कर्नल टॉड ने हल्दीघाटी युद्ध को अत्यंत महत्त्व देते हुए इसे मेवाड़ की थर्मोपेली और दिवेर युद्ध को मेवाड़ का मेरथान लिखा है।[1] आधुनिक काल में कर्नल टॉड को ही हल्दीघाटी युद्ध को प्रसिद्ध करने का श्रेय जाता है। वास्तव में हल्दीघाटी का युद्ध कई प्रकार से थर्मोपेली के युद्ध से बढ़-चढ़कर था।
थर्मोपेली के युद्ध में यूनानवासियों की हार तथा लियोनिडास की मृत्यु हुई थी जबकि हल्दीघाटी के युद्ध में मेवाड़वासियों की विजय हुई थी तथा महाराणा प्रताप दीर्घकाल तक सुखपूर्वक जिया था। थर्मोपेली के युद्ध में यूनानवासियों ने लियोनिडास को धोखा दिया था किंतु हल्दीघाटी के युद्ध में किसी मेवाड़वासी ने प्रताप से धोखा नहीं किया था।
थर्मोपेली, उत्तरी और पश्चिमी यूनान के बीच एक संकरी घाटी है जिसके बीच की भूमि सपाट है। ई.480 में ईरान के बादशाह जर्कसीज ने बड़े सैन्य दल के साथ यूनान देश पर आक्रमण किया, उस समय उस देश में भी हिन्दुस्तान की तरह अनेक छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्य थे, जिन्होंने मिलकर अपने में से स्पार्टा के वीर राजा लियोनिडास को थर्मोपेली की घाटी में 8000 सैनिकों सहित ईरानियों का सामना करने के लिये भेजा।
ईरानियों ने कई बार उस घाटी को जीतने का प्रयास किया परंतु हर बार उन्हें बड़े नर संहार के साथ पराजित होकर लौटना पड़ा। अंत में एक विश्वासघाती पुरुष की सहायता से ईरानी लोग पीछे से पहाड़ पर चढ़ आये। लियोनिडास ने अपनी सेना में से बहुत से सिपाहियों को ईरानियों के पक्ष में मिल जाने के संदेह में केवल 1000 विश्वासपात्र योद्धाओं को अपने पास रखा और शेष को निकाल दिया। लियोनिडास अपने सिपाहियों सहित लड़ता हुआ मारा गया। उसकी सेना में से केवल एक सैनिक जीवित बचा जिसने इस युद्ध का विवरण यूरोपवासियों को बताया।
[1] जेम्स टॉड, पूर्वोक्त, भाग-1, पृ. 407.