Saturday, December 21, 2024
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शक्तिपुंज प्रतापसिंह और अकबर (1)

जब महाराणा उदयसिंह द्वारा भील क्षेत्रों में नवीन बस्तियां बसाने का कार्य चल रहा था, तब उदयसिंह का बड़ा पुत्र प्रतापसिंह छोटा बालक ही था। वह भी इस कार्य में उत्साह से भाग लेने लगा। उसने इस दौरान अनेक भील बालकों से मित्रता कर ली। भीलों को भी यह नन्हा राजकुमार भा गया और वे उसे कीका के नाम से पुकारने लगे। भीलों में ‘कीका’ छोटे बच्चे को कहते हैं। इस सम्बोधन के कारण ही प्रतापसिंह भीलों का प्रिय बन गया और अपने मृदुल स्वभाव के कारण उसे भीलों ने अपना ही मान लिया।

कीका के साथ उनका भावनात्मक सम्बन्ध ऐसा बन गया कि भील युवक, प्रतापसिंह के लिये मरने-मारने को तैयार रहने लगे। प्रतापसिंह और भीलों के बीच आत्मीयता और विश्वास का जो अद्भुत सम्बन्ध बना, वह आगे चलकर प्रतापसिंह के लिये ऐसा सुरक्षा कवच बन गया जिसने प्रतापसिंह को राष्ट्रीय नायक बनने का अवसर प्रदान किया। अफगान और मुगल सब कुछ तोड़ सकते थे किंतु अरावली की उपत्यकाओं में भीलों के बीच सुरक्षित प्रताप का सुरक्षा चक्र नहीं बेध सकते थे। अरावली की पहाड़ियों ने भावी राष्ट्रनायक को रचा, पाला और बड़ा किया। वह अपने पिता की तरह दूरदृष्टि वाला तो था ही, अपने पिता से भी बहुत आगे बढ़कर साहसी, स्वातंत्र्यप्रिय एवं बहादुर योद्धा भी था।

गुहिल, चित्तौड़ से निकाले जा चुके थे तथा उनसे रणथंभौर भी छीना जा चुका था किंतु अकबर की राज्यविस्तार लिप्सा का अंत नहीं हुआ था। अकबर किसी भी तरह हो, सम्पूर्ण मेवाड़ को निगल जाना चाहता था। मेवाड़ के सरदार इस तथ्य से अनजान नहीं थे। इसलिये जब उदयसिंह ने ई.1572 में अपनी मृत्यु के समय, राणी भटियाणी से विशेष प्रेम होने के कारण बड़े कंुवर प्रतापसिंह के स्थान पर, भटियाणी के पुत्र जगमाल  को अपना उत्तराधिकारी बनाया तो मेवाड़ के सरदारों ने जगमाल को अपना राणा स्वीकार करने के स्थान पर उदयसिंह के बड़े पुत्र एवं राज्य के वास्तविक उत्तराधिकारी प्रतापसिंह को मेवाड़ का नया महाराणा चुना। कुम्भलगढ़ में उसका राज्याभिषेक उत्सव हुआ। उस समय प्रताप की आयु 32 वर्ष थी।

महाराणा प्रतापसिंह के समक्ष मेवाड़ की स्वतंत्रता और अस्मिता का प्रश्न आ खड़ा हुआ। यह वही मेवाड़ था जिसके लिये गुहिल, विगत आठ सौ वर्षों से मरते-मारते आये थे किंतु अकबर पूरे भारत को निगल जाने के लिये तत्पर था। प्रताप के गद्दी पर बैठने से पूर्व, ई.1561 में मालवा, जौनपुर एवं चुनार, ई.1562 में आम्बेर, मेड़ता तथा नागौर, ई.1564 में गोंडवाना,  ई.1568 में चित्तौड़, ई.1569 में रणथंभौर तथा कालिंजर , ई.1570 में मारवाड़ तथा बीकानेर  एवं ई.1571 में सिरोही  आदि राज्य एवं दुर्ग अकबर के अधीन चले गये थे। ई.1573 में गुजरात, अकबर के अधीन हो गया।  इस प्रकार ई.1573 तक मेवाड़, डूंगरपुर, बांसवाड़ा तथा प्रतापगढ़ के गुहिलों को छोड़कर, राजपूताना के समस्त हिन्दू राजवंश, अकबर के अधीन जा चुके थे। ये चारों राजा उसी प्रतापी गुहिल के वंशज थे जिसने गुप्त साम्राज्य के पतन के समय छठी शताब्दी ईस्वी में अपने राज्यवंश की स्थापना की थी। 

