आयरलैण्ड से आए जॉर्ज टॉमस ने राजपूताने की रियासतों में मची कलह का लाभ उठाने का प्रयास किया किंतु इस प्रयास में असफल हो जाने के कारण अगस्त 1802 में उसे उत्तर भारत छोड़कर कलकत्ता की तरफ भागना पड़ा किंतु मार्ग में ही उसकी मृत्यु हो गई।
राजपूताना में स्थित डूंगरपुर एवं बांसवाड़ा रियासतों के राजकुल मेवाड़ के राजवंश में से ही अलग हुए थे। मेवाड़ का महाराणा उनके साथ अपने अधीनस्थ सरदारों की तरह व्यवहार करता था जबकि ये दोनों ही राज्य अपने आप को स्वतंत्र राज्य समझते थे तथा महाराणा को कर नहीं देना चाहते थे। इससे मेवाड़ के महाराणा इन दोनों राज्यों से कुपित रहा करते थे।
डूंगरपुर और बांसवाड़ा रियासतों में जोधपुर, जयपुर, उदयपुर, बीकानेर तथा कोटा रियासतों की भांति उन्नति नहीं हो पायी थी। अशिक्षा इस असमानता का कारण नहीं थी क्योंकि अशिक्षा की स्थिति सारे राजपूताने में एक जैसी ही थी। आदिवासी बहुल क्षेत्र डूंगरपूर एवं बांसवाड़ा इसलिए पीछे रह गए थे क्योंकि इन रियासतों की शासन व्यवस्था बहुत कमजोर थी।
डूंगरपुर रियासत में नाप-तोल की भी कोई पक्की व्यवस्था नहीं थी इस कारण व्यापारी लोग प्रजा को मनमाने ढंग से लूटते थे। महारावल शिवसिंह (ई.1730-1785) ने अपने काल में 55 रुपए भर का एक सेर बनाया तथा कपड़े नापने का गज निर्धारित किया। इस पर भी व्यापारी आम लोगों को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे।
ई.1784 में उदयपुर का महाराणा भीमसिंह विवाह करने के लिए ईडर गया। उस समय डूंगरपुर का महारावल शिवसिंह महाराणा की बारात में सम्मिलित हुआ। ई.1794 में महाराणा भीमसिंह अपने विवाह के लिए दूसरी बार ईडर गया। तब तक शिवसिंह की मृत्यु हो चकी थी तथा फतहसिंह डूंगरपुर का महारावल बन चुका था। फतहसिंह महाराणा की बारात में सम्मिलित नहीं हुआ। महाराणा ने डूंगरपुर को घेर लिया।
महारावल ने महाराणा को तीन लाख रुपये देने का रुक्का लिखकर दिया और स्वयं महाराणा की सेवा में उपस्थित हो गया। इसके बाद महाराणा भीमसिंह ने बांसवाड़ा को घेर लिया। बांसवाड़ा नरेश विजयसिंह ने अपने सरदार गढ़ी के चौहान जोधसिंह को महाराणा की सेवा में भेज दिया जिसने महाराणा को तीन लाख रुपये देने स्वीकार किए।
डूंगरपुर का महारावल फतहसिंह दिन-रात शराब के नशे में चूर रहता था। उसने झामा बखरिये के पुत्र पेमा को मंत्री बनाया जो झामा के समान ही अत्याचारी था। एक दिन शराब के नशे में महारावल फतहसिंह ने अपनी एक रानी को तलवार से मार डाला।
राजमाता मेड़तणी शुभकंवरी ने राज्य को बर्बादी से बचाने के लिए मंत्री पेमा को अपने विश्वास में लिया और अपने पुत्र महारावल फतहसिंह को महल में ही कैद कर लिया। इसके बाद राजमाता स्वयं राज्य-कार्य करने लगी। सरदारों को राजमाता का हस्तक्षेप अनुचित जान पड़ा और उन्होंने मंत्री पेमा की हत्या करने का षड़यंत्र रचा।
राज्य के सामंतों ने ऊंमा को इस कार्य पर नियत किया। ऊंमा उन्हीं दिनों शहर कोतवाल नियुक्त किया गया था। एक दिन ऊंमा कोतवाल के पद का सिरोपाव लेकर मंत्री पेमा के घर के झरोखे के नीचे से निकल रहा था। पेमा की दृष्टि उस पर पड़ी तो उसने ऊंमा को अफीम पीने के लिए बुला लिया।
ऊंमा तो यही चाहता था, उसने वहाँ पहुंचते ही पेमा पर तलवार का वार किया। पेमा ने भी मरते-मरते ऊंमा पर अपनी कटार का वार किया। ऊंमा घायल हो गया किंतु बच गया। पेमा के प्राण पंखेरू उड़ गए।
कुछ ही दिनों बाद सामंतों ने षड़यंत्र करके राजमाता को भी मार डाला। विद्रोही सामंतों ने राजमहल लूट लिया और जिसके जो हाथ लगा, उठा कर ले गया। कुछ सामंतों ने फतहसिंह को बंदीगृह से मुक्त करवाया।
