Friday, November 22, 2024
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किशनगढ़ की चित्रकला पर वल्लभ एवं निम्बार्क मतों का प्रभाव

किशनगढ़ की चित्रकला शैली विश्व भर में अपने अनूठेपन के लिये जानी जाती है। न केवल जनसमान्य में अपितु किशनगढ़ के राजवंश में भी चित्रकला के प्रति दृढ़ अनुराग रहा। यही कारण है कि जोधपुर एवं जयपुर जैसी बड़ी रियासतों के बीच में स्थित होते हुए भी किशनगढ़ जैसी अत्यंत छोटी रियासत में स्वतंत्र चित्रशैली का विकास हुआ। सौंदर्य की दृष्टि से किशनगढ़ के चित्र बड़े रोचक हैं।

पुराणों का प्रभाव

किशनगढ़ रियासत की स्थापना होने से पूर्व इस क्षेत्र की प्रजा पर अरावली की उपत्यका में स्थित पुराण प्रसिद्ध पिप्पलाद तीर्थ का व्यापक प्रभाव था। पिप्पलाद तीर्थ में निम्बार्क सम्प्रदाय की पीठ स्थापित होने पर वैष्णवों के इसी मत का प्रजा में प्रभाव हो गया।

वल्लभ सम्प्रदाय का प्रभाव

वल्लभ सम्प्रदाय से राजपूताने का सम्बन्ध महाप्रभु वल्लभाचार्य के जीवनकाल में ही हो गया था। माना जाता है कि वे द्वारिका से लौटते हुए पुष्कर आये। आज भी पुष्कर का एक घाट वल्लभ घाट के नाम से जाना जाता है। इसके बाद से राजपूताना रियासतों में वल्लभ सम्प्रदाय का प्रभाव आरंभ हुआ। 9 अप्रेल 1669 को औरंगजेब ने उत्तर भारत के समस्त हिन्दू मंदिरों को गिराने के आदेश दिये। इससे मथुरा, वृंदावन तथा अन्य स्थानों के मंदिरों के पुजारी अपने आराध्य देवों की प्रतिमाओं को लेकर राजपूताने की रियासतों में पलायन करने लगे।

वल्लभ सम्प्रदाय के गिरिराज मंदिर के गुंसाई दामोदर अपने चाचा गोविन्द एवं अन्य पुजारियों को साथ लेकर 29 सितम्बर 1669 को गोवर्धन से चले। वे आगरा, बूंदी, कोटा एवं पुष्कर होते हुए किशनगढ़ पहुंचे। किशनगढ़ के महाराजा मानसिंह ने ‘पीताम्बर की गाल’ में भगवान को पूर्ण भक्ति सहित विराजमान करवाया और विविधत् उनकी पूजा की।

यहाँ से श्रीनाथजी जोधपुर राज्य के चौपासनी गांव होते हुए मेवाड़ में सिहाड़ गांव पधारे। श्रीनाथजी के आने से राजपूताना की समस्त रियासतों में ब्रज की संस्कृति का युगांतरकारी प्रभाव पड़ा। मेवाड़ रियासत में महाराणा ने शैव गुरु के साथ-साथ वैष्णव गुरु भी स्वीकार किया।

जोधपुर तथा किशनगढ़ के राजवंश तो गोकुलिये गुसाईंयों के शिष्य हो गये तथा वल्लभ सम्प्रदाय को ही मानने लगे। इन रियासतों में गोकुलिये गुसाईंयों का बहुत जोर था। किशनगढ़ वल्लभ सम्प्रदाय के प्रमुख केन्द्रों में से था इसलिये किशनगढ़ के साहित्य, संगीत एवं चित्रों यहाँ तक कि पूरी संस्कृति पर उसका व्यापक प्रभाव हुआ।

वल्लभाचार्य ने राधा को श्री कृष्ण की आत्मशक्ति कहा है। इसलिये वह श्रीकृष्ण से अभिन्न है। यही कारण है कि वल्लभाचार्य ने राधा कृष्ण की प्रेम लीला को भक्ति के सर्वोत्कृष्ट रूप में स्वीकार किया। उन्होंने पुष्टि मार्ग में बाल, दाम्पत्य और परकीय कान्ता, इन तीनों भावों का समावेश किया जिन्हें ब्रजांगना, गोपी और गोपांगना की भावनाओं से स्पष्ट किया गया है।

