अल्पवयस्क महाराणाओं के काल में मेवाड़ की दुर्दशा
5 जून 1751 को महाराणा जगतसिंह (द्वितीय) का निधन हो गया। उस समय उसका बड़ा पुत्र प्रतापसिंह बंदीगृह में था। सलूम्बर के रावत ने उसी दिन प्रतापसिंह को बंदीगृह से निकालकर मेवाड़ की गद्दी पर बैठाया। इस प्रकार प्रतापसिंह (द्वितीय) मेवाड़ का महाराणा हुआ। वह प्रजावत्सल राजा था किंतु उसे बहुत कम समय मिला। 10 जनवरी 1754 को उसका निधन हो गया तथा उसका तेरह वर्षीय इकलौता पुत्र राजसिंह (द्वितीय) मेवाड़ का महाराणा हुआ। उसके शासन काल में ई.1759 में मराठों ने मल्हारगढ़ की तरफ से मेवाड़ राज्य पर आक्रमण किया।
महाराणा ने सेना भेजकर उन मराठों को मेवाड़ से निकाल दिया। महाराणा को बालक जानकर मराठे बारबार मेवाड़ राज्य पर धावे बोलने लगे। हर धावे में वे बहुत सा रुपया लूटकर ले जाते थे। महाराणा उनको रोकने में असमर्थ था। उसने चम्बल के निकट के परगने ठेके पर रखकर उनकी आमदनी मराठों के पास पहुंचाना स्वीकार कर अपना पीछा छुड़ाया। मराठों के इन धावों से मेवाड़ की आर्थिक व्यवस्था बहुत खराब हो गई।
मेवाड़ द्वारा जोधपुर में शांति स्थापित करने के प्रयास
जब नागौर के राजा बखतसिंह ने अपने भतीजे रामसिंह को जोधपुर से निकालकर जोधपुर राज्य पर अधिकार कर लिया तब रामसिंह ने जयआपा सिंधिया को अपनी सहायता के लिये बुलाया। इसी बीच बखतसिंह मर गया और उसका पुत्र विजयसिंह जोधपुर का राजा हुआ। उसने मेवाड़ के महाराणा से सहायता मांगी। इस पर महाराणा ने अपने मंत्री जैतसिंह रावत को दोनों पक्षों में समझौता करवाने के लिये भेजा। इसी बीच विजयसिंह ने जयआपा की हत्या कर दी। इस पर मराठों ने क्रुद्ध होकर राजपूतों पर हमला कर दिया जिसमें मेवाड़ का मंत्री जैतसिंह भी अपने सैन्य सहित लड़ता हुआ निरर्थक मारा गया।
अहमदशाह अब्दाली का आक्रमण
ई.1761 में अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर आक्रमण किया। उस समय दिल्ली पर मुगल बादशाह आलमगीर (द्वितीय) का शासन था। मराठों ने मुगल बादशाह की ओर से पानीपत के मैदान में दुर्रानी का मार्ग रोका किंतु वे आसानी से परास्त हो गये। अहमदशाह अब्दाली ने हाथी पर बैठकर दिल्ली में प्रवेश किया। उसने बादशाह आलमगीर को एक साधारण कोठरी में बंद कर दिया।
अब्दाली तथा उसके सैनिकों ने बादशाह आलमगीर तथा उसके अमीरों की औरतों और बेटियों को लाल किले में निर्वस्त्र करके दौड़ाया और उन पर दिन-दहाड़े बलात्कार किये। निकम्मा आलमगीर, अब्दाली के विरुद्ध कुछ नहीं कर सका। जब अहमदशाह अब्दाली, लाल किले का पूरा गर्व धूल में मिलाकर अफगानिस्तान लौट गया तब मुगल शाहजादियाँ पेट की भूख मिटाने के लिये दिल्ली की गलियों में फिरने लगीं। अब्दाली के जाते ही उसके वजीर इमाद ने बादशाह की हत्या करवाकर शव नदी तट पर फिंकवा दिया।
राजपूताना राज्यों की अदूरदर्शिता
