुपये मेवाड़ के राजवंश की परंपरा के अनुसार धार्मिक कृत्यों में खर्च के लिये दिया जायेगा।
महाराणा को संयुक्त राजस्थान का आजीवन राजप्रमुख बनाना स्वीकार किया गया किंतु यह पद उन्हें वंशानुगत नहीं दिया गया। संयुक्त राज्य के संविधान में संशोधन किया गया और नये संघ को ‘यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ राजस्थान’ (संयुक्त राज्य राजस्थान) कहा गया। इसे द्वितीय राजस्थान भी कहते हैं। उदयपुर को संयुक्त राजस्थान की राजधानी बानाना स्वीकार कर लिया गया किंतु संविधान में तय किया गया कि विधानसभा का प्रतिवर्ष एक अधिवेशन कोटा में भी होगा। कोटा में कमिश्नरी कार्यालय रखा गया। फॉरेस्ट स्कूल, पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज, हवाई प्रशिक्षण कॉलेज आदि संस्थायें कोटा का महत्व बनाये रखने के लिये कोटा में ही रखे गये।
रियासती विभाग ने महाराणा की निजी सम्पत्ति के प्रश्न पर उदारतापूर्वक विचार करने का आश्वासन दिया तथा उदयपुर में चुनावों के दौरान पुलिस द्वारा की गयी गोलीबारी की जाँच नहीं करवाने की मांग भी मान ली। रियासती विभाग ने महाराणा की मनचाही शर्तें स्वीकार कर लीं। उस समय तक संघ में विलय होने वाली किसी भी रियासत के शासक को इतनी रियायतें नहीं दी गयी थीं। भारत सरकार के लिये उदयुपर राज्य द्वारा किसी संघ में विलय हो जाने का बहुत बड़ा महत्व था क्योंकि इससे बड़े राज्यों के भी संघों में मिल जाने का मार्ग प्रशस्त हो गया।
संयुक्त राज्य राजस्थान की प्रसंविदा का निर्माण
10 अप्रेल 1948 को प्रस्तावित संघ की प्रसंविदा (COVENANT) बनाने के लिये नई दिल्ली में बैठक बुलाई गयी। इसमें कोटा, बूंदी, डूंगरपुर, झालावाड़, प्रतापगढ़ तथा टोंक राज्यों के शासक, उदयपुर की ओर से दीवान एस. वी. राममूर्ति तथा राजस्थान संघ के मुख्यमंत्री गोकुललाल असावा उपस्थित हुए। यह प्रसंविदा सौराष्ट्र, मत्स्य, तथा विंध्यप्रदेश संघ के लिये तैयार की गयी प्रसंविदाओं से भिन्न था।
इससे पूर्व की प्रसंविदाओं में राज्यों में से केवल तीन विषयों- रक्षा, विदेश मामले तथा संचार के सम्बन्ध में ही उपाय किये गये थे किंतु संयुक्त राजस्थान के गठन के लिये बनायी गयी प्रसंविदा में राजप्रमुख को शक्तियां दी गयीं कि वह संयुक्त राजस्थान के लिये (कर तथा शुल्क के अतिरिक्त) संघीय तथा समवर्ती सूची के किसी भी विषय को कानून बनाने के लिये डोमिनियन संविधान को समर्पित कर सकता था। 11 अप्रेल 1948 को प्रसंविदा को अंतिम रूप दे दिया गया तथा उपस्थित शासकों द्वारा इस पर हस्ताक्षर कर लिये गये। इस संघ का कुल क्षेत्रफल 29,977 वर्ग मील, जनसंख्या 42,60,918 तथा वार्षिक राजस्व 316 लाख था।
उदयपुर राज्य के संयुक्त राजस्थान में विलय का राष्ट्रीय महत्त्व