गद्दी पर बैठते ही महारावल ने राजमाता को मारने वाले ठाकुर को पकड़कर मंगवाया तथा उसी स्थान पर उसका वध किया जिस स्थान पर ठाकुर ने राजमाता को मारा था। इसके बाद महारावल ने हत्यारे को पकड़ने वाले दुर्जनसिंह को ठाकरड़े का पट्टा दिया।
ई.1799 में महाराणा भीमसिंह ईडर के महाराजा गंभीरसिंह की बहिन चंद्रकुंवरी से विवाह करने के लिए तीसरी बार ईडर गया जहाँ से लौटते हुए उसने फिर से डंूगरपुर को घेर लिया। डूंगरपुर के महारावल ने 4 साल पहले महाराणा को तीन लाख रुपये देने का जो रुक्का लिखा था, उनकी वसूली अब तक नहीं हो सकी थी। इसलिए महाराणा ने इस बार डूंगरपुर से दण्ड वसूल किया।
इसके बाद महाराणा ने बांसवाड़ा को जा घेरा। वहाँ से भी दण्ड वसूलकर महाराणा भीमसिंह प्रतापगढ़़ के लिए रवाना हुआ। प्रतापगढ़ को भी भली भांति अपने ताबे में लाकर महाराणा ने उससे दण्ड वसूल किया और उसके बाद उदयपुर को लौट गया।
ई.1805 में दौलतराव सिंधिया ने उदयपुर को घेर लिया तथा उससे 16 लाख रुपये वसूल किए। उसने अपने सेनाध्यक्ष सदाशिव राव को डूंगरपुर भेजा। महारावल फतहसिंह पहले तो पहाड़ों में भाग गया और उसके बाद उसने सदाशिव राव को दो लाख रुपये लेकर चले जाने के लिए राजी कर लिया।
राज्यकोष में इतना पैसा नहीं था कि सदाशिव राव को दिया जा सके। इसलिए महारावल के आदमियों ने अपनी ही प्रजा को लूटकर यह रकम इकट्ठी की। इस पर नागर ब्राह्मणों ने नाराज होकर राज्य का त्याग कर दिया। इससे पहले दौलतराव सिंधिया बांसवाड़ा में बुरी तरह मार खा चुका था तथा उसे हार की चोट कसकती रहती थी इसलिए उसने बांसवाड़ा पर दुबारा हमला कर दिया।
बांसवाड़ा की सेना तीन महीने तक मराठों के छक्के छुड़ाती रही। अंत में दौलतराव ने बांसवाड़ा में प्रवेश किया और बांसवाड़ा को बुरी तरह लूटा।
इन्हीं दिनों डूंगरपुर, बांसवाड़ा तथा उदयपुर आदि कई रियासतों में सिंधी मुसलमानों तथा पठानों का आतंक फैल गया। ई.1812 में सिंधी खुदादाद खाँ ने डूंगरपुर के महारावल जसवंतसिंह को कैद कर लिया। बांसवाड़ा के महारावल ने अपनी सेना डूंगरपुर महारावल जसवंतसिंह की सहायता के लिए भेजी किंतु वह खुदादाद खाँ से परास्त हो गई।
अंत में मेवाड़ राज्य के थाणा ठिकाणे के रावत सूरजमल चूण्डावत ने प्रत्यक्ष युद्ध में खुदादाद खाँ को मार डाला तथा महारावल जसवंतसिंह ने फिर से डूंगरपुर पर अधिकार कर लिया।
उदयपुर के महाराणा भीमसिंह ने अपने सरदारों को दबाने के लिए अपनी सेना में सिंधी मुसलमानों तथा पठानों को बड़ी संख्या में रख लिया था। ये बड़े ही दबंग और झगड़ालू सैनिक हुआ करते थे तथा वेतन के लिए किसी भी राज्य की सेवा में चले जाया करते थे। ये किसी से भय नहीं खाते थे।
एक बार जब इन सिंधी मुसलमानों को समय पर वेतन नहीं मिला तो ये महाराणा भीमसिंह के महल पर चढ़ आए। जब उद्दण्ड सैनिकों ने महल की ड्यौढ़ी पर नियुक्त रक्षकों को मार डाला तो शोर सुनकर महाराणा भीमसिंह महल से बाहर आया तथा अकेला ही तलवार लेकर उद्दण्ड सैनिकों पर टूट पड़ा।
महाराणा पर तलवारें छा गईं किंतु वह घबराया नहीं और दृढ़ता पूर्वक तलवार चलाने लगा। उन दिनों कोटा राज्य का फौजदार झाला जालिमसिंह कोटा से निर्वासित होकर महाराणा भीमसिंह की सेवा में संलग्न था। महाराणा को अकेले ही लड़ता हुआ जानकर वह भी तलवार लेकर महाराणा की सहायता के लिए आ गया। बड़ी कठिनाई से सिंधी सैनिकों पर काबू पाया जा सका। बाद में जब ई.1818 में अंग्रेजों ने राजपूताना राज्यों से संधि की तब उसमें यह शर्त भी रखी गई कि कोई राजा, बिना अंग्रेजों की अनुमति के सिंधी, ईरानी, पठान, बलूच, फ्रैंच या पुर्तगाली को अपनी सेना अथवा राज्य की सेवा में नहीं रखेगा।