अहमदशाह अब्दाली ने पानीपत के मैदान में एक लाख मराठा सैनिकों को काट डाला था। एक लाख मराठा सैनिकों को काट डाले जाने के बाद पूरा महाराष्ट्र विधवा मराठनों के करुण क्रंदन से गूंज उठा। मराठों की इस भारी पराजय से पेशवा बालाजी बाजीराव का हृदय टूट गया। 23 जून 1761 को वह हृदयाघात से मर गया। पेशवा की मृत्यु से मराठा सरदारों पर नियंत्रण रखने वाला कोई नहीं रहा। वे स्वार्थ-पूर्ति के लिये एक-दूसरे के विरुद्ध षड्यंत्र रचने लगे।
राजपूताना की रियासतें चाहतीं तो इस स्थिति का लाभ उठाते हुए मराठों को सरलता से अपने राज्यों से निकाल सकती थीं किंतु परस्पर झगड़ों में चूर तथा अंतर्कलह से शापित राजपूताना राज्य, मराठों का बाल भी बांका नहीं कर सके। मराठे कुछ ही दिनों में संभल गये तथा पुनः राजपूताना रियासतों का रक्त चूसने लगे।
होल्कर का मेवाड़ पर आक्रमण
3 अप्रेल 1761 को महाराणा राजसिंह (द्वितीय) का निधन हो गया और अरिसिंह (द्वितीय) महाराणा हुआ। महाराणा राजसिंह (द्वितीय) के समय ठेके पर रक्खे हुए परगनों की आमदनी मराठों के पास नहीं पहुंचने से मल्हारराव होल्कर (ई.1720-1766) बहुत नाराज हुआ तथा सेना लेकर ऊंटाले तक आ गया। महाराणा ने 51 लाख रुपये नगद दिये। होल्कर ने रुपये लेकर ठेके के परगनों पर अधिकार कर लिया। महाराणा की अदूरदर्शिता से राज्य के सरदारों पर उसकी पकड़ ढीली हो गई। इस कारण इस काल में मेवाड़ का राष्ट्रीय राजनीति पर प्रभाव नहीं के बराबर था फिर भी मेवाड़ की प्रतिष्ठा अक्षुण्ण रही।
मराठों का पुनरुस्थान
मराठा इतिहासकार सरदेसाई का मत है- ‘यह सोचना कि पानीपत के युद्ध ने मराठों की उठती हुई शक्ति को कुचल दिया, ठीक नहीं होगा। क्योंकि नई पीढ़ी के लोग शीघ्र ही पानीपत में हुई क्षति की पूर्ति करने के लिये उठ खड़े हुए।’ मराठों ने बहुत कम समय में अपनी क्षति को पूरा कर लिया। ई.1769 में उन्होंने पुनः नर्मदा को पार किया और राजपूतों, रोहिल्लों, जाटों आदि से कर वसूल किया। बाद में सिन्धिया कुछ समय के लिये मुगल बादशाह का संरक्षक भी रहा परन्तु फिर भी, मराठे भारत की राजनीति में स्थायी प्रभाव जमाने में सफल नहीं हुए।
सिंधिया के आक्रमण
मराठों ने मेवाड़ राज्य के सरदारों के बीच मची कलह में रुचि दिखाई तथा माधवराव सिंधिया (ई.1768-1794) ने मेवाड़ पर अभियान किया। महाराणा ने भी अपनी सेना रवाना की। उज्जैन के निकट क्षिप्रा तट पर मेवाड़ के सरदारों ने केसरिया वस्त्र धारण कर तथा तुलसी की मंजरियां और रुद्राक्ष की माला अपनी पगड़ियों में रखकर सिंधिया की सेना पर आक्रमण किया।
इस युद्ध में मेवाड़ के कई सरदार मारे गये तथा कोटा का झाला जालिमसिंह घायल होकर घोड़े से गिर गया जिसे मराठों ने बंदी बना लिया। जालिमसिंह के एक मराठा मित्र ने ही उसे छुड़ाने के लिये सिंधिया केा 60 हजार रुपये चुकाये। मेवाड़ के अन्य सरदारों को भी मराठों ने पकड़ लिया जिन्हें रुपये देकर ही छुड़ाया जा सका। मेवाड़ की इस शर्मनाक पराजय से महाराणा बहुत घबराया। मराठे उदयपुर पर आक्रमण की तैयारी कर रहे थे।