श्री नृत्य गोपाल के दो स्वरूप हैं- छोटा श्याम स्वरूप तथा बड़ा बलराम स्वरूप। किशनगढ़ रियासत के संस्थापक महाराजा किशनसिंह (1605 से 1615 ई.) ने दोनों स्वरूपों को अपने माथे पर धारण किया। उसका पौत्र महाराजा रूपसिंह (1644-1658 ई.) गोपीनाथजी का दीक्षित शिष्य था। गोपीनाथ महाप्रभु वल्लभाचार्य के प्रपौत्र (विट्ठलनाथजी के सबसे छोटे पुत्र) थे।

गोपीनाथ ने 1647 ई. में महाराजा रूपसिंह को उपदेश दिया था। इस उपदेश से राजा अत्यधिक भाव विभोर हुआ। रात्रि को स्वप्न में श्रीनाथजी ने राजा को आदेश दिया कि मेरे विग्रह को अपने घर में स्थापित करे। महाराज ने इस स्वप्न की चर्चा गोपीनाथ से की। गोपीनाथ ने इस समस्या का समाधान निकाला। उन्होंने श्रीनृत्यगोपाल के स्वरूप को श्री कल्याणरायजी की गोद में पधरा दिया जिससे श्री नृत्य गोपाल गोद के ठाकुर कहलाये, परिणामस्वरूप यह मूर्ति महाराज के साथ जहां वह जाते, साथ जाती थी।

वल्लभाचार्य के पुष्टि मार्ग का मूलमंत्र है- मैं श्रीकृष्ण की शरण हूँ। सहस्रों वर्षों से मेरा श्री कृष्ण से वियोग हुआ है। वियोग जन्य तप और क्लेश से मेरा आनंद तिरोहित हो गया है। अतः मैं भगवान श्रीकृष्ण को देह, इंद्रिय, प्राण, अंतःकरण, स्त्री, गृह, पुत्र, वित्त और आत्मा सब कुछ समर्पित करता हूँ। हे कृष्ण मैं आपका ही दास हूँ और आपकी शरण में हूँ। किशनगढ़ के राजवंश पर वल्लभाचार्य के पुष्टि सम्प्रदाय का इतना अधिक प्रभाव था कि किशनगढ़ के कई राजा राजपाट और जीवन के प्रति वैराग्य का भाव रखते थे।

निम्बार्क सम्प्रदाय का प्रभाव

निम्बार्क सम्प्रदाय वैष्णव मत का प्रमुख सम्प्रदाय है। किशनगढ़ रियासत के सलेमाबाद कस्बे में स्थित निम्बार्क सम्प्रदाय के मंदिर में विराजित राधा-माधव के विग्रह को ‘गीत गोविंद’ के रचयिता जयदेव अपने सिर पर धरकर मथुरा लाये थे। वह मथुरा के पास गोवर्द्धन में गोविंद कुण्ड में पड़ी हुई थी। वहाँ से गोविन्द शरण के द्वारा राधा माधव निम्बार्क तीर्थ लाये गये। निम्बार्क सम्प्रदाय में राधा-कृष्ण की उभयमयी मूर्ति की उपासना का विधान है। सावंतसिंह के इस पद पर निम्बार्क मत का प्रभाव स्प्ष्ट रूप से देखा जा सकता है-

कहा है परायो सब दीसत ही राधे ही को,

बिन ही विचारै झूंठे वचन उचारे जू

राधे ही की भूमि यह राधे ही के खग मृग

राधे ही को नाम रहै, सांझ सकारे जू।।

राधे ही के सरवर, तरवर हैं राधे जू के,

राधे के ही फूल फल नागर निहारे जू

राधे की दुहाई फिरै राधे ही को वृंदावन

तुम कौन लला बीच हटकनि हारे जू।

किशनगढ़ की चित्रकला शैली का आरंभ

यह कहना कठिन है कि किशनगढ़ शैली का पहला चित्र कब बना किंतु यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि 17वीं शताब्दी के अंत में किशनगढ़ में कुशल चित्रकार, चित्र बना रहे थे। महाराजा हरिसिंह (1628-1644 ई.) कला और साहित्य का प्रेमी था। उसका कला प्रेम उसके द्वारा बनाये गये चित्रों में प्रकट होता है। उसके बनाये हुए चित्र मुगल शैली से प्रभावित हैं।