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ये चारों राज्य, अकबर की आँख की किरकिरी बन गये। प्रताप के सिंहासनारूढ़ होते ही ई.1573 में अकबर ने कच्छवाहा मानसिंह को मेवाड़ की तरफ यह आज्ञा देकर भेजा कि जो राजा हमारी अधीनता स्वीकार कर ले उसका सम्मान करना और जो ऐसा न करे उसे दण्ड देना। शाही फौज ने सबसे पहले डूंगरपुर पर आक्रमण किया। रावल आसकरण पहाड़ों में चला गया। अंत में डूंगरपुर तथा बांसवाड़ा को भी अकबर की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। इस प्रकार अकबर के समय में राजपूताना के 11 राज्यों- मेवाड़, मारवाड़, बीकानेर, जैसलमेर, सिरोही, अजमेर, बूंदी, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़ एवं करौली में से मेवाड़ को छोड़कर पूरा राजपूताना मुगलों के अधीन हो गया।  जून 1573 में कच्छवाहा राजकुमार मानसिंह, मेवाड़ आया ताकि महाराणा को समझाकर बादशाही सेवा स्वीकार कराई जा सके। महाराणा ने कुंवर मानसिंह के साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार किया किंतु दोनों राजाओं में विषमता का अंत नहीं था। भड़कीली शाही पोशाक में मानसिंह और बिल्कुल मामूली कपड़े पहने प्रताप! बेहद रूखी-सूखी स्वाधीनता के मुकाबले विलासिता का वह चरम प्रदर्शन! एक ओर वह चिकना चुपड़ा दरबारी जिसे बारीकी से खराद कर तैयार किया गया था, और इधर ठोस राजपूती पत्थर का बिना घिसा या छिला एक खुरदुरा टुकड़ा। कछवाहा के विरुद्ध सिसोदिया। 

मानसिंह ने महाराणा से बादशाही सेवा स्वीकार करवाने का बहुत उद्योग किया जो सब प्रकार से निष्फल सिद्ध हुआ। मानसिंह की विदाई के समय महाराणा ने उदयसागर की पाल पर दावत का प्रबंध किया। भोजन के समय महाराणा स्वयं उपस्थित न हुआ और कुंवर अमरसिंह को आज्ञा दी कि तुम मानसिंह को भोजन करा देना। मानसिंह ने महाराणा के भोजन में सम्मिलित होने का आग्रह किया तो अमरसिंह ने उत्तर दिया कि महाराणा के पेट में कुछ दर्द है, इसलिये वे उपस्थित न हो सकेंगे, आप भोजन कीजिये। इस पर मानसिंह ने जोश में आकर कहा कि इस पेट के दर्द की दवा मैं खूब जानता हूँ, अब तक तो हमने आपकी भलाई चाही, परन्तु आगे के लिये सावधान रहना। इस बात को सुनकर कुलाभिमानी महाराणा ने (मानसिंह से) कहलाया कि जो आप अपने सैन्य सहित आवेंगे तो मालपुरा में हम आपका स्वागत करेंगे और यदि अपने फूफा (अकबर) के बल पर आवेंगे तो जहाँ मौका मिलेगा, वहीं आपका सत्कार करेंगे। यह सुनते ही मानसिंह अप्रसन्न होकर वहाँ से चला गया। इस प्रकार दोनों के बीच वैमनस्य उत्पन्न हो गया। महाराणा ने मानसिंह को यवन सम्पर्क से दूषित समझकर भोजन तालाब में फिंकवा दिया और वहाँ की जमीन खुदवाकर उस पर गंगाजल छिड़कवाया। 

