Sunday, October 13, 2024
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मराठा और पिण्डारियों के प्रति ईस्ट इण्डिया कम्पनी की राजनीति

ई.1608 से ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में व्यापार कर रही थी तथा व्यापारिक सुविधाओं के प्रसार के नाम पर, भारत के देशी राज्यों को हड़पती जा रही थी। अठारहवीं शताब्दी के अंत में कम्पनी के भारतीय क्षेत्र एक विशाल साम्राज्य में बदल गये थे जिनकी सुरक्षा के लिये कम्पनी, विभिन्न भारतीय शक्तियों से न केवल संघर्ष का मार्ग अपना रही थी अपितु उनसे कई तरह के समझौते एवं संधियां करके अपनी शक्ति का विस्तार कर रही थी।

अठारहवीं सदी के अंत में उत्तर भारत में, कम्पनी के क्षेत्रों को सर्वाधिक खतरा मराठों एवं पिण्डारियों से था जिनके प्रति कम्पनी अब तक लगभग उदासीन रही थी। ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा फ्रैंच, डच तथा पुर्तगाली शक्तियों को पराजित कर दिये जाने के बाद ई.1772 में भारत के राजनीतिक रंगमंच पर केवल दो शक्तियाँ- मराठा और ईस्ट इण्डिया कम्पनी, सर्वोच्चता प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील थीं। अतः इन दोनों शक्तियों में संघर्ष होना अवश्यम्भावी था। राजपूताना के देशी राज्य इस संघर्ष में प्रभावी भूमिका निभा सकते थे किंतु ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इन राज्यों को इस संघर्ष से दूर रखा और स्वयं ही मराठों से निबटती रही।

पिण्डारियों का आतंक

उत्तर भारत में मराठों की गतिविधियों के साथ-साथ पिण्डारी भी जोर पकड़ने लगे। पिण्डारी सामान्यतः लुटेरे सैनिक होते थे जो मराठा सेनाओं के साथ रहकर शत्रुपक्ष में लूटपाट किया करते थे। 19वीं शताब्दी के आरम्भ में इनकी संख्या 1 लाख हो गई तथा इनके स्वतंत्र समूह बन गये। एक-एक दल में कई-कई हजार पिण्डारी होते थे जो टिड्डी दलों की तरह गांवों में घुस आते तथा लोगों को मारकर उनके पशु, धन, अनाज तथा घरेलू सामान को ले भागते थे।

वे गांवों में आग लगा देते और जो भी उनका सामना करने का साहस करता, उसे मौत के घाट उतार देते थे। गांवों और नगरों में लोग ऊँचे मचान बांधकर, वहाँ से चौकसी किया करते थे। जैसे ही आकाश में ऊंचाई तक धूल उड़ती हुई दिखाई देती तो लोग समझ जाते कि पिण्डारी आ रहे हैं। वे अपने बच्चों और पशुओं को लेकर छिप जाते। बहुत से किलों और नगरों के दरवाजे, आवश्यकता पड़ने पर ही खोले जाने लगे। अठारहवीं शताब्दी के अंत में मध्य भारत और राजपूताना की रियासतें पिंडारियों और दूसरे लुटेरों की क्रीड़ास्थली बनीं।

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पिण्डारियों में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही थे किंतु उनके नेता मुसलमान थे। इस काल में पिण्डारियों के पाँच प्रमुख नेता थे- करीमखां, मुहम्मदखां, वसीलखां, चीतूखां तथा अमीरखां।  अमीरखां ने मारवाड़, आम्बेर और मेवाड़ राज्यों का जीना हराम कर दिया। उसकी सेना ने इन तीनों राज्यों के आपसी संघर्ष का लाभ उठाया और तीनों ही राज्यों की प्रजा तथा राजाओं को जी भर कर लूटा।

