चेटक, महाराणा प्रताप को हल्दीघाटी से बाहर तो निकाल लाया किंतु मानसिंह के हाथी की सूण्ड में बंधी तलवार से एक पैर विक्षत हो जाने के कारण चेटक के लिये एक कदम भी चलना कठिन हो रहा था। इस पर भी स्वामिभक्त चेटक अपने स्वामी को पीठ पर उठाये, हवा की गति से पहाड़ों पर सरपट दौड़ा चला जा रहा था।
अरावली की ऐसी कौनसी पर्वतीय उपत्यका अथवा वीथी थी जिससे चेटक अनजान हो! वह रात के अंधेरों में भी इन पहाड़ियों में दौड़ते हुए कई कोस की यात्रा पूरी कर सकता था किंतु आज की बात अलग थी। आज वह घायल था। कोई और अश्व होता तो कभी का बैठ जाता किंतु चेटक को तो स्वामिभक्ति की ऐसी मिसाल स्थापित करनी थी जिसे मानव सभ्यता के रहते भुलाया न जा सके। इसलिये वह अपनी चोट की परवाह किये बिना बस दौड़ता ही जा रहा था।
अचानक एक चौड़ा नाला सामने आया। महाराणा ने चेटक ने ऐड़ लगाई ताकि नाला पार हो जाये। बरसों से प्रताप के सानिध्य में रहने के कारण चेटक जानता था कि इस नाले के पार होते ही उसका स्वामी सुरक्षित हो जायेगा। अतः उसने पूरी शक्ति झौंक दी। घायल चेटक ने नाला तो पार कर लिया किंतु नाला पार करते ही वह भूमि पर गिर गया। सामने ही शिवालय था। चेटक ने अंतिम बार अपने स्वामी का मुख देखा और प्राण त्याग दिये। महाराणा के शोक का पार न था। उसके स्वामिभक्त अश्व ने कर्त्तव्य निर्वहन करते हुए उसकी आंखों के समक्ष अपना प्राणोत्सर्ग कर दिया था।
हल्दीघाटी से लगभग दो मील दूर बलीचा गांव के निकट एक नाले के पास वि.सं.1408 (ई.1351) में बने हुए शिवालय के निकट चेटक का देहांत हुआ, जहाँ आज भी उसका चबूतरा[1] बना हुआ है। [2]
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[1] चेटक का पुराना चबूतरा नष्ट हो जाने के बाद उसके स्थान पर नया चबूतरा बनाया गया। इस चबूतरे पर चेटक की पूजा के निमित्त, पुजारियों को उदयुपर राज्य की ओर से बहुत सी भूमि दी गई थी जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनके अधिकार में चली आती थी।
[2] टॉड ने हल्दीघाटी से महाराणा के लौटने का वर्णन करते हुए लिखा है कि जब महाराणा अपने घायल घोड़े पर सवार होकर जा रहा था, तब दो मुगल सरदारों ने उसका पीछा किया। चेटक के घायल होने के कारण वे राणा के निकट पहुँच गये। वे उस पर प्रहार करने ही वाले थे कि पीछे से मेवाड़ी भाषा में आवाज आई- ‘ओ नीला घोड़ा रा असवार।’ प्रताप ने मुड़कर देखा तो अपना भाई शक्ता घोड़े पर आता हुआ दिखाई दिया। शक्ता व्यक्तिगत द्वेष के कारण प्रताप को छोड़कर अकबर की सेवा में चला गया था और इस युद्ध में भी वह अकबर की तरफ से लड़ा था परन्तु दो सबल मुगल सवारों को अपने घायल भाई का पीछा करते हुए देखकर उसके दिल में भ्रातृ-प्रेम उमड़ पड़ा जिससे वह उनके पीछे हो लिया और उन्हें अपने भाले से मार डाला।
दोनों भाई एक दूसरे से गले लगकर मिले। वहीं घायल चेटक मर गया जहाँ उसका चबूतरा बनाया गया। फिर शक्ता ने उसे अपना घोड़ा दिया। शक्ता वहाँ से सलीम के खानगी डेरे पर गया और उसने हंसकर कहा कि राणा प्रताप ने अपना पीछा करते हुए दो मुगल सवारों के साथ मेरे घोड़े को भी मार डाला है। सलीम के अभयदान देने पर उसने सत्य घटना कह सुनाई। सलीम ने भी अपने वचन को तो पाला किंतु उसे दरबार से निकाल दिया और आगे से शक्तावतों का अपने यहाँ आना बंद कर दिया। (जेम्स टॉड, एनल्स एण्ड एण्टिक्विटीज ऑफ राजस्थान, विलियम क्रुक द्वारा सम्पादित, जि. 1, पृ. 394-95.)
इस युद्ध से 100 वर्ष बाद बने हुए राजप्रशस्ति महाकाव्य में लिखा है कि जब मानसिंह ने दो मुगलों को महाराणा का पीछा करने के लिये भेजा तो शक्तिसिंह भी मानसिंह की आज्ञा लेकर उनके पीछे गया। उसने प्रतापसिंह को आवाज दी कि ओ नीले घोड़े के सवार पीछे तो देखो। महाराणा ने पीछे देखा तो मुगल दृष्टिगोचर हुए, फिर दोनों भाइयों ने उनको मार डाला और महाराणा ने शक्तिसिंह से कहा कि तेरे वंशज राणाओं को प्रिय होंगे। (सर्ग 4, श्लोक 26-30).
ओझा ने उपरोक्त सम्पूर्ण वृत्तांत को मिथ्या ठहराया है क्योंकि शक्तिसिंह तो अपने पिता उदयसिंह के रहते ही मेवाड़ को छोड़कर अकबर की सेवा में गया था किंतु चित्तौड़ पर आक्रमण का विचार सुनते ही वापस भाग आया था। ओझा का यह भी मानना है कि अकबर इस बात को कदापि सहन नहीं करता कि हाथ आया हुआ महाराणा प्रताप, शक्तिसिंह के कारण जीवित बच जाये। सलीम का प्रकरण भी इसलिये गलत है कि इस युद्ध के समय सलीम की आयु केवल 2 वर्ष थी।