दिल्ली दरबार में महाराणा की अनुपस्थिति
फरवरी 1903 में भारत के वायसराय लार्ड कर्जन ने एडवर्ड सप्तम् के राज्यारोहण के अवसर पर दिल्ली में भारतीय नरेशों का विशाल दरबार आयोजित किया जिसमें एडवर्ड का छोटा भाई ड्यूक ऑफ कनॉट और भारत के समस्त नरेश एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति सम्मिलित हुए। राजस्थान के समस्त राजाओं ने भी इस सम्मेलन में भाग लेने की स्वीकृति दी। महाराणा उदयपुर को विशेष रूप से आमंत्रित किया गया। 19 मार्च 1902 को महाराणा के पास लॉर्ड कर्जन का निमंत्रण पत्र प्राप्त हुआ, उसी दिन से महाराणा ने दरबार में न जाने की युक्ति पर विचार करना शुरू कर दिया।
महाराणा ने मेवाड़ के तत्कालीन रेजीडेण्ट मेजर ए. एफ. पिन्हे से विचार विमर्श किया जिससे महाराणा की अच्छी मित्रता थी। मेजर पिन्हे ने महाराणा का सहयोग करने के लिये अपने मित्र डॉक्टर पेंक को जयपुर से बुलाकर महाराणा का चिकित्सक नियुक्त कराया तथा उसके माध्यम से महाराणा के पक्ष में डॉक्टरी रिपोर्ट पेश की। इसके बाद महाराणा ने 21 अगस्त 1902 को वायसराय को एक पत्र लिखकर सूचित किया कि महाराणा के पुत्र भूपालसिंह का स्वास्थ्य विगत ढाई साल से चिंताजनक बना हुआ है अतः मुझे (महाराणा को) भावी दरबार में उपस्थित होने से छूट दी जाये।
इसके बाद राजनीतिक दबाव के चलते महाराणा ने दिल्ली यात्रा को मूर्त रूप प्रदान किया। 30 दिसम्बर 1902 को महाराणा ने स्पेशल रेल से दिल्ली के लिये प्रस्थान किया। 31 दिसम्बर की शाम 7.45 पर महाराणा की रेल दिल्ली सराय रोहिल्ला पहुंची। जहाँ महाराणा के स्वागत सत्कार में कई नरेश, गणमान्य व्यक्ति तथा सरदार उपस्थित हुए। तत्पश्चात् महाराणा बग्गी में सवार होकर मेवाड़ कैम्प स्थित डेरे में पहुंचे। औपचारिक मुलाकात हेतु कई नरेश व सरदार महाराणा के समक्ष उपस्थित होते रहे, महाराणा की तबियत ठीक नहीं होने से जयपुर के डॉ. पेंक को बुलाया गया, जो रेजीडेण्ट पिन्हे के साथ उपस्थित हुआ और महाराणा के स्वास्थ्य का चिकित्सा परीक्षण कर आवश्यक दवाइयां देकर विदा हुआ।
दूसरे दिन 1 जनवरी 1903 को प्रातः 9.30 पर आम दरबार था, महाराणा का स्वास्थ्य ठीक नहीं होने से वे पलंग पर लेटे रहे मेवाड़ के सरदार रेजीडेण्ट पिन्हे के साथ दरबार में गये, दोपहर में चांपावत नारायण दास आये जिनसे महाराणा ने एकांत में बातचीत की। इसके बाद सायंकाल तक महाराणा की तबियत पूछने वालों का सिलसिला जारी रहा। तीसरे दिन 2 जनवरी 1903 को महाराणा से एकांत में भेंट करने वाले आगंतुकों में ईडर नरेश सर प्रताप, जयपुर के बालाबक्ष तथा किशनगढ़ के दीवान श्यामसुंदर लाल के नाम उल्लेखनीय हैं।
