Saturday, October 12, 2024
spot_img

झाला मानसिंह का बलिदान

जब महाराणा प्रताप, हल्दीघाटी के मैदान में कच्छवाहा राजकुमार मानसिंह को मारने के उद्देश्य से मुगल सेना के भीतर तक घुस गया तब कुछ क्षणों के लिये संभवतः महाराणा प्रताप अकेला रह गया था। जब महाराणा का घोड़ा मानसिंह के हाथी की सूण्ड पर पैर रखकर खड़ा हो गया और महाराणा ने मानसिंह पर अपने भाले से वार करने के बाद उसे मारा गया जानकर छोड़ दिया तब हाथी की सूण्ड में पकड़ी हुई तलवार से महाराणा के घोड़े का पिछला एक पैर कट गया। इससे महाराणा की स्थिति और भी नाजुक हो गई।

इसी समय मुगल सैनिकों ने महाराणा को चारों तरफ से घेर लिया। महाराणा उनसे संघर्ष करता हुआ घायल हुआ और उसे सात घाव लग गये। संभवतः इन्हीं क्षणों में झाला बीदा जो कि मेवाड़ में झाला मान के नाम से प्रसिद्ध था तथा जिसकी बहिन महाराणा प्रताप को ब्याही थी, उसकी दृष्टि घायल महाराणा पर पड़ी। उसने महाराणा को मुगल सैनिकों से बचाने के लिये उसका राज्य चिह्न झपटकर स्वयं धारण कर लिया ताकि मुगल सैनिक भुलावे में आ जायें।

कर्नल टॉड ने इस घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है- प्रताप के ऊपर राजकीय छतरी लगी हुई थी जिसे वह अलग नहीं कर रहा था तथा शत्रु उस छतरी से प्रताप को पहचान कर बारबार घेरने का प्रयास कर रहा था। प्रताप को उसके साथियों ने शत्रु के घेरे से तीन बार बचाया किंतु अंत में जब प्रताप बहुत अधिक शत्रु सैनिकों से घिर गया तब झाला मन्ना ने अनूठी स्वामिभक्ति का परिचय दिया तथा अपने प्राण देकर प्रताप को बचाया।

TO PURCHASE THIS BOOK, PLEASE CLICK THIS PHOTO.

मन्ना ने मेवाड़ के उस राजच्छत्र को छीन लिया तथा उस सुनहरे सूर्य को अपने मस्तक पर लगाकर एक ओर को बढ़ गया। इससे मुगल सिपाहियों की बाढ़ झाला मन्ना के पीछे लग गई। इस बीच प्रताप को जबर्दस्ती युद्धस्थल से निकाल लिया गया। झाला मन्ना युद्ध क्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुआ।[1]

बलवंतसिंह मेहता ने अपने एक लेख में लिखा है- ‘स्वामी को संकट में देख और उसकी सुरक्षा को अनिवार्य समझ झाला मान, राणा के छत्र और चंवर छीनकर जोर-जोर से चिल्लाकर कहने लगा कि प्रतापसिंह आ गया है। यह सुनकर मुगल सेना भ्रमित हो गई और वह प्रताप का घेरा छोड़कर झाला मान पर टूट पड़ी।

प्रताप की अत्यधिक घायल अवस्था देखकर हकीमखाँ सूरी ने प्रताप से निवेदन किया कि वे युद्धक्षेत्र से बाहर निकल जायें किंतु प्रताप ने रणक्षेत्र में ही युद्ध के बीच रहना चाहा। प्रताप की ऐसी प्रबल इच्छा देखकर हकीमखाँ सूरी, चेटक की लगाम को खींचे आगे बढ़ा जहाँ भामाशाह थे जो प्रताप को हल्दीघाटी के सुरक्षित स्थान की ओर ले गये।’[2] मुगल सैनिकों ने झाला मानसिंह को घेरकर मार डाला।

आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखा है- ‘झाला बीदा ने शुद्ध स्वामिभक्ति से प्रेरित होकर अपने स्वामी के मस्तक पर से राज्यछत्र झपटकर छीन लिया और मानसिंह की सेना के समक्ष आगे बढ़कर चिल्लाना शुरू किया कि मैं ही महाराणा हूँ। इससे महाराणा प्रताप भार मुक्त हुए और हकीम सूर के साथ हल्दीघाटी के तंग दर्रे से गोगूंदा पहुँच सके।’[3]

