Saturday, July 27, 2024
spot_img

मानसिंह कच्छवाहा की हल्दीघाटी

हल्दीघाटी का युद्ध निश्चित रूप से दो स्पष्ट पक्षों के बीच हुआ। एक पक्ष भारत की सर्वशक्तिशाली मुगल सत्ता का था तथा दूसरा पक्ष भारत के सबसे पराक्रमी और गौरवशाली राजकुल गुहिलों का। मुगलों की तरफ से लड़ने के लिये मानसिंह के नेतृत्व में कच्छवाहे सरदार तथा मुगल सल्तनत के लगभग समस्त प्रसिद्ध अमीर आये थे जबकि गुहिलों की तरफ से लड़ने के लिये प्रमुख रूप से ग्वालियर के तंवर, झाला सरदार एवं अफगान हकीमखां सूर आये थे।

TO PURCHASE THIS BOOK, PLEASE CLICK THIS PHOTO.

दोनों पक्षों के कवियों और लेखकों ने अपने-अपने स्वामियों की विजय बताते हुए उनका पक्ष स्पष्ट किया। अकबर का पक्ष प्रमुख रूप से अल्बदायूनी तथा अबुल फजल ने लिखा जबकि महाराणा का पक्ष चारण कवियों ने ख्यातों एवं फुटकर रचनाओं में लिखा। अमरकाव्य वंशावली, राजरत्नाकर, जगन्नाथराय प्रशस्ति, राणा रासौ आदि रचनाओं में भी राणा प्रताप का पक्ष अच्छी तरह से रखा गया है। राजा मानसिंह निश्चित रूप से अकबर की तरफ से लड़ा था किंतु उसका अपना भी एक पक्ष था जो अकबर के हितों से जुड़ा हुआ होने के उपरांत भी स्वतंत्र अभिव्यक्ति का आकांक्षी था। मानसिंह का पक्ष ऐतिहासिक महाकाव्य ‘मानप्रकाश’ के रूप में सामने आता है। इस काव्य का सारांश इस प्रकार से है-

‘दोनों सेनाएं बहुत देर तक युद्ध की भावना से तथा चमकती हुई तलवारों की कांति से उद्दीप्त थीं। राजा मान भुज-प्रताप से क्षण भर में विपक्षियों को छिन्न-भिन्न कर, जीत कर अपने प्रताप से वैरी वर्ग को सन्तप्त करता हुआ, इन्द्र के समान सुशोभित हुआ। जब मानसिंह युद्ध कर रहा था तब उसका छोटा भाई माधवसिंह आ गया। उसने मानसिंह से कहा कि राजन्! आप क्षण भर के लिये विश्राम कर लीजिये, इस युद्ध को समाप्त कीजिये। यह कहकर वीर माधवसिंह युद्धाभिमुख हुआ तथा समस्त विपक्षी योद्धाओं को व्यग्र बना दिया।

उस समय उसके भय से कोई भी योद्धा, युद्ध के लिये सामने नहीं आया। माधवसिंह के बाण से अनेक योद्धा छिन्न-भिन्न हो गये। अनेक राजा दीन हो गये, कुछ युद्ध भूमि छोड़कर भाग गये, कुछ युद्ध करने के लिये कुछ समय तक खड़े रहे। दुर्मदवीरवर्य राणा प्रताप, माधवसिंह से लड़ने के लिये सामने आया। कर्ण के समान प्रतापी राणा प्रताप, अर्जुन के समान शक्तिशाली राजा मान को जीतने की इच्छा से कठोर वचन बोला- माधवसिंह! वीरों को अपने बल से विद्रावित कर तुम इस रणभूमि में जो हर्ष का अनुभव कर रहे हो, मैं अभी क्षण भर में राजा मान सहित तुम्हें हर्षहीन बना दूंगा।

राणा प्रताप के जीवित रहते तुम युवकों की जो जीतने की इच्छा है, वह व्यर्थ ही है। मैं जो कह रहा हूँ, उसे अच्छी तरह जान लो, मैं भगवान विष्णु के चरणों की शपथ खाकर कह रहा हूँ। इस प्रकार कहकर वीर प्रताप ने उन दोनों को सैंकड़ों बाणों से ढक दिया। आकाश, बाण समूह से आच्छन्न हो गया और वह दिन, दुर्दिन के समान प्रतीत होने लगा। सर्वप्रथम हाथी से हाथी भिड़ गये तथा घोड़े से घोड़े। पैदल से पैदल लड़ने लगे, इस प्रकार उस समय बराबरी का युद्ध हो रहा था। इस भयंकर संग्राम को देखकर देवताओं का समूह भी आश्चर्य चकित हो गया।

शस्त्रों की अधिकता से हुए घने अंधकार में भय से आक्रांत मन व शरीर वाले योद्धा इतस्ततः भागने लगे। जो जिसके सामने आया, उसने उसे मार डाला। अपने पराये का भेद नहीं रखा गया। राणा की सेना बाणों से छिन्न-भिन्न शरीरा विदेह के समान इतस्ततः दौड़ने लगी। जिस प्रकार बादल जलधारा से भूमि को रोक देता है, उसी प्रकार उस राणा ने पुनः सैंकड़ों बाणों से शूरवीर मानसिंह को रुद्ध कर दिया। उसके बाणों से आच्छन्न धनुर्धारी युद्ध की कामना से उसके सामने जा खड़ा हुआ। राणा प्रताप के बाणों से उत्पन्न घने अंधकार को दूर करके सूर्य के समान मानसिंह रणभूमि में शत्रुओं के लिये उत्पेक्षणीय हो गया। खड़ग से काटे गये हाथी और बाणों से छिन्न-भिन्न घुड़सवार वहाँ गिरे हुए थे। महीपालमणि मान के भय से अनेक योद्धा गिर पड़े थे।