महाराजा रूपसिंह (1644-1658 ई.) भी चित्रकला का प्रेमी था। जब बलख और काबुल विजय के बाद दिल्ली आया तब शाहजहाँ ने उसका बड़ा सम्मान किया और उससे पुरस्कार मांगने को कहा। इस पर महाराज ने बादशाह से महाप्रभु वल्लभाचार्य का वह चित्र मांगा जो सिकन्दर लोदी ने किसी दक्ष चित्रकार को महाप्रभु के समक्ष बैठाकर बनवाया था। इस चित्र को पाने की अभिलाषा महाराजा के मन में बहुत दिनों से थी जो इस प्रकार पूरी हुई।

महाराजा मानसिंह (1658-1706 ई.) के समय के कलाकारों की कृतियां आज भी देखी जा सकती हैं। 1694 ई. में बना राजकुमार राजसिंह का एक चित्र दृश्टव्य है जिसमें राजकुमार को घोड़े पर सवार होकर काले हिरण का शिकार करते हुए दिखाया गया है। इस चित्र के पीछे एक लेख भी अंकित है।

इस चित्र पर भी मुगल प्रभाव स्पष्ट लक्षित किया जा सकता है। इस समय के चित्रों में लम्बी अंगुलियां बनाई जाती थीं। इन्हीं दिनों में बनी राजा सहसमल की पेण्टिंग में भी प्राचीन समय की संस्कृति के प्रभाव को देखा जा सकता है। किषनगढ़ की चित्रकला को वैशिष्ट्य प्रदान करने में महाराजा राजसिंह (1706-1748 ई.) का बहुत बड़ा योगदान है।

किशनगढ़ शैली का समृद्धि काल

किशनगढ़ शैली का समृद्धि काल महाराजा सावंतसिंह (1748-1764 ई.) के समय से प्रारंभ होता है जिसमें नागरीदास की वैष्णव धर्म के प्रति श्रद्धा, चित्रकला में रुचि और उसकी प्रेयसी बणीठणी से प्रेम का बड़ा हाथ रहा है। संत प्रकृति भावुक मन, संगीतमय वातावरण में पले होने के कारण पिता की काव्यात्मक चित्र दृष्टि को आत्मसात करके सावंतसिंह ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम शब्द और चित्रों को बनाया।

अति भावुकता के कारण वह सदैव कृष्ण भक्ति में ही मग्न होकर काव्य और चित्र सृजन करने को तत्पर हुआ और वल्लभाचार्य की भक्तिमयी चित्रण परम्परा को आगे बढ़ाया। उसके द्वारा बनाये गये चार रेखांकन किशनगढ़ दरबार के निजी संग्रह में उपलब्ध हैं। जयपुर पोथीखाना के दो चित्रपटों में नागरीदास और बणीठणी चित्रित हैं। कृष्ण भक्ति में नागरीदास का व्यक्तित्व पूर्ण रूप से मुखरित हुआ है।

उसकी प्रेरणा से किशनगढ़ शैली के चित्रों का साहित्यिक आधार ठोस एवं सशक्त बना। तत्कालीन धर्मिक भावना ने काव्य को और काव्य ने चित्रकला को इस प्रकार प्रभावित किया कि काव्य और चित्रकला का यह पारस्परिक सम्बन्ध विशेष रूप से चित्रों में स्पष्ट हुआ क्योंकि दोनों ही मनुष्य की सौन्दर्यानुभूति से प्रेरित होते हैं।

महाराजा सांवतसिंह श्रीकृष्ण भक्त तथा चित्रकला का ज्ञाता था और कला-प्रेमी नागरीदास के नाम से प्रसिद्ध हुआ। नागरीदास के कारण ही किषनगढ़ के चित्रों को नई पहचान मिली। सांवतसिंह के समय में निहालचंद बड़ा चित्रकार हुआ जिसने बनी-ठनी के चित्र को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलवाई।

