Saturday, July 27, 2024
spot_img

शक्तिपुंज प्रतापसिंह और अकबर (2)

वि.सं.1633 ज्येष्ठ सुदि द्वितीया (18 जून 1576) को हल्दीघाटी और खमणोर के बीच, दोनों सेनाओं का भीषण युद्ध आरम्भ हुआ। कुंअर मानसिंह मोलेला में ठहरा हुआ था। लड़ाई के दिन बहुत सवेरे वह अपने 6000 जवानों के साथ आगे आया और युद्ध के लिये पंक्तियां संगठित कीं। सैयद हाशिम बारहा के नेतृत्व में 80 नामी युवा सैनिक सबसे आगे खड़े किये गये। उसके बाद सेना की मुख्य अग्रिम पंक्ति थी जिसका संचालन आसफखां और राजा जगन्नाथ कर रहे थे। दक्षिण पार्श्व की सेना, सैयद अहमदखां के अधीन खड़ी की गई। बारहा के सैयद, युद्ध कौशल और साहस के लिये प्रसिद्ध थे इसलिये इन्हें सेनापति के दाहिनी ओर खड़ा किया जाता था। बाएं पार्श्व की सेना गाजीखां बदख्शी तथा लूणकरण कच्छवाहा की देख-रेख में खड़ी की गई। मानसिंह स्वयं इनके बीच में, समस्त सेना के मध्य में, रहा। मानसिंह के पीछे मिहतरखां के नेतृत्व में सेना का पिछला भाग था। इसके पीछे एक सैनिक दल माधोसिंह के नेतृत्व में आपात स्थिति के लिये सुरक्षित रखा गया। हाथी अगल-बगल किंतु पीछे की ओर खड़े किये गये थे। 

सेना के आगे के भाग का नेतृत्व हकीमखां सूर के हाथ में था। उसकी सहायता के लिये सलूम्बर का चूण्डावत किशनदास, सरदारगढ़ का डोडिया भीमसिंह, देवगढ़ का रावत सांगा तथा बदनोर का रामदास नियुक्त किये गये। दक्षिण पार्श्व में राजा रामशाह, उसके तीन पुत्र एवं अन्य चुने हुए वीर रखे गये। भामाशाह तथा ताराचंद, दोनों भाई भी यहीं नियुक्त किये गये। वाम पार्श्व झाला मानसिंह के अधीन था। उसकी सहायता के लिये सादड़ी का झाला बीदा (झाला मानसिंह) तथा सोनगरा मानसिंह नियुक्त किये गये। राणा प्रताप ठीक बीच में था। सबसे पीछे पानरवा का राणा पूंजा, पुरोहित गोपीनाथ, जगन्नाथ, महता रत्नचंद, महसानी जगन्नाथ, केशव तथा जैसा चारण नियुक्त किये गये। महता, पुरोहित एवं चारण विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सेना के साथ रहते थे किंतु समय आने पर तलवार उठाने में भी पीछे नहीं रहते थे।

जब मानसिंह अपने स्थान से नहीं हिला तो प्रतापसिंह ने आगे बढ़कर धावा बोलने का निर्णय लिया। राणा के योद्धा एकाएक मानसिंह पर आक्रमण करने लगे। दिन निकलने के कोई तीन घण्टे बाद, प्रताप की सेना का हाथी मेवाड़ का झण्डा फहराता हुआ घाटी के मुहाने में से निकला। उसके पीछे थी सेना की अग्रिम पंक्ति हरावल हकीमखां सूर के नेतृत्व में। रणवाद्य तथा चारण गायक मिलकर वातावरण को बड़ा उत्तेजक बनाये हुए थे। 

To purchase this book, click on photo.