चौथे दिन 3 जनवरी 1903 को रेजिडेंट पिन्हे तथा डॉ. पेंक ने एकांत में विमर्श करने के बाद महाराणा का स्वास्थ्य परीक्षण कर उनसे बातचीत की। इस दिन महाराणा से एकांत में वार्ता करने वाले प्रमुख आगंतुक कानोता के ठाकुर चांपावत नारायणदास, खरवा ठाकुर गोपालसिंह तथा किशनगढ़ के महाराजा मदनसिंह थे। सायंकाल के समय महाराणा उदयपुर प्रस्थान हेतु अपने डेरे से विदा हुए, दिल्ली सराय रोहिल्ला से सायंकाल 6 बजे महाराणा की स्पेशल रेल ने प्रस्थान किया तथा 7 जनवरी 1903 को सायं 6 बजे महाराणा उदयपुर लौट आये।
कानोता के ठाकुर नारायणदास चांपावत के पुत्र अमरसिंह जो स्वयं उक्त दरबार में पिता के साथ गये थे, अपनी डायरी में लिखते हैं कि वर्तमान महाराणा फतहसिंहजी की यही इच्छा थी कि वे दरबार में न आयें लेकिन उन्हें आने के लिये विवश किया गया। वे कोई दो दिन पहले आये लेकिन राजकीय समारोह में शामिल न हुए।
एक अन्य स्थान पर अमरसिंह ने लिखा है कि महाराणा साहब को किसी भी अन्य महाराजा के नीचे बैठने पर आपत्ति है और यही कारण है कि वे दरबार में उपस्थित नहीं हुए। लेकिन उन्होंने (महाराणा) मेरे पिता को अपने इरादे से सूचित करने के लिये फतहकरणजी को भेजा है। अपने इरादे के पक्ष में महाराणा की दो दलीलें हैं, पहली यह कि उनके बड़े भाई की मृत्यु हो गई है और इस शोक के कारण वे राजपूतों के रिवाज के अनुसार दरबार में नहीं आ सकते, यह शोक कम से कम बारह दिनों तक रखा जाता है, दूसरी दलील यह है कि वे बीमार हैं, इसलिये कैसे आ सकते हैं!
अनेक इतिहासकारों ने इस प्रसंग का कई तरह से उल्लेख किया है तथा देशभक्ति के रंग को गहरा करने के लिये इसमें चेतावणी के चूंगटिये का प्रसंग प्रमुखता से जोड़ दिया है जिसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है-
ई.1818 में हुई संधि के आधार पर महाराणा फतहसिंह ने इस सम्मेलन में भाग लेने से इन्कार कर दिया। इस पर अंग्रेजों ने उन्हें मेवाड़ की गद्दी से हटा देने की धमकी दी। अन्ततः कुछ शर्तों पर महाराणा फतहसिंह सम्मेलन में भाग लेने के लिये तैयार हो गये। जब महाराणा सम्मेलन में भाग लेने के लिये दिल्ली रवाना हुए तो कुछ लोगों को यह बात बुरी लगी और उन्होंने महाराणा द्वारा अंग्रेजों की मातहती स्वीकार करने तथा अपमानजनक तरीके से दिल्ली दरबार में उपस्थित होने की प्रवृत्ति का विरोध करने का निर्णय लिया। जयपुर में भिण्डों के रास्ते पर स्थित जोबनेर ठाकुर कर्णसिंह की हवेली पर कर्णसिंह, केसरीसिंह बारहठ और राव उमरावसिंह के बीच सलाह मशविरा हुआ कि भारतीयों के सम्मान की रक्षा कैसे हो!