महाराणा ने सिंध तथा गुजरात से मुसलमान सैनिकों को बुलाकर युद्ध की तैयारी की। नगर प्राचीर के चारों ओर छोटे-छोटे किले बनवाकर शहर के कोट एवं खाई को ठीक किया। माधवराव सिंधिया छः माह तक उदयपुर पर घेरा डाले रहा किंतु उसे सफलता नहीं मिली। अंत में महाराणा ने 63.5 लाख रुपये देकर संधि की।
फ्रांसिसी सेनापति समरू का आक्रमण
अरिसिंह के समय में गोड़वाड़ का परगना मेवाड़ से अलग हो गया। ई.1771 में देवगढ़ का रावत जसवंतसिंह, फ्रांसिसी सेनापति समरू को मेवाड़ पर चढ़ा लाया। महाराणा स्वयं सेना लेकर उससे लड़ने गया। खारी नदी के तट पर दोनों पक्षों के बीच तीन दिन तक युद्ध चला। अंत में किशनगढ़ के महाराजा बहादुरसिंह ने दोनों में समझौता करवाया। 9 मार्च 1773 को बूंदी के राव अजीतसिंह ने छल से महाराणा अरिसिंह की हत्या कर दी।
हम्मीरसिंह (द्वितीय) की अदूरदर्शिता
महाराणा अरिसिंह के बाद, हम्मीरसिंह(द्वितीय) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। वह भी अदूरदर्शी तथा कमजोर राजा सिद्ध हुआ। उसने बेगूं के सरदार को दबाने के लिये माधवराव सिंधिया से सहायता मांगी। माधवराव ने बेगूं पर आक्रमण किया। अंत में बेगूं के सरदार ने माधवराव को रुपये देकर उससे पीछा छुड़ाया। इस कार्यवाही से महाराणा को कुछ भी लाभ नहीं हुआ। उसके हाथ से भी कुछ परगने निकल गये। 6 जनवरी 1778 को हम्मीरसिंह (द्वितीय) का निधन हो गया।
महाराणा भीमसिंह द्वारा मराठों के विरुद्ध कार्यवाही
हम्मीरसिंह (द्वितीय) के बाद 10 वर्षीय भीमसिंह मेवाड़ का महाराणा हुआ। उसने 50 साल तक मेवाड़ पर शासन किया। जब वह वयस्क हुआ तब उसने मराठों को मेवाड़ से निकलाने के लिये प्रयास किया। उसने अपने सरदारों को एकत्रित किया तथा इस कार्य में कोटा, जयपुर एवं जोधपुर राज्यों से भी सहायता मांगी। ये सब राजा भी राजपूताने को मराठों से मुक्त कराना चाहते थे। अतः मेवाड़ का साथ देने के लिये तैयार हो गये।
सौभाग्य से उन्हीं दिनों ई.1787 में लालसोट में हुई लड़ाई में जोधपुर की सेना ने माधवराव सिंधिया को परास्त करके बड़ी विजय प्राप्त की। इससे राजपूतों के हौंसले बढ़ गये। चूंडावतों को उदयपुर की रक्षा का भार सौंपकर मेहता मालदास की अध्यक्षता में मेवाड़ तथा कोटा की संयुक्त सेना ने नींबाहेड़ा, नकुम्प, जीरण, जावद आदि स्थानों से मराठों को मार भगाया। बेगूं के रावत मेघसिंह के वंशजों ने सींगोंली से मराठों को भगा दिया।