ई.1809 में अमीरखां बड़ी सेना लेकर उदयपुर आया और धमकी दी कि या तो ग्यारह लाख रुपये दो नहीं तो मैं एकलिंगजी के मंदिर को तोड़ दूंगा।  अमीरखां ने मेवाड़ के महाराणा भीमसिंह को विवश करके 21 जुलाई 1810 को राजकुमारी कृष्णा कुमारी को जहर दिलवा दिया।  10 अक्टूबर 1815 को अमीरखां के निर्देश पर उसके सैनिकों ने जोधपुर दुर्ग में प्रवेश करके, महाराजा मानसिंह के प्रधानमंत्री इंद्रराज सिंघवी तथा महाराजा के गुरु आयस देवनाथ की हत्या कर दी। 

कोटा के प्रतापी फौजदार जालिमसिंह ने कोटा राज्य को पिण्डारियों की लूटपाट से बचाने के लिये अमीरखां को अपना भाई बना लिया। अमीरखां कोटा आने पर राजमहलों में रहा करता था। जोधपुर राज्य में अमीरखां का डेरा, मेहरानगढ़ के ठीक नीचे राइकाबाग में लगता था। अमीरखां अक्सर अपनी सेनाएं लेकर जयपुर राज्य में जा घुसता और बड़ी संख्या में नागरिकों की हत्या कर उनकी औरतों, पशुओं तथा धन-सम्पत्ति को छीन लेता।

राजपूत रियासतों द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी से समझौते के प्रयास

इस काल में राजपूताना की रियासतों को एक ऐसी मित्र शक्ति के सहयोग की आवश्यकता थी जो उन्हें संरक्षण देकर न केवल मराठों एवं पिण्डारियों से पीछा छुड़ा दे अपितु राज्य के सामंतों पर अंकुश लगाकर उन्हें राजा के प्रति स्वामिभक्त एवं विनम्र बना दे। मारवाड़ रियासत ने ई.1786, 1790 तथा 1796 में, जयपुर रियासत ने ई.1787, 1795 तथा 1799 में एवं कोटा रियासत ने ई.1795 में मराठों के विरुद्ध अंग्रेजों से सहायता मांगी  किंतु ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने देशी राज्यों में अहस्तक्षेप की नीति अपनाई तथा उनके इन अनुरोधों को स्वीकार नहीं किया।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा अपनाई जा रही अहस्तक्षेप की नीति का लाभ उठाकर पिंडारी बहुत शक्तिशाली बन गये और वे अंग्रेजी इलाकों पर भी धावा मारने लगे। पिण्डारियों ने ब्रिटिश संरक्षित हैदराबाद राज्य तथा मद्रास प्रेसिडंेसी के कुछ क्षेत्रों पर धावे किये।  इसलिये ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा अनुभव किया जाने लगा कि यदि स्थानीय राजाओं को सहायता नहीं दी तो अंग्रेजों की स्वयं की सुरक्षा खतरे में पड़ जायेगी। इस कारण लॉर्ड वेलेजली (ई.1798 से 1805) ने देशी राज्यों को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रभाव में लाने के लिये अधीनस्थ संधि की पद्धति निर्मित की।

अधीनस्थ संधि करने वाला शासक, रियासत के आंतरिक प्रबंध को अपने पास रखता था किंतु बाह्य शांति एवं सुरक्षा के दायित्व को ब्रिटिश शक्ति को समर्पित कर देता था।  वेलेजली ने प्रयत्न किया कि राजपूताने के राज्यों को ब्रिटिश प्रभाव एवं मित्रता के क्षेत्र में लाया जाये किंतु उसे इस कार्य में सफलता नहीं मिली।  कम्पनी द्वारा ई.1803 में अलवर, भरतपुर, जयपुर तथा जोधपुर राज्यों के साथ, ई.1804 में धौलपुर तथा प्रतापगढ़ राज्यों के साथ ई.1805 में पुनः भरतपुर राज्य के साथ संधि की गयी। 