किसी खास नतीजे पर नहीं पहुँच पाने के कारण ये तीनों व्यक्ति चांदपोल दरवाजे के बाहर स्थित मलसीसर की हवेली पहुँचे। मलसीसर ठाकुर भूरसिंह वहाँ राव गोपालसिंह खरवा, हरीसिंह लाडखानी व सज्जनसिंह खंडेला के साथ इसी विषय पर मंत्रणा कर रहे थे। वहाँ यह तय हुआ कि चूंकि मेवाड़ के महाराणा, दीर्घ काल से भारतीय स्वातंत्र्य समर को नेतृत्व देते आ रहे हैं अतः उनका दिल्ली दरबार में जाना किसी तरह रोका जाए। इससे भारतीयों की प्रसुप्त स्वातंत्र्य चेतना को बल और उद्धत गोरी सत्ता को चुनौती मिलेगी। राव गोपालसिंह खरवा ने सुझाव दिया कि राजस्थान के इतिहास में ऐसी संकटपूर्ण घड़ियों में चारणों ने ही अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा सही दिशा दी है।
अतः केसरीसिंह को यह कार्य सौंपा गया। उन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा का चमत्कार दिखाते हुए उसी समय तेरह सोरठों की रचना की। इन दोहों को सुनकर वहाँ उपस्थित समस्त जन अत्यंत प्रभावित हुए। उनका विचार था कि ये सोरठे इतने प्रभावशाली हैं कि यदि इन्हें महाराणा तक पहुंचा दिया जाये तो महाराणा दिल्ली दरबार में उपस्थित होने का विचार त्याग देंगे। चेतवाणी रा चूंगटिया शीर्षक से लिखे इन दोहों को महाराणा तक पंहुचाने का दायित्व राव गोपालसिंह खरवा ने लिया। ……. दोहे क्या थे, हवा में सनसनाते तीर थे जिन्होंने महाराणा के मर्म को भेद दिया। इन दोहों में न केवल मेवाड़ के गौरवशाली अतीत के अपितु भारत की स्वतंत्रता की आकांक्षा के भी दर्शन होते हैं।
जब गोपालसिंह खरवा ये सोरठे लेकर महाराणा को देने के लिये चले तो महाराणा की ट्रेन उदयपुर छोड़ चुकी थी। अतः ये सोरठे नसीराबाद रेल्वे स्टेशन पर महाराणा की नजर किये गये। इस सम्बन्ध में गोपालसिंह खरवा ने अपने एक पत्र में अपने भतीजे खेतसिंह को लिखा है- ‘क्षात्र शक्ति का भक्त बारहठ केसरीसिंहजी ए दोहा बणा कर महाराणा साहेब की सेवा में भेज्या। उण बगत महाराणा साहेब स्पेशल ट्रेन द्वारा उदयपुर सूं रवाना हो चुक्या हा। ये दोहा नसीराबाद की स्टेशन पर श्री दरबार के नजर हुआ, उण बगत फरमायो बतावे है कि यदि ये दूहा उदयपुर में ही मिल जाता तो म्है दिल्ली के लिए रवाना ही नहीं होता, परन्तु अब तो दिल्ली पहुंच कर ही इस पर विचार करहां। दिल्ली पहुंच कर महाराणा साहब जो कुछ कर दिखाई वा संसार प्रसिद्ध बात है। यानी महाराणा साहेब दरबार में नहीं पधार्या। जिण बगत महाराजा, नवाब और उमरावां सूं भर्या दरबार में सम्राट को प्रतिनिधि लार्ड कर्जन महाराणा साहेब की खाली कुर्सी की तरफ देख रहयो हो, उण बगत उदयपुर राज्य की स्पेशल महाराणा साहेब को लिये हुए स्वतन्त्रता की वेदी चित्तौड़ की तरफ दौड़ रही ही।’