सांवतसिंह ने ही निहालचंद को कृष्ण और राधा के चित्र बनाने के लिये प्रेरित किया। किषनगढ़़ चित्रकला की उन्नति तथा विकास का श्रेय कवि नागरीदास को जाता है। उसकी साहित्यक अभिरुचि और कला प्रेम ने चित्रकला के ऐसे दुर्लभ उदाहरण प्रस्तुत किये जो भविष्य में संसार की चित्रकला का मार्ग प्रषस्त करते रहेंगे।

नागरीदास के कलात्मक व्यक्तित्व ने किशनगढ़ शैली को एक नवीन मोड़ दिया। उसमें रूप सौंदर्य के प्रति अपूर्व जिज्ञासा के साथ ही भावुक हृदय की भक्ति भावना भी थी। नागरीदास राजा होते हुए भी राज्य लिप्सा से बहुत दूर रहे। गृहस्थ होते हुए भी उन्होंने योगी की तरह जीवन व्यतीत किया। किशनगढ़ शैली में प्राण फूंकने वाले नागरीदास महान रसिक, भावुक कवि, कला मर्मज्ञ तथा राधा माधव युगल रूप के भक्त थे।

किशनगढ़ चित्र शैली की विशेषतायें

किशनगढ़ चित्रशैली में बनी पुरुषों की आकृतियों में उभरा हुआ ललाट, पतले अधर, तीखी नासिका, काली रेखाओं से युक्त कमलकार आँखें, लम्बी भुजाएं, कोमल अंगुलियां, ऊँचे कंधे, छरहरा शरीर, खुले केश, मोतियों से सजी हुई पेच बंधी सफेद पगड़ी, कानों में मुक्ताफल, मणिमालाओं से आच्छादित कंठ तथा दुपट्टे से सुशोभित क्षीण कटि प्रदर्शित की जाती थी।

नारी आकृतियों में कटि तक फैली केशराशि, काजल की घनी किंतु सुंदर रेखा से युक्त कमल नयन, चमेली की पांखुरियों जैसे अधर, नुकीली चिबुक, तीखी भृकुटी, पतली कमर, लहंगा, कंचुकी से ढका सुंदर शरीर, हाथ में अर्द्धविकसित कमल, अलंकारों से सुसज्जित शरीर, चित्रित किये जाते थे। रंग संयोजन की दृष्टि से भी किशनगढ़ की चित्रशैली विशिष्ट है। हरे, स्लेटी, गुलाबी, लाल, नीले, रंगों को विरोधात्मक ढंग से चित्रित किया गया है। किशनगढ़ के लघु चित्रों की रंग योजना भी महत्व रखती है।

इन चित्रों की विषय वस्तु में प्रणय निवेदन, नीले वस्त्रों को धारण करके संगीत का आनंद उठाती हुई राधा, गोपियों के साथ नृत्य करते श्रीकृष्ण, राधा का दुपट्टा पकड़े कृष्ण, राधा को चमेली की माला भेंट करते कृष्ण, कमल पुष्प शैय्या पर विराजमान राधा-कृष्ण, राधा को कृष्ण का संदेश थमाते हुए दूती, नायक नायिकाओं के चित्र, होली, दीपावली एवं सांझीलीला आदि उत्सव, शिकार आदि सम्मिलित हैं।

राधा-माधव के अतिरिक्त कुछ चित्र सीता-राम के भी हैं। इन चित्रों में प्रकृति चित्रण को प्रधानता दी गई है। किशनगढ़ शैली की वेषभूषा फर्रूखसीयर कालीन है।

किशनगढ़ शैली पर वल्लभ सम्प्रदाय का प्रभाव

किशनगढ़ की चित्रकला पर वल्लभ सम्प्रदाय का प्रभाव विशेष स्थान रखता है। वल्लभाचार्य ने स्वयं कहा है कि त्याग से, श्रवण, कीर्तिनादि साधनों से प्रेम का बीज हृदय में जमता है। इस भाव को आत्मसात करते हुए किशनगढ़ के चित्रकारों ने चित्रण के लिये कृष्ण भक्ति को ही अपनी तूलिका का आधार बनाया। चूंकि महाप्रभु वल्लभाचार्य स्वयं चित्रकार एवं चित्र प्रेमी थे, अतः चित्रकला में निपुण होना तब आचार्य परम्परा के अनुकूल एक आचरण हो गया था।