रामकवि ने जयसिंह चरित्र में लिखा है- मानसिंह ने भोजन के समय कहा कि जब आप भोजन नहीं करते तो हम क्यों करें? राणा ने कहलवाया कि कुंवर आप भोजन कर लीजिये, अभी मुझे कुछ गिरानी है, पीछे से मैं भोजन कर लूंगा। कुंवर ने कहा कि मैं आपकी इस गिरानी का चूर्ण दे दूंगा। फिर कुंवर कांसे (थाल) को हटाकर अपने साथियों सहित उठ खड़ा हुआ और रूमाल से हाथ पोंछकर उसने कहा कि चुल्लू तो फिर आने पर करूंगा। 

मौतमिदखां ने लिखा है- कुंवर मानसिंह जो इसी (मुगल) दरबार का तैयार किया हुआ खास बहादुर आदमी है और जो फर्जन्द (बेटा) के खिताब से सम्मानित हो चुका है, अजमेर से कई मुसलमान और हिन्दू सरदारों के साथ राणा को पराजित करने के लिये भेजा गया। इसको भेजने में बादशाह का अभिप्राय यह था कि वह राणा की ही जाति का है और उसके (मानसिंह के) बाप-दादे हमारे (अकबर के)अधीन होने से पहले राणा के अधीन और खिराजगुजार रहे हैं, इसको भेजने से सम्भव है कि राणा इसे अपने सामने तुच्छ और अपना अधीनस्थ समझकर लज्जा और अपनी प्रतिष्ठा के ख्याल से लड़ाई में सामने आ जाये और युद्ध में मारा जाएं………कुंअर मानसिंह शाही फौज के साथ मांडलगढ़ पहुंचा और वहाँ सेना की तैयारी के लिये कुछ दिन ठहरा। राणा ने अपने गर्व के कारण उसे अपने अधीनस्थ जमींदार समझकर उसको उपेक्षा की दृष्टि से देखा और यह सोचा कि माण्डलगढ़ पहुँचकर ही लड़ें। 

मौतमिदखां के उपर्युक्त कथन में काफी अंश में सच्चाई दिखाई देती है क्योंकि आम्बेर के कच्छवाहे, वास्तव में मेवाड़ के गुहिलों के अधीन सामंत थे। कच्छवाहा राजा पृथ्वीराज, महाराणा सांगा की सेना में था। भारमल का पुत्र भगवानदास भी पहले महाराणा उदयसिंह की सेवा में रहता था। बाद में जब राजा भारमल ने अकबर की अधीनता स्वीकार की तब से आम्बेर वालों ने मेवाड़ की अधीनता छोड़ दी थी।  निश्चित रूप से अकबर चाहता था कि महाराणा प्रताप से संधि न की जाये अपितु उसे सम्मुख युद्ध में मारा जाये और यह कार्य, महाराणाओं के पुराने चाकर अपने हाथों से करें। अकबर, अच्छी तरह समझता था कि अपने पुराने चाकर के हाथों, गुलामी का संदेश पाकर महाराणा अवश्य ही भड़क जायेगा और युद्ध करने पर उतारू हो जायेगा।