राणा ने मुगल सेना पर सीधा आक्रमण किया। उस समय मुगलों की सेना, हल्दीघाटी के प्रवेश स्थान की पगडण्डी के उत्तर-पश्चिम के मैदान में लड़ने के लिये खड़ी थी जो अब बादशाह का बाग कहलाता है। राणा का आक्रमण इतना जबर्दस्त था कि मुगलों के आगे की सेना का अगला और बायें अंग का दस्ता दोनों के दोनों तितर-बितर हो गये और उनका दाहिना एवं बीच का दस्ता संकट में पड़ गये। राणा की सेना बहुत छोटी थी। उसके पास न तो कोतल सेना थी और न पीछे का कोई दस्ता था जो उसकी आरम्भिक सफलता का लाभ उठाता। अतः राणा ने शत्रु के मध्य की सेना तथा बायें अंग की सेना को हराने के लिये हाथियों से प्रहार किया क्योंकि दूसरी ओर से आते हुए तीर और गोलियों ने सिसोदियों को बहुत क्षति पहुँचाई थी।

इस प्रकार पहली मुठभेड़ में महाराणा ने मुगल सेना पर अपनी धाक बना ली। मुगल सैनिक, बादशाही बाग के उत्तर-पूर्व में हल्दीघाटी के बाहरी सिरे पर जमा हो गये। महाराणा ने आनन-फानन में मुगलों पर दूसरे आक्रमण की योजना बनाई और अपने हाथी लोना को आगे का रास्ता साफ करने के लिये भेजा। लोना का आक्रमण रोकने के लिये मुगलों ने गजमुक्ता नामक विकराल हाथी को आगे बढ़ाया। पहाड़ की आकृति वाले इन दो हाथियों के प्रहार से सैनिकों में आतंक छा गया।  मुगलों का हाथी घायल होकर गिरने ही वाला था कि इसी समय राणा के हाथी के महाबत को मुगल सैनिकों ने गोली मार दी। इस पर राणा का हाथी लौट गया तथा ग्वालियर नरेश रामशाह तंवर के पुत्र प्रताप तंवर ने रामप्रसाद नामक हाथी आगे बढ़ाया। इस हाथी का मुकाबला करने के लिये मुगलों ने गजराज तथा रणमदार नामक दो हाथी आगे बढ़ाये। मुगलों द्वारा रामप्रसाद के महाबत को भी मार डाला गया। जैसे ही महाबत धरती पर गिरा, मुगल सेना के हाथियों के फौजदार हुसैनखां अपने हाथी से रामप्रसाद पर कूद गया। इस राणा के प्रसिद्ध हाथी रामप्रसाद को मुगलों ने बंदी बना लिया।

हाथियों की लड़ाई समाप्त हो जाने के बाद कच्छवाहा तथा सिसोदिया योद्धाओं ने आगे बढ़कर निकट युद्ध आरम्भ किया। मुसलमानों ने बिना सोचे-विचारे कि राजपूत उनके पक्ष के हैं अथवा राणा के, उन पर तीर तथा गोलियां बरसाना आरम्भ कर दिया।  राजा रामसहाय तंवर, महाराणा प्रताप की सुरक्षा करता हुआ महाराणा के ठीक आगे चल रहा था, उसे जगन्नाथ कच्छवाहा ने मौत के घाट उतार दिया।  जगन्नाथ ने जयमल के पुत्र रामदास राठौड़ को भी मार डाला। जब जगन्नाथ अपने जीवन का बलिदान देने वाला ही था कि इल्तमश  आ गया। सैयद हाशिम घोड़े से गिर गया लेकिन सैयद राजू ने उसे फिर से घोड़े पर बैठा दिया। गाजीखाँ बदख्शी आगे बढ़ा और आक्रामक युद्ध में सम्मिलित हो गया। 