चूंडावतों ने मराठों में कसकर मार लगाई तथा रामपुरा पर अधिकार कर लिया। ई.1788 में होल्कर की राजमाता अहिल्याबाई ने तुलाजी सिंधिया की अध्यक्षता में 5000 सवार जावद की ओर रवाना किये। महाराणा ने भी अपनी सेना को मराठों से मुकाबला करने के लिये रवाना किया। हरकरिया खाल में हुई लड़ाई में मराठों की सेना ने महाराणा की सेना को परास्त करके उन समस्त क्षेत्रों पर फिर से अधिकार कर लिया जो मेवाड़ और कोटा की संयुक्त सेना ने मराठों से छीन लिये थे। इसी काल में चूण्डावतों और शक्तावत सरदारों की पुरानी लड़ाइयां फिर से उठ खड़ी हुईं। इस कारण मेवाड़ भीतर से खोखला होने लगा तथा माधवराव सिंधिया को मेवाड़ में सक्रिय होने का अवसर मिल गया।
माधवराव सिंधिया की महाराणा से भेंट
माधवराव सिंधिया, उत्तर भारत के इतिहास में एक बड़ा योद्धा हुआ है। उस काल में वह भारत की राजनीति के केन्द्र में था। राजपूताने की कोई रियासत न थी जो उससे भय न खाती हो। दूसरी तरफ माधवराव को गौरवशाली मेवाड़ के महाराणा से मिलने का बड़ा चाव था तथा उससे भेंट करने में अपनी गौरव वृद्धि समझता था। अतः उसने कोटा के झाला जालिमसिंह को महाराणा से मिलने के लिये मेवाड़ भेजा ताकि वह महाराणा को सिंधिया से मिलने के लिये समहत कर सके। महाराणा ने सिंधिया से मिलने के लिये स्वीकृति दे दी। सितम्बर 1791 में नाहर मगरे में महाराणा भीमसिंह ने माधवराव सिंधिया से भेंट की।
मराठों द्वारा मेवाड़ राज्य की लूट
सिंधिया, होल्कर और पेशवा ने मेवाड़ को जी भर कर लूटा जिससे राजा और प्रजा दोनों निर्धन हो गये। मेवाड़ नरेश जगतसिंह (ई.1734-51) से लेकर मेवाड़ नरेश अरिसिंह (ई.1761-73) के समय तक मराठों ने मेवाड़ से 181 लाख रुपये नगद तथा 28.5 लाख रुपये की आय के परगने छीन लिये। होल्कारों की रानी अहिल्याबाई (ई.1767-95) ने केवल चिट्ठी से धमकाकर मेवाड़ से नींबाहेड़ा का परगना छीन लिया।
माधवराव सिंधिया (ई.1768-1794) की मृत्यु के बाद ई.1794 में दौलतराव सिंधिया (ई.1794-1827) उसका उत्तराधिकारी हुआ। इसी प्रकार तुकोजी राव होल्कर (1795-97) की मृत्यु पर जसवंतराव होल्कर (ई.1797-1811) उसका उत्तराधिकारी हुआ। इन दोनों मराठा नेताओं ने भी जी भरकर राजपूताना रियासतों को चूसा।
महाराणा भीमसिंह के समय में मेवाड़ राज्य की समस्याएं
विगत कुछ समय से अल्पवयस्क महाराणाओं का शासन होने, उनके शीघ्र मृत्यु को प्राप्त होने तथा मराठों द्वारा लूटपाट मचाये जाने के कारण महाराणा भीमसिंह के काल में मेवाड़ राज्य में अनेक बड़ी समस्याएं उठ खड़ी हुईं जिनमें से मुख्य समस्याएं इस प्रकार से थीं-
1. मेवाड़ के सामंत अनुशासनहीन होकर एक दूसरे के विरुद्ध षड्यंत्र तथा परस्पर संघर्ष करने लगे।
2. सामंतों के सहयोग के अभाव में महाराणा, मराठों का सामना करने में असमर्थ हो गया।
3. मराठों ने मेवाड़ राज्य के उपजाऊ परगने दबा लिये।
4. महाराणा का कोष रिक्त हो गया।
4. मराठों से निबटने के लिये सिंधी मुसलमानों तथा पठानों की जो सेना रखी गयी, उसका वेतन समय पर नहीं दिये जाने से वे विद्रोह पर उतर आये। 5. पिण्डारियों के दलों ने निरीह जनता को निशाना बनाना आरम्भ कर दिया।