मानसिंह ने बादशाह के पास पहुँचकर अपने अपमान का सारा हाल कहा, जिस पर क्रुद्ध हो, अकबर ने महाराणा का गर्वभंजन कर उसे सर्वतोभावेन अपने अधीन करने का विचार कर मानसिंह को ही भेजने का निश्चय किया।  राजप्रशस्ति महाकाव्य और राजपूताने की ख्यातों में इस घटना का वर्णन मिलता है। इसके विपरीत अबुल फजल ने लिखा है कि राणा ने मानसिंह का स्वागत कर अधीनता के साथ शाही खिलअत पहन ली और उसे अपने महलों में ले जाकर उसके (मानसिंह के) साथ दगा करना चाहा, जिसका हाल मालूम होते ही मानसिंह वहाँ से चला गया।  ओझा ने अबुल फजल के वर्णन को मिथ्या मानते हुए लिखा है कि महाराणा का अधीनता के साथ खिलअत पहनना तो दूर रहा, वह तो अकबर को बादशाह नहीं, तुर्क कहा करता था।

अकबर ने अजमेर पहुँचकर, 2 अप्रेल 1576 को मानसिंह को मेवाड़ के लिये रवाना किया। मानसिंह, माण्डलगढ़ पहुँचकर लड़ने की तैयारी करने लगा। जब महाराणा को मानसिंह के माण्डलगढ़ आने की जानकारी हुई तो महाराणा भी कुम्भलगढ़ से चलकर गोगूंदा आ गया। उसका विचार था कि माण्डलगढ़ पहुँचकर ही मानसिंह पर आक्रमण करे किंतु सरदारों ने कहा कि इस समय कुंवर, अकबर के बल पर आया है इसलिये पहाड़ों के सहारे ही शाही सेना का मुकाबला करना चाहिये। महाराणा ने इस सलाह को पसंद किया और युद्ध की तैयारी आरम्भ कर दी।

गोगूंदा और खमणोर के बीच अरावली की विकट पहाड़ी श्रेणियाँ स्थित हैं। नाथद्वारा से लगभग 13 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में खमणोर गांव स्थित है। इससे 4 कि.मी. के अंतर पर हल्दीघाटी स्थित है। यहाँ की मिट्टी हल्दी जैसे पीले रंग की है। इस कारण इसे हल्दीघाटी कहते हैं। यहाँ के पत्थरों पर पीली मिट्टी लगने से वे भी पीले दिखाई देते हैं।  हल्दीघाटी कुंभलगढ़ की पहाड़ियों में बालीचा गांव से लेकर खमनौर के पास भागल की झौंपड़ियों तक पूरे तीन मील की लम्बाई में फैली है। इस घाटी का मार्ग बहुत संकरा था किंतु कहीं-कहीं घाटी इतनी चौड़ी थी कि पूरी फौज आराम से निकल जाए। इन चौड़े स्थानों में गांव बसे हुए थे।

जब मानसिंह को ज्ञात हुआ कि महाराणा, कुम्भलगढ़ से निकलकर गोगूंदा आ गया है तो मानसिंह, माण्डलगढ़ से चलकर मोही गांव होते हुए खमणोर के समीप आ गया और हल्दीघाटी से कुछ दूर बनास नदी के किनारे डेरा डाला। इधर महाराणा भी अपनी सेना तैयार करके गोगूंदा से चला और मानसिंह से तीन कोस (लगभग 10 कि.मी.) की दूरी पर आ ठहरा।  इस प्रकार हल्दीघाटी के दोनों ओर सेनाएं सजकर बैठ गईं। गोगूंदा और हल्दीघाटी के बीच स्थित भूताला गांव से लगभग तीन किलोमीटर दूर ‘पोलामगरा’ नामक पहाड़ में बनी गुफा में महाराणा ने अपना राजकोष एवं शस्त्रागार स्थापित किया ताकि संकट काल में, मेवाड़ का कोष एवं आपातकालीन शस्त्रागार, शत्रु की दृष्टि से छिपा हुआ रह सके। इस गुफा की रक्षा का भार महाराणा प्रताप के कुंवर अमरसिंह को दिया गया। अमरसिंह की सहायता के लिये सहसमल एवं कल्याणसिंह को नियुक्त किया गया। भामाशाह का पुत्र जीवाशाह तथा झाला मान का पुत्र शत्रुशाल भी अमरसिंह की सेवा में नियत किये गये।