युद्ध करने वाले योद्धाओं के रक्त की नदी उत्पन्न हो गयी। मरे हुए हाथी महान् पर्वत के समान लग रहे थे तथा योद्धाओं के केश, शैवाल की भांति शोभा दे रहे थे। मानसिंह ने अपने पराक्रम से रणनदी को विशाल बना दिया। दो मुख वाले व्यक्ति के समान बड़े वेग से आगे तथा पीछे देखता हुआ राणा प्रताप, हत-गति हो गया। राणा प्रताप के पीछे क्रोध से दौड़ते हुए राजा मानसिंह ने भी निष्प्राण के समान इस एक को ही छोड़ा। अर्थात् राणा प्रताप के अतिरिक्त सब को मार डाला।’

मानप्रकाश का यह वर्णन अतिश्योक्तिपूर्ण तो है ही, काफी अंशों में असत्य भी है। साथ ही, राजस्थान में इस युद्ध के सम्बन्ध में जो बातें बहुतायत से और उसी काल से प्रसिद्ध हैं, मानप्रकाश की बातें उनसे भी मेल नहीं खातीं।

▲ ▲ ▲▲

रामशाह तंवर का बलिदान

हल्दीघाटी के युद्ध में जिस प्रकार मानसिंह कच्छवाहा का पक्ष स्वतंत्र अभिव्यक्ति का आकांक्षी है, उसी प्रकार ग्वालियर नरेश रामशाह तंवर (तोमर)[1] का पक्ष भी स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अभिलाषी है। राजा रामशाह, महाराणा प्रताप की बहिन का ससुर था तथा महाराणा उदयसिंह के समय से मेवाड़ का सामंत था।

हल्दीघाटी के मैदान में वह महाराणा प्रताप के घोड़े के ठीक सामने रहा और रणक्षेत्र में उसने महाराणा की सुरक्षा का दायित्व निर्वहन किया। उसके तीनों पुत्रों- शालिवाहन, भवानीसिंह तथा प्रतापसिंह ने भी इस युद्ध में भाग लिया। उसका एक पुत्र महाराणा की गजसेना का अध्यक्ष था तथा एक पुत्र महाराणा की अश्व सेना का अध्यक्ष था। युद्धक्षेत्र में जगन्नाथ कच्छवाहा ने रामशाह को मारा।[2]

राजकुमार शालिवाहन के नेतृत्व में तोमर वीरों ने मुगलों की सेना पर ऐसा प्रबल धावा किया कि मुगल सेना हल्दीघाटी के मैदान से पांच कोस दूर भाग गई। राजा रामशाह के तीनों पुत्र अपने 300 तोमर वीरों सहित इस युद्ध में रणखेत रहे। खमनौर तथा भागल के बीच जिस स्थान पर तंवरों की छतरियां बनी हुई हैं, वह स्थान रक्ततलाई कहलाता है क्योंकि यहाँ रामशाह के पुत्रों एवं तोमर सैनिकों ने भयानक मारकाट मचाई जिससे रक्त की तलैया बन गई।

वीरवर रामशाह, उसके पुत्र तथा सैनिक इसी तैलया में अपना रक्त मिलाकर शोणित की वैतरणी पार कर गये। भारत का इतिहास इन तंवर वीरों के अमर बलिदान पर गर्व करता है।[3]  इस युद्ध में यदि किसी ने सर्वाधिक बलिदान दिया था तो वह रामशाह तंवर तथा उसका परिवार ही था।


[1]  ई.1536 में जब बाबर ने दिल्ली पर अधिकार किया तब उसने हुमायूं को आगरा पर अधिकार करने के लिये भेजा। उस समय आगरा का दुर्ग रामशाह तंवर के पिता विक्रमादित्य तंवर के अधिकार में था। जब आगरा पर अधिकार करने के बाद हुमायूं ने विक्रमादित्य के परिवार के साथ अच्छा व्यवहार किया तब विक्रमादित्य ने हुमायूं को बहुत सारा धन दिया जिनमें कोहिनूर हीरा भी था। उस समय रामशाह 9-10 वर्ष का बालक था। आगरा से निकलकर यह परिवार चम्बल के बीहड़ों में आ गया। ई.1556 में रामशाह ने ग्वालियर के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। ई.1558 में अकबर ने ग्वालियर पर आक्रमण करके रामशाह को ग्वालियर से बाहर निकाल दिया। रामशाह महाराणा उदयसिंह की सेवा में मेवाड़ चला आया। महाराणा उदयसिंह ने रामशाह के पुत्र शलिवाहन से अपनी एक पुत्री का विवाह कर दिया तथा रामशाह को प्रतिदिन 800 रुपये की वृत्ति बांधकर 20 लाख रुपये वार्षिक आय की जागीर प्रदान की। जब ई.1567 में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया तब रामशाह, उदयसिंह के साथ पहाड़ियों में चला गया था।

[2] आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव, पूर्वोक्त, पृ. 449.

[3] मोहनलाल गुप्ता, पूर्वोक्त, पृ. 244.

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source