दिसम्बर 1803 में अंग्रेजों ने दौलतराव सिंधिया (ई.1794-1827) के साथ सुरजी अर्जुनगांव की संधि की। इसके बाद अंग्रेजों की राजपूताना में रुचि समाप्त हो गयी।  इस कारण ई.1803 में लॉर्ड लेक ने जोधपुर राज्य के साथ जो समझौता किया वह कभी लागू न हुआ।  जयपुर के साथ भी ई.1803 में किया गया समझौता विफल हो गया।  अंग्रेज ई.1803 की संधियों के उत्तरदायित्व से सुविधानुसार विमुक्त हो गये किंतु उन्होंने संधि उल्लंघन का दोष अपने मित्र राज्यों पर डाल दिया। 

लॉर्ड कार्नवालिस (ई.1805) तथा बारलो (ई.1805-1807) ने देशी रियासतों की ओर से किये जा रहे संधियों के प्रयत्नों को अस्वीकृत किया विशेषतः जयपुर के मामले में।  जोधपुर महाराजा मानसिंह ने ई.1805 तथा ई.1806 में पुनः अंग्रेजों से संधि के प्रस्ताव भेजे किंतु वे स्वीकृत नहीं हुए।  नवम्बर 1808 में बीकानेर महाराजा सूरतसिंह ने एल्फिंस्टन से अनुरोध किया कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी बीकानेर राज्य को अपने संरक्षण में ले ले किंतु एल्फिंस्टन ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। 

सिंधिया तथा होल्कर द्वारा मेवाड़ को हड़पने की योजना

ई.1805 में दौलतराव सिंधिया और जसवंतराव होल्कर मेवाड़ आये। उन्होंने परस्पर विचार किया कि अपने कुटुम्ब तथा सामान को मेवाड़ के किलों में रखकर अंग्रेजों से युद्ध किया जाये जिन्होंने हमसे उत्तर भारत और नर्मदा के दक्षिण का समस्त प्रदेश छीन लिया है परंतु आंबाजी इंगलिया ने जो इन दिनों सिंधिया का प्रधानमंत्री था और लकवा दादा को मदद देने के लिये महाराणा से नाराज था, यह सलाह दी कि आप दोनों को मेवाड़ का राज्य आपस में बांट लेना चाहिये। 

इस समय रावत संग्रामसिंह शक्तावत तथा कृष्णदास पंचोली जसवंतराव होल्कर के यहाँ तथा रावत सरदारसिंह चूंडावत सिंधिया के यहाँ महाराणा के प्रतिनिधि थे। उन्होंने परस्पर द्वेष भुलाकर सिंधिया की स्त्री बैजाबाई को अपनी ओर मिला लिया तथा जसवंतराव होल्कर से मिलकर पूछा कि क्या आप भी मेवाड़ को अंबाजी के हाथों बेच देना चाहते हैं।

होल्कर ने रावत संग्रामसिंह शक्तावत तथा रावत सरदारसिंह चूण्डावत को ढाढ़स बंधाते हुए कहा कि मैं आंबाजी की इच्छा पूरी न होने दूंगा, आप लोग आपस का वैर छोड़कर एक हो जाएं। इसके उपरांत होल्कर ने सिंधिया से मिलकर कहा कि महाराणा हमारे मालिकों के मालिक हैं, उन्हें सताना ठीक नहीं। उनके जो जिले हमने दबा लिये हैं उन्हें लौटाकर हम दोनों को उनसे मेल कर लेना चाहिये।’

होल्कर की ये बातें सिंधिया ने भी मान लीं। उसने नींबाहेड़ा का परगना महाराणा को लौटा भी दिया किंतु कुछ दिनों बाद उसे ज्ञात हुआ कि महाराणा के दूत भैरवबख्श ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारी लॉर्ड लेक से भेंट की है तथा महाराणा अंग्रेजी सेना की सहायता से मराठों को मेवाड़ से बाहर निकालने का प्रयास कर रहा है। इस सूचना से मराठा सरदार महाराणा से पुनः नाराज हो गये।

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