कर्नल वॉल्टर ने भी महाराणा के राजकीय चिह्न झपटने वाले वीर का नाम झाला बीदा लिखा है। मेवाड़ के दो प्रमुख इतिहास लेखकों, गौरीशंकर हीराचंद ओझा तथा कविराज श्यालदास ने इस घटना का उल्लेख नहीं किया है किंतु सामान्यतः कर्नल टॉड के मत पर ही अधिक विश्वास किया जाता है तथा माना जाता है कि खानवा के मैदान में हुई घटना की पुनरावृत्ति हल्दीघाटी के मैदान में भी हुई।

झाला मानसिंह के बलिदान के सम्बन्ध में मेवाड़ में अनेक कविताएं लिखी गई हैं। एक दोहे में कहा गया है-

मान परां खागां छई, खागां ऊपर छत्र।

हरवळ दीठौ जेण पुळ, झालां कुळ रो चित्र।।

झाला मानसिंह के सिर के ऊपर शत्रुओं की तलवारें छाई हुई हैं और उन तलवारों के ऊपर महाराणा का छत्र सुशोभित है। ऐसा वीर मानसिंह, महाराणा की हरवाल में लड़ता हुआ दिखाई देता है।

गीध कहै सुण गीधणी, सुण मकवाण सराह।

मन न हुवै हथ खावतां, राखण हिन्दू राह।।

अर्थात्- युद्ध के पश्चात् जब गृद्ध, वीरों के शवों को खा रहे थे तब एक गृद्ध अपनी पत्नी से बोला कि हे गृद्धी, इस मानसिंह के हाथों को खाने का मन नहीं करता, ये वही हाथ हैं जिन्होंने हिन्दुओं के रक्षक महाराणा की रक्षा की है।

नवलख्खां न्यारौ लियौ, रगत मान रो हेर।

रछ्या कर नित राखस्यां, तिलक करालां फेर।।

अर्थात्- जब मानसिंह का रक्त धरती पर गिरने लगा तो रणक्षेत्र में रक्त पीने वाली योगिनियों ने उस रक्त से अपना खप्पर भरते हुए कहा कि वीर मानसिंह का पवित्र रक्त पीने योग्य नहीं है, यह तो सुरक्षित रखने तथा नित्य ही मस्तक पर तिलक करने के लिये हैं।

धर थांभी कारज कियौ, सेस फणां पर नाग।

ढंहतौ अम्बर थांभियौ, मान अकेली खाग।।

अर्थात्- शेषनाग तो अपने सहस्र फणों पर धरती को थामता है किंतु झाला मानसिंह ने तो अपनी अकेली तलवार के बल पर टूटते हुए आकाश को थाम लिया।

के गंगा जमना करै, करै गौमती स्नान।

तैं धारा तीरथ कियौ, हळदीघाटी मान।।

अर्थात्- लोग तो गंगा, यमुना और गौमती में स्नान करते हैं किंतु हे मानसिंह! तूने तो हल्दीघाटी में रक्त की धारा में स्नान करके तीर्थ का लाभ लिया।

मान लिया छत्तर चंवर,  रण रो भार अतोल।

पातल सुं मांग न सक्या, सेस कछप अर कोल।।

धरती का भार उठाने वाले शेषनाग, कच्छप और कोल भी जिस प्रतापसिंह से छत्र और चंवर नहीं मांग सकते, उस प्रतापसिंह के छत्र और चंवर का भार रण में मानसिंह ने उठाया जो कि युद्ध के समस्त भार से भी अधिक भारी था।

बैन कहै धन सींचिणा, इण जग भ्रात अपार।

सिर हथळेवै सींचियौ, मकवांणा बळिहार।।

अर्थात्- मानसिंह की बहिन जिसका विवाह महाराणा प्रताप से हुआ था, ने अपने भाई के बलिदान पर अपना भाग्य सराहते हुए कहा कि इस संसार में बहिन के हाथ पर धन सींचने वाले भाई असंख्य हैं किंतु मेरे हाथ पर तो भाई मानसिंह ने अपना सिर ही सींच दिया।


[1] जेम्स टॉड, पूर्वोक्त, भाग 2, पृ.

[2] प्रातः स्मरणीय महाराणा प्रताप स्मारिका में बलवंतसिंह मेहता का आलेख हल्दीघाटी स्वतंत्रता-संग्राम, पृ. 43-51.

[3] महाराणा प्रताप स्मृतिग्रंथ में आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव का आलेख, दी बेटल ऑफ हल्दीघाटी, पृ. 175-81.

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source