माना जाता है कि ब्रिटिश हुकूमत के दबाव और देश के दूषित वातावरण के प्रभाव के कारण महाराणा फतहसिंह दिल्ली पहुंच तो गये किंतु केसरीसिंह बारहठ द्वारा लिखे गये और गोपालसिंह खरवा द्वारा भेंट किये गये चेतावणी रे चूंगटियों का महाराणा पर इतना गहरा प्रभाव हुआ कि महाराणा दिल्ली जाकर बीमार हो गये। शब्दों की इस फटकार ने महाराणा को गहराई से सोचने के लिये विवश कर दिया। वे अपने दिल्ली शिविर में इसी उधेड़-बुन में थे कि क्या किया जाए? इतने में कानोता के ठाकुर नारायणदास व उनके साथ गुप्त वेश में अलवर नरेश जयसिंह, महाराणा के शिविर में पहुँचे।
जयपुर की घटनाओं का ब्यौरा देते हुए उन्होंने कहा यदि आप घोड़ों से उदयपुर जाना चाहें तो हम इस समय ऐसी व्यवस्था करके आये हैं जिसके अनुसार दिल्ली से बसवा तक अलवर राज्य का प्रबंध होगा। बसवा से जहाजपुर तक जयपुर राज्य का और जहाजपुर से चित्तौड़ तक राव गोपालसिंह खरवा का। हर मील पर घोड़ा तैयार मिलेगा। दिल्ली की सारी व्यवस्था जोधपुर के सर प्रताप संभालेंगे। निश्चय को बल मिला। महाराणा ने दिल्ली दरबार में नहीं जाने का दृढ़ निश्चय कर लिया और उसकी सूचना सम्बन्धित व्यक्तियों को दे दी गई। स्पेशल रेलगाड़ी को उदयपुर लौटाने की व्यवस्था की जाने लगी।
ठाकुर नारायणदास कानोता का पुत्र अमरसिंह उन दिनों इम्पीरियल कैडेट की हैसियत से दिल्ली दरबार में भाग लेने आया हुआ था। उसने अपनी डायरी में इस घटना का पूरा विवरण दिया है। इस डायरी के अनुसार अमरसिंह ने आधी रात को सर प्रताप को जगाकर अपने पिता का संदेश दिया कि महाराणा मर जाएंगे पर दरबार में नहीं जाएंगे। सर प्रताप ने उसी समय वायसराय के सचिव लारेन्स को इस बारे में सूचित कर दिया। वस्तुस्थिति बताकर उसे चेतावनी भी दी कि यदि महाराणा पर अनुचित दबाव डाला गया और बदले की कार्यवाही की गई तो बात बिगड़ जायेगी। दिल्ली में सभी नरेशों के लाव लश्कर सहित पड़ाव हैं और उनकी सहानुभूति महाराणा के साथ है।
सचिव से सूचना मिलने पर कर्जन ने स्थिति को भांप लिया और मन मसोस कर वह संधि स्वीकार कर ली।
महाराणा ने औपचारिकता के नाते अपने दीवान को कर्जन के दरबार में भेज दिया। ब्रिटिश सरकार की यह भारी अवज्ञा थी किंतु वह खून का घूंट पीकर रह गई। जिस समय दिल्ली का दरबार हो रहा था, मेवाड़ के महाराणा की कुर्सी खाली पड़ी थी। महाराणा की स्पेशल ट्रेन उदयपुर की ओर बढ़ रही थी। कर्जन खून का घूंट पीकर रह गया। साम्राज्यवादी दंभ पर भारतीय स्वाभिमान की यह करारी चोट थी। केसरीसिंह के मार्मिक उद्गारों ने यह चमत्कार कर दिखाया था। चेतावणी रा चूंगट्या वस्तुतः राजस्थान की आत्मा की पुकार थी जिसे अनसुनी करना संभव नहीं था।’
महाराणा के इस प्रकार लौट जाने को अखबारों ने बड़ी-बड़ी सुर्खियां देकर छापा। राजस्थान पर अंग्रेजों का पंजा इतना दृढ़ता पूर्वक जम चुका था और वह निरंतर इतना अधिक जकड़ता जा रहा था कि उनके साथ अपनी जान झौंकने वाले उन्हें वहाँ न मिले किन्तु उनका यह निरन्तर बढ़ता हुआ रोष और विरोध अन्त में बारहठ केसरीसिंह की वाणी में फूट ही पड़ा और महाराणा जवानसिंह, शंभूसिंह तथा सज्जनसिंह द्वारा स्वीकृत परंपरा के अनुसार उनके उत्तराधिकारी महाराणा फतेहसिंह, लार्ड कर्जन के बुलावे पर सम्राट एडवर्ड के राज्यारोहण के उपलक्ष में होने वाले दिल्ली दरबार में सम्मिलित होना बहुत ही अनिच्छा पूर्वक स्वीकार कर जब वह दिल्ली के लिए रवाना हुआ तब तो बारहठ केसरीसिंह से रहा न गया, राजपूत नरेशों में प्रमुख पूज्य हिन्दुआ सूरज के भी चेतावणी का चुंगट्या ले ही लिया और गरजती हुई हुंकार से प्रताप और राजसिंह के उस वंशज से पूछा …… इस चेतावनी ने फतेहसिंह के सुप्त गौरव को जगा दिया।