इस प्रकार युद्ध अपने चरम पर पहुँच गया। दोनों पक्षों के सैनिक लड़ते-लड़ते रक्ततलाई में पहुंच गये थे जहाँ युद्ध का तीसरा और सबसे भयानक चरण आरम्भ हुआ। बड़ी संख्या में सैनिक कट-कट कर मैदान में गिरने लगे। मैदान मनुष्यों, हाथियों एवं अश्वों के शवों तथा कटे अंगों से भर गया तथा रक्त की नदी बह निकली। रक्त तथा मिट्टी से बनी कीचड़ में पैदल सैनिक तथा घोड़े फिसलने लगे। इस कारण लड़ाई और भी कठिन हो गई। महाराणा लगातार अपने शत्रुओं को गाजर मूली की तरह काटता हुआ आगे बढ़ रहा था। उसका निश्चय मानसिंह को सम्मुख युद्ध में मार डालने का था। बहलोलखां, कच्छवाहा मानसिंह के ठीक आगे उसकी रक्षा करता हुआ चल रहा था। जब महाराणा का घोड़ा मानसिंह की तरफ बढ़ने लगा तो बहलोलखां ने महाराणा पर वार करने के लिये अपनी तलवार ऊपर उठायी, उसी समय महाराणा ने अपना घोड़ा उस पर कुदा दिया तथा उस पर अपना भाला दे मारा जिससे बहलोलखां का बख्तरबंद फट गया और वह वहीं मर गया।  इस प्रकार प्रताप का घोड़ा मानसिंह के हाथी के ठीक सामने पहुँच गया।

महाराणा अपने नीले घोड़े पर सवार था जो इतिहास में चेटक के नाम से विख्यात हैं। महाराणा ने चेटक को चक्कर दिलाकर कुंवर मानसिंह से कहा कि तुमसे जहाँ तक हो सके, बहादुरी दिखाओ, प्रतापसिंह आ पहुँचा है। यह कहकर उसने मानसिंह पर भाले का वार किया परन्तु उसके (मानसिंह के) हौदे में झुक जाने से महाराणा का बर्छा (भाला) उसके कवच में ही लगा और वह बच गया।  उस समय महाराणा के घोड़े के अगले दोनों पैर मानसिंह के हाथी की सूण्ड के सिरे पर लगे  जिससे उसकी सूण्ड में पकड़ी हुई तलवार से चेटक का पिछला एक पैर जख्मी हो गया। महाराणा ने मानसिंह को मारा गया समझ कर घोड़े को पीछे मोड़ लिया।  रक्ततलाई में चल रहा युद्ध का तीसरा चरण भी महाराणा प्रताप के पक्ष में था इसलिये मुगल सेना में भयानक निराशा छा गई और उसके पैर उखड़ने लगे। अचानक मुगल सेना में यह समाचार फैल गया कि शहंशाह अकबर स्वयं अपनी सेना लेकर आ रहा है। अकबर के आगमन की सूचना से उत्साहित होकर मुगल सेना ने महाराणा प्रताप को चारों ओर से घेर लिया, इससे महाराणा के प्राण संकट में आ गये।

मुगल सेना जब भी परास्त होने लगती थी या उसमें भगदड़ मच जाती थी, तब मुगल अधिकारियों द्वारा सुनियोजित रूप से मुगल सैनिकों एवं शत्रुपक्ष के सैनिकों में यह अफवाह फैलाई जाती थी कि बादशाह अपनी विशाल सेना लेकर आ पहुँचा है। इस अफवाह को सुनकर भागते हुए मुगल सैनिक थम जाते थे और दुगुने जोश से लड़ने लगते थे। इस चाल से कई बार, हारी हुई बाजी पलट जाती थी। हल्दीघाटी के युद्ध में भी जब मुगल सेना में भगदड़ मच गई तो मुगलों की चंदावल सेना के बीच यह अफवाह उड़ाई गई। यह चाल सफल रही तथा भागती हुई मुगल सेना ने पलटकर राणा को घेर लिया।

