पश्चिमी राजस्थान में स्थित पल्लिका नगर के रहने वाले ब्राह्मण, पालीवाल कहलाए। पल्लिका को अब पाली नाम से जाना जाता है। मध्यकाल में पालीवाल ब्राह्मणों का बड़ा ही सम्पन्न समुदाय था। तेरहवीं शताब्दी के अंत में पश्चिम की ओर से होने वाले मुस्लिम आक्रमणों के कारण पालीवाल ब्राह्मणों का पाली नगर में रहना कठिन हो गया।
मुहम्मद गौरी ने जब ई.1192 में कन्नौज के राजा जयचंद पर आक्रमण किया था, तब बदायूं के राठौड़, राजा जयचंद की तरफ से लड़ने कन्नौज गए। जब जयचंद की सेना परास्त हो गई और जयचंद युद्ध में मारा गया तब मुहम्मद गौरी ने कन्नौज तथा बदायूं पर अधिकार कर लिया।
इस पर बदायूं के राठौड़, काली नदी के किनारे दुर्ग बनाकर रहने लगे। कुछ समय बाद बदायूं के राठौड़ों को वहाँ से भी खदेड़ दिया गया। इस पर राठौड़ों का वंशज सीहा अपने परिवार एवं साथियों को लेकर द्वारिका की यात्रा पर निकल गया।
सीहा गौ, ब्राह्मण, एवं स्त्रियों का रक्षक, शरणागत वत्सल एवं धर्मनिष्ठ राजा था। द्वारिका से लौटते हुए वह पाली में रुका। जब पालीवाल ब्राह्मणों को सीहा के आगमन की जानकारी हुई तो वे सीहा के समक्ष उपस्थित हुए। उन्होंने सीहा से अनुरोध किया कि वह पश्चिम से आक्रमण करने वाले मुसलमानों से हमारी रक्षा करे।
सीहा भी मुसलमानों से तंग आया हुआ था और उनसे दो-दो हाथ करके मन की निकालना चाहता था। सीहा को भी कहीं न कहीं तो पैर टिकाने के लिए स्थान की आवश्यकता थी ही, इसलिए उसने पालीवाल ब्राह्मणों का निमंत्रण स्वीकार कर लिया और वह पाली में रुक गया।
इस बार जब मुस्लिम आक्रांताओं ने बहुत बड़ी फौज के साथ पाली पर आक्रमण किया तब सीहा और उसके पुत्र आसथान ने उनका मार्ग रोका। सीहा के सैनिकों के साथ-साथ पालीवाल ब्राह्मण भी तलवार लेकर रणक्षेत्र में कूद पड़े। पाली नगर में बड़ा भयानक युद्ध हुआ। सीहा तथा पालीवाल ब्राह्मणों दोनों के लिए ही यह जीवन-मरण का प्रश्न था। इसलिए उन्होंने अंत तक मोर्चा नहीं छोड़ा।
स्थानीय ख्यातों के अनुसार इस युद्ध में एक लाख स्त्री एवं पुरुष या तो मारे गए या फिर उनके अंग-भंग हो गए। इस कारण इस युद्ध को मारवाड़ के इतिहास में लाख झंवर कहा जाता है। मृत ब्राह्मणों के जनेऊ तथा विधवा ब्राह्मणियों के चूड़ों से पाली नगर में एक चबूतरा बनाया गया जिसे धौला चौंतरा कहते थे।
सीहा पूरे 30 वर्ष तक मुस्लिम आक्रांताओं से लोहा लेता रहा। उसकी मृत्यु भी मुसलमानों से लड़ते हुए हुई। ब्राह्मणों का आाशीर्वाद सीहा को फला और उसके वंशजों ने पाली नगर से जालोर एवं सिवाना होते हुए मारवाड़ के रेगिस्तान में आगे बढ़ते हुए प्रबल राठौड़ साम्राज्य की स्थापना की।
उस काल में पालीवाल ब्राह्मणों के 84 गाँव जैसलमेर राज्य में भी थे। इनमें से मंडाई, धनवा, कुलधरा, खाभा, मुबार, ब्रज, लोणेला, काठोड़ी, मोढ़ा, सीतसर आदि अधिक प्रसिद्ध थे। जैसलमेर राज्य के पालीवाल भी बड़े समृद्ध और साधन सम्पन्न लोग थे। इन्होंने वर्षा से खड्डों में जल भर जाने वाले क्षेत्रों में कृषि करने में महारत प्राप्त की।
ये क्षेत्र पालीवालों के खड़ीन कहे जाते थे। जैसलमेर के पालीवालों ने अपने गाँवों में तालाब, सरोवर, बावड़ियां, कुएँ, मंदिर, छतरियां, चौकियां, देवलियां, धर्मशालाएं, यज्ञस्तंभ तथा बाग-बगीचे बनवाए। इनकी सम्पन्नता की कहानियां दूर-दूर तक प्रसिद्ध थीं।
स्थानीय ख्यातों के अनुसार ई.1815 में एक पालीवाल ब्राह्मण एक गाँव से दूसरे गाँव जा रहा था। उसे मार्ग में जैसलमेर राज्य के भाटी सामंतों ने लूट लिया। ब्राह्मण के साथ चल रही वृद्धा के पैरों में चांदी के कड़े थे। लुटेरों ने वे कड़े निकालने चाहे किंतु चांदी के कड़े नहीं निकले। इस पर भाटियों ने वृद्धा के पैर काटकर कड़े निकाल लिए।