आँखों पर आध्यात्मिक प्रभाव

किशनगढ़ शैली के चित्रों में आँखें आध्यात्मिक चिन्तन की छाया से आच्छादित सी प्रतीत होती हैं। वे आंखें चाहे राधा-कृष्ण की हों या बणीठणी की। नागरीदास ने अपने काव्य और चित्रों में आंखों का वर्णन अधिक किया है।

किशनगढ़ शैली का आनंदप्रद आधार

भारतीय जीवन दर्शन का अंतिम छोर सहज है और वही सहज, मध्य युगीन भक्ति साहित्य में बहुत ही विशिष्ट रूप में अंकित हुआ है। वही सहजता मध्य युगीन संगीत और चित्रकला में अंकित हुई है। यही सहज भक्ति भाव हमें किशनगढ़ के चित्रों में स्पष्ट दिखायी देता है। भक्तों और उपासकों ने इसे भावनाओं के इन्द्रधनुषी रूप में संवारते हुए अपने जीवन में परम शांति का अनुभव किया।

यही रूप, आराधना द्वारा आराधक को पाने की वह चरम परिणति है जिसमें मन को श्रीकृष्ण के आनंदप्रद आधार पर केन्द्रित करने और उनकी भावनाओं में लीन रखने हेतु चित्र दर्शन का मार्ग कृष्ण भक्तों को भक्ति के ही एक मार्ग के रूप में लक्षित हुआ है। आगे चलकर तो चित्र दर्शन का मार्ग प्रत्यक्ष दर्शन तक के लिये उन्हें उचित प्रतीत होने लगा था।

प्रकृति चित्रण

किशनगढ़ के प्रकृति सम्बन्धी चित्रों में प्राकृतिक सुषमा जैसे काव्य रूप में समाई हुई है। दूधिया रात, रिमझिम वर्षा के अवशेष जो भवनों के मध्य दिखाये गये हैं, सघन कुंजों से झांकते विशाल महल, सुखद सरोवर की लहरों से अठखेलियां करती नौकायें, सुंदर कमल दलों से ढंके जलाशय, पक्षियों और वृक्षों के लालित्यपूर्ण लतापत्रों की सघनता, प्रातः और सांध्यकालीन बादलों का सुंदर सिंदूरी चित्रण ही काव्यमय पृष्ठभूमि का साक्षी है।

अनंत सौंदर्य का सृजन

संयोजन की दृष्टि से किशनगढ़ के चित्र एक विशाल काव्य चित्र से प्रतीत होते हैं जिसमें प्रकृति के सौंदर्य को बहुत ही सहजता से चित्रित किया गया है। वह चित्र चाहे कृष्ण-राधिका का होली खेलते हुए हो, आपसी संवाद का हो, नौका विहार का हो, सघन कुंज का हो, सभी में अनंत सौंदर्य का सृजन किया गया है। इन चित्रों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि चित्रकार की दृष्टि भक्ति में इतनी रची बसी थी कि वह प्रकृति के आध्यात्मिक सौन्दर्य का आनंद लेता था।

 इस शैली के आलेखन तथा तूलिका की गतिशीलता को दृष्टि पथ पर रख कर देखें तो स्वर्ग को भी विमुग्ध कर देने वाली इन झाँकियों में कल्पना की ऐसी परादृष्टि है कि पार्थिव जगत में ही बैठकर हम उसका रसपान कर लेते हैं।

सार रूप में यह कहा जा सकता है कि अपनी रसमयी मनोहारी रंग योजना, आकर्षक एवं गतिमान रेखा-सौंदर्य तथा लावण्यमय संयोजन वैशिष्ट्य के कारण किशनगढ़ शैली के चित्र न केवल भारत में वरन् विश्वभर में प्रसिद्ध हैं। काव्य और कला का जो संगम हम किशनगढ़ शैली में पाते हैं वह अद्वितीय है।

किशनगढ़ शैली के कतिपय विशिष्ट चित्र

किशनगढ़ के कलाकारों को भक्तिभाव ही चित्र और काव्य के लिये सहज लगा और कई चित्र पूजा अर्चना के बनते गये जिनमें प्रमुख चित्र राजा नागरीदास की उपासना 1739 ई. का है। यह चित्र भक्ति भाव की दृष्टि से बहुत ही श्रेष्ठ है। इसमें नागरीदास को अपने महल में प्रातःकालीन पूजा करते हुए दिखाया गया है।

