राठौड़ों और कच्छवाहों के बीच एक बार फिर नये सिरे से अविश्वास का सूत्रपात हो गया। फिर भी मरुधरानाथ ने जयपुर वालों से कुछ कहा नहीं और रिश्तेदारी के साथ-साथ मैत्री भी बनाये रहा।
अपने चालीस हजार सैनिक तैमूरशाह की सहायता के लिये सिन्ध की ओर रवाना करके मरुधरानाथ ने अपने वकील लालजी मेहता को जयपुर नरेश के पास भेजकर कहलवाया कि मराठों ने रूहेला को कैद करके दिल्ली पर अधिकार कर लिया है और वे दिनों-दिन जोर पकड़ते जा रहे हैं। आपके रोके बिना ये रुकेंगे नहीं। इस बारे में खूब अच्छी तरह विचार करके आप सावधान रहें। मुसलमान मराठों के पुराने दुश्मन हैं किंतु हिन्दुस्थान के मुसलमानों में से कोई भी मराठों से अधिक शक्तिशाली नहीं है। काबुल का बादशाह तैमूरशाह मराठों का दुश्मन है इसलिये हमने तैमूरशाह को बुलाने का विचार किया है। आप भी इस विचार विमर्श में सम्मिलित हों। हमें एक मत रहकर मराठों को नष्ट करना है।
जयपुर नरेश ने लालजी मेहता के प्रस्ताव पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। इस पर लालजी ने जयपुर रियासत के सामंतों एवं उमरावों को मराठों के विरुद्ध एकजुट होने के लिये निमंत्रण भेजे। जयपुर के लगभग सभी प्रमुख सामंतों ने लालजी के निमंत्रण का कोई जवाब नहीं दिया।
इस पर लालजी ने मरुधरानाथ को सूचित किया कि यह युग ही ऐसा है कि राजपूत सामंत और सरदार पूरी तरह राज्यभोग की लालसा में अंधे होकर बैठे हैं और एक-एक करके मराठों की दाढ़ के नीचे पिस रहे हैं। इनमें से किसी में इतनी दूरदृष्टि नहीं कि मराठों को उत्तरी भारत से निकालने के लिये एकजुट होकर पूरी शक्ति दिखा सकें।
जयपुर रियासत के सामंतों की ही तरह जयपुर महाराजा का जवाब भी निराश करने वाला था। महाराजा प्रतापसिंह गोलमोल और संदिग्ध शब्दावली से काम चलाता था। वह पहले भी तुंगा युद्ध तथा नजफकुली के मामले में अदूरदर्शिता दिखा चुका था।
इस समय जयपुर रियासत में महाराजा विजयसिंह और महाराजा प्रतापसिंह की संयुक्त सेना में दस हजार सैनिक थे। महादजी सिन्धिया के सैनिकों के साथ 1789 ईस्वी के श्रावण मास में हुई मुठभेड़ में मरुधरानाथ के ढाई सौ राठौड़ काम आये जबकि जयपुर वालों की तरफ से एक भी सिपाही नहीं मरा।
कुछ ही दिनों बाद इस संयुक्त सेना के साढ़े चार हजार राठौड़ सैनिक हैजे से मर गये। मरने वालों में उमरावों की संख्या एक हजार थी। आश्चर्य की बात यह रही कि कछवाहों का एक भी आदमी नहीं मरा। जयपुर वालों के ये लक्षण देखकर महारजा विजयसिंह का माथा ठनका और उसे जयपुर वालों पर कतई भरोसा न रहा।
राठौड़ों और कच्छवाहों के बीच एक बार फिर नये सिरे से अविश्वास का सूत्रपात हो गया। फिर भी मरुधरानाथ ने जयपुर वालों से कुछ कहा नहीं और रिश्तेदारी के साथ-साथ मैत्री भी बनाये रहा।