दिल्ली पंहुच कर भी वह दरबार में नहीं गया; वहाँ उसकी कुर्सी खाली ही रही। उस रिक्त स्थान को देखकर जहाँ लार्ड कर्जन ने गहरी निःश्वासें लीं, वहीं उस खाली कुर्सी की गाथा ने सारे राजस्थान में नवीन आशा और स्फूर्ति की लहर दौड़ा दी। ई.1903 की इस अनपेक्षित अविश्वसनीय घटना का ठीक-ठीक ऐतिहासिक महत्व तथा राजनैतिक प्रभाव अब तक नहीं आंका गया है। तिलमिला देने वाली इस तीव्र उपेक्षा के बाद भी, महाराणा फतेहसिंह को कुछ भी कहने-सुनने की लार्ड कर्जन को हिम्मत नहीं हुई, जिससे अंग्रेजों के कठोर शासन के विरुद्ध राजस्थानी नरेशों के हृदयों में अब धीरे-धीरे प्रतिक्रिया की भावना उत्पन्न होने लगी और वहाँ के साधारण जन-समाज में भी एक नूतन साहस का संचार हुआ।
महाराणा उदयपुर से रवाना होकर 31 दिसम्बर 1903 की रात को दिल्ली पहुंचा परंतु ज्वर हो जाने के कारण दरबार में सम्मिलित नहीं हुआ। इस पर लॉर्ड कर्जन ने अपनी ओर से खेद प्रकाशित किया। महाराणा के दिल्ली दरबार से वापस लौटते समय नसीराबाद रेलवे स्टेशन पर उपस्थित होकर राव गोपालसिंह ने राष्ट्रीय गौरव के रक्षक महाराणा फतहसिंह को धन्यवाद स्वरूप दो सोरठे प्रस्तुत किये-
होता हिन्दू हतास, नमतो जे राणा नृपत।
सबल फता साबास, आरज लाज राखी अजाँ।।1।।
करजन कुटिल किरात, ससक नृपत ग्रहिया सकल।
सिंह रूप फतमल सबल।।2।।
चेतावणी के चूंगटियों की वास्तविक भूमिका
चेतावणी के चूंगटिये नामक काव्य की रचना ठाकुर केसरीसिंह बारहठ ने ई. 1902 में की थी। इस घटना के 51 वर्ष बाद बारहठ के दामाद ईश्वरदान नेगटिया ने शोध पत्रिका में एक लेख प्रकाशित कराया जिसमें उक्त काव्य की भूमिका का उल्लेख इस प्रकार किया गया था कि इन दोहों को पढ़कर ही महाराणा फतहंिसंह ने दिल्ली पहुंचकर भी दिल्ली दरबार में भाग नहीं लेने का निर्णय लिया। इस पर तत्कालीन महाराणा भूपालसिंह ने अपने गृहमंत्री मेजर जनरल राव मनोहरसिंह बेदला और पुरोहित देवनाथ को निर्देश दिये कि वे इसकी सच्चाई का पता लगायें। इन दोनों अधिकारियों ने मेवाड़ राज्य के गोपनीय दस्तावेजों की जांच की किंतु उनमें इस तरह का कोई उल्लेख नहीं पाया गया। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकाला गया कि बारहठजी ने अपनी नामवरी के लिये ऐसा प्रचार किया था, ऐसा वास्तव में हुआ नहीं था।
महाराणा तो मेजर पिन्हे के साथ मिलकर पहले ही पूरी योजना तैयार कर चुके थे तथा पुत्र की बीमारी का कारण बताते हुए, दरबार में सम्मिलित न होने की छूट प्राप्त करने हेतु वायसराय को पत्र लिख चुके थे।
Continue …….