पास ही पूजा की सामग्री रखी हुई है। बणीठणी को भी हाथों में फूलों की माला लेकर पूजा करने के लिये आते हुए दर्शाया गया है। उसके वस्त्रों और चेहरे पर ताजगी है। उसे साड़ी पहने हुए दिखाया गया है। पर्दे, फर्श, आदि पर सुंदर अलंकरण किया हुआ है। स्थापत्य सादगी लिये हुए है। प्राकृतिक वातावरण बहुत ही सहज और शांत है। वृक्षों पर बंदरों को दिखाया गया है। बीच में तुलसी का पौधा है, उस पर फूलों की माला चढ़ी हुई है।

बणीठणी के पीछे कुछ सखियां पूजा की अन्य सामग्री लिये हुए दिखायी गई हैं। महलों की दीवारें सफेद रंग की दिखाई गई हैं। वस्त्रों में पीला रंग प्रदर्शित किया गया है। इस चित्र में नागरीदास को गौरवर्ण का दर्शाया गया है।

एक अन्य चित्र ‘राजा सावंतसिंह की पूजा और बणीठणी’ ई. 1740 का है। इस चित्र में गोपिकाएं नहीं हैं और सामने खिड़की में कोई आकृति नहीं दिखायी गई है। बणीठणी पीले रंग की साड़ी पहने फूलों की माला हाथ में लिये हुए है। सामने नागरीदास को माला फेरते हुए दिखाया गया है। अग्रभूमि में कमल दल चित्रित किये गये हैं। बीच में संगमरमर का बना फुहारा दिखाया गया है।

इस चित्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि नागरीदास को श्यामवर्णी दिखाया गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जिस समय यह चित्र बना उस समय राजा पूर्ण रूप से अपने आराध्य में रचबस गया था। आंखों को बहुत ही आध्यात्मिक बनाया गया है जो भक्ति द्वार तक पहुंचने का श्रेष्ठ माध्यम है। यहां तक कि चित्रकार को भी वे कृष्ण रूप में ही दिखाई दिये। तभी तो चित्रकार की तूलिका ने आध्यात्मिक सृजन कर भक्तिमय वातावरण रंगांे के माध्यम से प्रस्तुत किया।

कृष्ण और राधा की उपासना चित्र में कृष्ण और राधा को विशेष सिंहासन पर बैठे हुए दिखाया गया है। गोपिकाएं उनकी पूजा अर्चना के लिये फूल माला इत्यादि सामग्री लेकर आते हुए दिखाई गई हैं। पृष्ठभूमि में कदली तथा आम आदि वृक्षों को बनाया गया है। आराध्य युगल के रूप चित्रण में प्रकृति के नाना उपमानों का आश्रय लिया है। उन्होंने प्रकृति के साथ मानवीय भावों की सम्बद्धता चित्रित की है।

कृष्ण लीलाओं और प्रकृति की इस अद्भुत स्थिति के ही कारण उन्होंने कृष्ण के लीला धाम का अलौकिक रूप चित्रित किया है जो भक्तों की दृष्टि में लोकोत्तर आनंद प्रदान करने वाला है। चित्र को देखने से शांत रस और भक्ति रस की धारा के दर्शन होते हैं। यही चित्रकार की तूलिका और उसके आंतरिक भाव का सहज रूप है जो चित्रों की प्रमुख विशेषता है।

भारत की मोनालिसा

महाराजा राजसिंह की रानी बांकावती, बनीठनी को दिल्ली से तीन पैसे में खरीद कर लाई थीं। उस समय बनी ठनी की आयु केवल 10 वर्ष थी। वह संगीत एवं काव्य में पारंगत थी। उसे नागरीदास ने अपनी प्रेयसी बनाया तथा उसे राधाजी मानकर उसकी आराधना की थी।

उसके सौंदर्य को लक्ष्य करके नागरीदास ने बनीठनी के चित्र बनाये। निहाल चंद ने भी उसके रूप के आधार पर राधा का मौडल तैयार कर लिया था। इसकी अभिव्यक्ति हर चित्र में हुई।