ब्राह्मणों ने इस लूट और अत्याचार की शिकायत जैसलमेर के राजा मूलराज द्वितीय से की। उन दिनों जैसलमेर में शासन की वास्तविक शक्ति दीवान सालिमसिंह के पास थी। इसलिए ब्राह्मणों की कोई सुनवाई नहीं हुई। उल्टे उसने ब्राह्मणों पर कई तरह के कर लगा दिए तथा उन पर और अधिक अत्याचार किए। इससे तंग आकर ई.1815 की एक रात को पालीवालों ने चुपचाप जैसलमेर राज्य छोड़ दिया।
कहते हैं कि सालिमसिंह के अत्याचारों से तंग आकर जैसलमेर राज्य की आधी जनसंख्या राज्य से पलायन कर गई। सालिमसिंह ने अपार धन एकत्र किया तथा अपने लिए जैसलमेर, जोधपुर तथा बीकानेर में कई हवेलियां बनवाईं।
इनमें से जैसलमेर की हवेली मोतीमहल के नाम से जानी जाती थी। यह एक सात खण्डा विचित्र और ऊँचा भवन था। इस हवेली का शिल्प-सौंदर्य बेजोड़ था। इसके कंगूरों एवं झरोखों पर नाचते मयूर एवं कमल देखते ही बनते थे।
मूलराज द्वितीय के बाद गजसिंह जैसलमेर का महारावल हुआ। दीवान सालिमसिंह ने महारावल गजसिंह के लिए उदयपुर के महाराणा भीमसिंह से उसकी राजकुमारी रूपकुंवरि का हाथ मांगा। महाराणा भीमसिंह ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
महाराणा की तीन राजकुमारियों का विवाह होना था। महाराणा ने अपनी एक अन्य पुत्री का विवाह बीकानेर के शासक से तथा तीसरी पुत्री का विवाह किशनगढ़ के महाराजा से करना निश्चित किया। जब तीनों बारातें उदयपुर पहुँची तो जैसलमेर से आई बारात को देखकर लोगों में तरह-तरह की चर्चा हुई।
बीकानेर एवं किशनगढ़ से राठौड़ शासकों की बारातें बड़े लाव लश्कर एवं शान-शौकत के साथ आई थीं किंतु जैसलमेर का राजा एक साण्ड (मादा ऊंट) पर बैठकर आया था। उसके साथ केवल सात आदमी आए थे वे भी साण्डों पर सवार होकर आए थे। पूरे उदयपुर में यह बात फैल गई कि भाटी राजा देखने में तो बड़ा सुंदर और बहादुर है किंतु निर्धन जान पड़ता है।
जिस समय महारावल गजसिंह बारात लेकर उदयपुर के लिए रवाना हुआ था, उस समय दीवान सालिमसिंह उसके साथ नहीं था। जब सालिमसिंह को ज्ञात हुआ कि महारावल केवल सात आदमियों को लेकर उदयपुर चला गया है तो सालिमसिंह भी आनन-फानन में साण्ड पर सवार होकर उदयपुर पहुँचा।
उदयपुर जाकर जब सालिमसिंह ने उदयपुर के रनिवास में हो रही चर्चा को सुना तो सालिमसिंह ने महारावल की प्रतिष्ठा बचाने के लिए अपने प्रभाव का उपयोग किया और तत्काल ही अपनी थैली का मुँह खोल दिया। जब चंवरी बधाई, त्याग तथा विदाई की रस्में हुईं तो सालिमसिंह ने दोनों हाथों से सोने की मुहरें लुटाईं जिन्हें देखकर बीकानेर और किशनगढ़ ही नहीं उदयपुर वालों की भी आँखें खुली की खुली रह गईं।
जब विदाई के अवसर पर सालिमसिंह ने सोने की मुहरें लुटाईं तो बीकानेर तथा किशनगढ़ वालों ने जैसलमेर वालों पर तलवारें खींच लीं। इस पर महाराणा ने बीच-बचाव करके सालिमसिंह का पक्ष लिया।
महारावल गजसिंह अपने पिता की तरह सालिमसिंह का अनुशासन स्वीकार करने को तैयार नहीं था। उसने सालिमसिंह से छुटकारा पाने के कई प्रयास किए किंतु अपने बलबूते पर वह कुछ नहीं कर सका।
अंत में ई.1818 में उसने जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी से समझौता कर लिया तो महारावल की स्थिति कुछ मजबूत हुई। ई.1824 में महारावल ने अनासिंह नामक राजपूत को सालिमसिंह की हत्या के लिए तैयार किया तथा उसे एक जहर बुझी तलवार दी। अनासिंह ने छुपकर सालिमसिंह पर वार किया जिससे सालिमसिंह बुरी तरह घायल हो गया। कुछ दिनों बाद उसकी मृत्यु हो गई। सालिमसिंह की मृत्यु के बाद महारावल गजसिंह ने उसकी हवेली के तीन हिस्से उतरवाकर धरती पर रखवा दिए। कहा जाता है कि सालिमसिंह के घाव उपचार के कारण ठीक होने लगे थे किंतु उसके अत्याचारी स्वभाव से रुष्ट होकर उसकी पत्नी ने ही उसे जहर दे दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गई।
- डॉ. मोहनलाल गुप्ता