महाराणा पर चारों ओर से भयानक प्रहार होने लगे। इस तीसरी और अंतिम मुठभेड़ में महाराणा प्रताप के शरीर पर सात घाव लगे, तीन घाव भाले से, एक घाव बंदूक की गोली से तथा तीन घाव तलवारों से। शत्रु उस पर बाज की तरह गिरते थे परंतु वह अपना छत्र नहीं छोड़ता था। वह तीन बार शत्रुओं के समूह में से निकला। एक बार जब वह दब कर मरना ही चाहता था कि झाला सरदार दौड़ा और राणा को इस विपत्ति से निकाल कर ले गया। संकट का आभास पाते ही झाला बीदा (झाला मान)  ने प्रताप पर लगा राजकीय छत्र उतारकर स्वयं अपने ऊपर लगा लिया और शत्रुओं को ललकारा कि महाराणा मैं हूँ। वह बिना किसी भय के आगे बढ़ने लगा। मुगल सैनिकों में सभी राणा प्रताप को स्वयं पकड़ने को उत्सुक थे। वे सब झाला के पीछे भागे, प्रताप पर से उनका दबाव ढीला पड़ गया। फिर भी प्रताप, युद्धक्षेत्र छोड़ने को सहमत नहीं हुआ। प्रताप के स्वामिभक्त सामंतों और सैनिकों ने चेटक की रास अपने हाथ में ले ली और उसका मुंह मोड़ दिया। पीछे हल्दीघाटी थी। उसमें से निकलकर वे घायल प्रताप को सुरक्षित स्थान पर ले गये। प्रताप की जगह झाला बीदा (झाला) के प्राण गये। इस बलिदान के लिये उसने स्वयं अपने को प्रस्तुत किया था। उसके गिरते ही युद्ध समाप्त हो गया। 

महाराणा प्रताप के युद्धक्षेत्र से हट जाने से मेवाड़ी सेना की हिम्मत टूट गयी। झाला मानसिंह, राठौड़ शंकरदास, रावत नेतसी आदि वीर सेनानियों ने अपने सैनिकों को थोड़ी देर और जमाये रखने का यत्न किया परंतु कच्छवाहा मानसिंह के अंगरक्षकों ने उनके पैर जमने नहीं दिये और अंततः मेवाड़ी सेना के बचे हुए लोगों को भी मैदान छोड़ना पड़ा। झाला मन्ना अपने 150 सैनिकों के साथ खेत रहा।  झाला बीदा (झाला मान), तंवर रामशाह (रामसिंह), रामशाह के तीनों पुत्र, रावत नेतसी (सारंगदेवोत), राठौड़ रामदास, डोडिया भीमसिंह, राठौड़ शंकरदास आदि कई सरदार काम आये।

29 सितम्बर 1576 को अकबर ख्वाजा मुइनुद्दीन के उर्स पर अजमेर आया और वहाँ से 6 लाख रुपये और कुछ सामान मक्का और मदीना के योग्य पुरुषों को बांटने के लिये देकर सुल्तान ख्वाजा को उधर रवाना किया। उसके साथ कुतुबुद्दीन मुहम्मदखां, कुलीजखां और आसफखां को यह आज्ञा देकर भेजा कि वे गोगूंदा से ख्वाजा का साथ छोड़ दें, राणा के मुल्क में सब जगह फिरें और जहाँ कहीं उसका पता लगे, वहीं उसको मार डालें।  मानसिंह को गोगून्दा में रहते हुए चार माह बीत गये थे किंतु उससे कुछ भी न बन पड़ा जिससे बादशाह ने उसे तथा आसफखां और काजीखां को वहाँ से चले आने की आज्ञा लिख भेजी।  शाही सेना गोगूंदा में कैदियों की तरह पड़ी हुई थी। जब कभी थोड़े से आदमी रसद का सामान लाने के लिये जाते तो उन पर राजपूत धावा करते थे। इन आपत्तियों से घबराकर शाही सेना राजपूतों से लड़ती-भिड़ती बादशाह के पास अजमेर चली गई।  जब वे अजमेर पहुँचे तो मानसिंह तथा आसफखां की गलतियों  के कारण उन दोनों की ड्यौढ़ी बंद कर दी।  महाराणा भी अनेक बादशाही थानों के स्थान पर अपने थाने नियतकर कुंभलगढ़ चला गया।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source