इसे ऐरिक डिकिंस ने भारतीय मोनालिसा कहा। 5 मई 1973 को भारत सरकार ने निहाल चंद के बनाये चित्र बनीठनी पर डाक टिकट जारी किया जिसकी पचास लाख प्रतियां जारी की गईं। इस चित्र ने पूरे विश्व में कला प्रेमियों में हलचल मचा दी। उनका ध्यान भारतीय कला की ओर खिंचा। उसमें भी प्रमुख रूप से किशनगढ़ शैली विश्व पटल पर पुनः प्रतिष्ठिति हुई। एक बार फिर निहालचंद की तूलिका ने सदियों बाद विश्व में परचम लहराया।

इसी कारण पूरी दुनिया के कला प्रेमी एवं पर्यटक भारत खिंचे चले आते हैं। कुछ इतिहासकारों ने बनीठनी को नागरीदास की पासवान बताया है जबकि जयसिंह नीरज के अनुसार वह कभी भी नागरीदास की पासवान नहीं रही। वह अवश्य ही गायण और कवयित्री थी। बनीठनी का चित्रकला संसार में उतना ही आदरपूर्ण स्थान है जितना राधारानी और मोनालिसा का।

निहालचंद

किशनगढ़ शैली का समृद्धकाल सावंतसिंह और उसके समकालीन कलाकार निहाल चंद को ही जाता है। कलाकार समाज का दर्पण होता है। उसके आसपास जो घटित होता है, वह उसे ही चित्रित करता है।

सावंतसिंह ने निहालचंद तथा उसके पुत्रों- सीताराम और सूरजमल को अपने दरबार में नौकरी पर रखा। निहालचंद थे तो दरबारी चित्रकार किंतु उन्हें सानिध्य मिला नागरीदास का। वातावरण मिला भक्तिभाव का, फिर क्या था, आराधना की परत दर परत सृजित होती गई। भक्ति के लिये मानव मन के अनन्त भाव माध्यम हो सकते हैं।

निहालचंद ने सैंकड़ों चित्रों का सृजन किया। निहालचंद ने चित्रों में भक्तिभाव को सहज रूप में धारण करने का माध्यम नेत्रों को ही माना है। निहालचंद के बनाये चित्र बणीठणी को एरिक डिकिन्सन ने राजस्थान की मोनालिसा कहकर उसका आदर किया।

किशनगढ़ की चित्रशैली के इतिहास में महाराजा नागरीदास और चित्रकार निहालचंद का वही स्थान है जो कांगड़ा की शैली में महाराजा संसार चंद और उनके कलाकारों का है। नागरीदास और निहालचंद के चित्र स्वयं में एक शैली बन गये। इस शैली के अन्य प्रमुख चित्रकारों के नाम इस प्रकार हैं- भवानीदास, अमरचंद, सूरतराम, सीताराम, बदनसिंह, नानगराम आदि।

एरिक डिकिन्सन तथा कार्ल खण्डालावाला

किशनगढ़ की चित्रकला को प्रकाश में लाने का श्रेय एरिक डिकन्स तथा कार्ल खंडालावाल को जाता है। उनके प्रयासों से किशनगढ़ की चित्रकला की ख्याति विश्व के कई देशों तक पहुंची तथा विश्व भर के पर्यटक किशनगढ़ की ओर आकर्षित हुए।

एरिक डिकिन्सन लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य के व्याख्याता थे। वे भारतीय संस्कृति के महान प्रशंसक थे। वे यहां के खान-पान, ढीली पोशाक तथा हिन्दी कविता से भी बहुत लगाव रखते थे।

ई. 1943 में जब वे अजमेर के मेयो कॉलेज में शैक्षणिक भ्रमण के लिये आये तब उन्होंने किशनगढ़ राजघराने की चित्रकला के खजाने को भी देखा। राजाओं की पेंटिंग, व्यक्तिचित्र, और सामान्य चित्रों को देखकर वे उनसे सम्मोहित हो गये।

विषय वस्तु शारीरिक बनावट, रंग संयोजन आदि की दृष्टि से ये चित्र अन्य शैलियों से अलग थे। ऐरिक के प्रयत्नों से राष्ट्रीय संग्रहालय में कुछ चयनित चित्रों की प्रदर्शनी लगाई गई। तभी से किशनगढ़ की चित्रकला की देश-विदेशों में ख्याति फैल गई।

      -डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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