अकबर ने मानसिंह के साथ गाजीखां बदख्शी, ख्वाजा मुहम्मद रफी बदख्शी, शियाबुद्दीन गुरोह, पायन्दा कज्जाक, अलीमुराद उजबक, काजीखां, इब्राहीम चिश्ती, शेख मंसूर, ख्वाजा गयासुद्दीन, अली आसिफखां, सैयद अहमदखां, सैयद हाशिमखां, जगन्नाथ कच्छवाहा, सैयद राजू, महतरखां, माधोसिंह कच्छवाहा, मुजाहिदबेग, खंगार और लूणकर्ण आदि अमीर, उमराव तथा 5000 सवार भेजे।  मानसिंह की सेना में 10 हजार घुड़सवार थे। इनमें 4000 कच्छवाहे राजपूत थे। 1,000 अन्य जातियों के राजपूत तथा शेष मध्य एशिया के तुर्क, उजबेग, कज्जाक, बारहा के सैय्यद और फतेहपुर सीकरी के शेखजादे थे। 

यद्यपि आम्बेर के कच्छवाहे और जोधपुर तथा बीकानेर के राठौड़, गुहिलों से दोस्ती तोड़ चुके थे तथापि महाराणा के शेष बचे मित्र, महाराणा के लिये मरने-मारने को तैयार थे। ग्वालियर का राजा रामसिंह तंवर , अपने पुत्रों शालिवाहन, भवानीसिंह तथा प्रतापसिंह को साथ लेकर महाराणा की ओर से लड़ने के लिये आया। भामाशाह और उसका भाई ताराचंद ओसवाल भी अपनी सेनाएं लेकर आ गये।  झाला मानसिंह सज्जावत , झाला बीदा (सुलतानोत) , सोनगरा मानसिंह अखैराजोत, डोडिया भीमसिंह, रावत कृष्णदास चूण्डावत, रावत नेतसिंह सारंगदेवोत , रावत सांगा, राठौड़ रामदास , मेरपुर का राणा पुंजा, पुरोहित गोपीनाथ, पुरोहित जगन्नाथ, पडिहार कल्याण, बच्छावत महता जयमल, महता रत्नचंद खेतावत, महासानी जगन्नाथ, राठौड़ शंकरदास , सौदा बारहठ के वंशज चारण जैसा और केशव आदि भी आ गये।

हकीम खां सूर  भी मुगलों से लड़ने के लिये राणा की सेना में सम्मिलित हुआ।  मेवाड़ की ख्यातों में मानसिंह के साथ 80,000 और महाराणा के साथ 20,000 सवार होना लिखा है। मुहणोत नैणसी ने कुंवर मानसिंह के साथ 40,000 और महाराणा प्रतापसिंह के साथ 9-10 हजार सवार होना बताया है।  अल्बदायूनी ने जो कि इस लड़ाई में मानसिंह के साथ था, मानसिंह के पास 5,000 और महाराणा की सेना में 3,000 सवार होना लिखा है।  आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव के अनुसार मेवाड़ी सेना में 3,000 से अधिक घुड़सवार और कई सौ भील प्यादों से अधिक नहीं थे। मेवाड़ की छोटी सी सेना के अगले दस्ते में लगभग 800 घुड़सवार थे और यह दस्ता हकीमखां सूर, भीमसिंह डोडिया, जयमल के पुत्र रामदास राठौड़ तथा कुछ अन्य वीरों की देख-रेख में रखा गया था। उसके दायें अंग में 500 घुड़सवार थे और ये ग्वालियर के रामशाह तंवर एवं भामाशाह की अधीनता में थे। इस सेना का बायां अंग झाला ‘माना’ की अधीनता में था और बीच के भाग की अध्यक्षता स्वयं महाराणा के हाथ में थी। पुंजा के भील तथा कुछ सैनिक इस सेना के पिछले भाग में नियुक्त किये गये थे। 

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