बिना किसी विवाद, बिना किसी अप्रिय प्रसंग तथा बिना किसी राजनीतिक उठापटक के, संसार की सबसे प्राचीन एवं 1400 साल पुरानी मेवाड़ रियासत का राजस्थान राज्य संघ में विलोपन हो जाना, किसी आश्चर्य से कम नहीं था। स्वतंत्र भारत में पृथक से अस्तित्व बनाये रह सकने योग्य उदयपुर राज्य का, किसी वृहत् प्रशासनिक इकाई में विलय उस काल की सबसे बड़ी राष्ट्रीय घटना थी। इस घटना ने एक ओर तो पृथक् रहने के लिये तरह-तरह के हथकण्डे अपना रही बड़ी रियासतों की नींद उड़ा दी और दूसरी ओर भारत सरकार को सुविधाजनक स्थिति में ला दिया। अब सरदार पटेल आसानी से भारत की किसी भी बड़ी से बड़ी रियासत को अपनी निकटतम् वृहत्तर प्रशासनिक इकाई में विलय के लिये कह सकते थे।
संयुक्त राज्य राजस्थान की सरकार
महाराणा भूपालसिंह को राजप्रमुख, कोटा महाराव भीमसिंह को वरिष्ठ उप राजप्रमुख, बूंदी एवं डूंगरपुर के राजाओं को कनिष्ठ उपराजप्रमुख बनाया गया। मेवाड़ प्रजामण्डल के प्रमुख नेता माणिक्यलाल वर्मा को राज्य का प्रधानमंत्री नियुक्त किया। माणिक्यलाल वर्मा ने महाराणा भूपालसिंह से मंत्रिमण्डल निर्माण के सम्बन्ध में चर्चा की। महाराणा ने वर्मा को सुझाव दिया कि वे मंत्रिमण्डल में जागीरदारों को भी प्रतिनिधित्व दें। वर्मा ने महाराणा का सुझाव मानने से मना कर दिया। 18 अप्रेल 1948 को पं. नेहरू संयुक्त राजस्थान का विधिवत् उद्घाटन करने के लिये पहुँचे तो माणिक्यलाल वर्मा ने नेहरू से कहा कि वे ऐसे किसी मंत्रिमण्डल का निर्माण नहीं करेंगे जिसमें जागीरदारों का प्रतिनिधित्व हो।
नेहरू ने निर्णय दिया कि प्रधानमंत्री को इस सम्बन्ध में महाराणा तथा अन्य व्यक्तियों से विचार विमर्श करना चाहिये किंतु अंतिम निर्णय प्रधानमंत्री को ही लेना है। नेहरू ने माणिक्यलाल वर्मा को सलाह दी कि इस समय तो प्रधानमंत्री तथा राजप्रमुख अपने पदों की शपथ ले लें तथा यदि मंत्रिमण्डल बनने में कठिनाई हो तो माणिक्यलाल वर्मा तथा राममूर्ति दिल्ली आकर रियासती विभाग से सलाह कर लें। नेहरू की सलाह पर माणिक्यलाल वर्मा ने प्रधानमंत्री पद की तथा महाराणा ने राजप्रमुख के पद की शपथ ली। इसके बाद वर्मा दिल्ली जाकर पटेल से मिले। पटेल ने महाराणा को पत्र लिखकर सलाह दी कि वे माणिक्यलाल वर्मा की बात मान लें।
इस पर महाराणा ने माणिक्यलाल वर्मा मंत्रिमण्डल को स्वीकृति दे दी तथा जागीरदारों के प्रतिनिधित्व पर जोर नहीं दिया। मंत्रिमण्डल में गोकुललाल असावा (शाहपुरा), प्रेमनारायण माथुर, भूरेलाल बया और मोहनलाल सुखाड़िया (उदयपुर), भोगीलाल पंाड्या (डूंगरपुर), अभिन्न हरि (कोटा) और बृजसुंदर शर्मा (बूंदी) सम्मिलित किये गये। मंत्रिमण्डल ने 28 अप्रेल 1948 को शपथ ली। प्रथम राजस्थान संघ की राजधानी कोटा में रखी गयी थी। द्वितीय राजस्थान संघ की राजधानी उदयपुर में रखी गयी।