Thursday, November 21, 2024
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14. पांच हजारी जात

शाहजहाँ को यह देखकर हैरानी होती थी कि जिन मुगलों ने हिमालय की छाती रौंदकर न केवल कुंदूज, काबुल और कांधार को अपने घुटनों पर झुका रखा था, न केवल बिस्त, बलख, बुखारा और बदखशां मुगलों के कदमों में लोटते थे, अपितु ईरान के बादशाह शाह अब्बास तक की रातों की नींद छीन ली थी, वही मुगल अरावली के पहाड़ों में बैठे मुट्ठी भर सिसोदियों को अपने वश में नहीं कर सके थे!

शाहजहाँ के दरबार में पूरे हिन्दुस्तान के हिन्दू राजा साधारण जागीरदारों की तरह लकड़ी की बल्लियों के सहारे पीठ टिकाए हुए और रस्सी के फंदों से हाथ लटकाए हुए खड़े रहते थे किंतु अकेले सिसोदिए ही थे जिन्होंने अब भी लाल किले की दहलीज नहीं लांघी थी। एशिया भर के विभिन्न मुल्कों की बड़ी से बड़ी राजकुमारियां आज मुगलों के हरम में बांदियों की तरह पड़ी दिन गुजार रही थीं किंतु सिसोदियों की एक भी लड़की ने आज तक लाल किले के झाड़-फानूस नहीं देखे थे। वह अपने जीवन काल में सिसोदियों को भी अपने दरबार में रस्सियों का सहारा लेकर खड़े हुए देखना चाहता था।

उसकी दृष्टि अरावली की पहाड़ियों पर खड़े चित्तौड़ दुर्ग पर गई। इस दुर्ग को 1568 ईस्वी में शाहजहाँ के दादा अकबर ने महाराणा उदयसिंह से छीना था किंतु 1615 ईस्वी में शाहजहाँ के पिता जहाँगीर ने चित्तौड़ का दुर्ग फिर से गुहिलों को लौटा दिया था ताकि गुहिल राजकुमार कर्णसिंह, दोस्ती के स्तर पर ही सही, मुगलों का मनसब स्वीकार कर ले। इस समय कर्णसिंह का पुत्र राजसिंह चित्तौड़ का राणा था और वह मुगलों को टके भर का भी भाव नहीं दे रहा था। हालांकि शाहजहाँ अब काफी बूढ़ा हो चुका था और उसकी हर ख्वाहिश पूरी हो चुकी थी किंतु अब भी शाहजहाँ के मन की एक साध अधूरी थी। जैसे भी हो, जिस भी कीमत पर हो, आँखें बंद करने से पहले शाहजहाँ, महाराणा राजसिंह अथवा उसके पुत्रों को तख्ते ताउस के सामने, बल्ली का सहारा लेकर खड़े हुए देखना चाहता था।

इसलिए 1654 ईस्वी में बूढ़े शाहजहाँ ने एक बार फिर मुगलिया राजनीति की खूनी बिसात बिछाई। इस बार उसने इस बिसात पर सिसोदियों को मात देने के लिए दो खास मोहरे चुने। पहला मोहरा उसका अपना वजीर सादुल्ला खाँ था। शाहजहाँ ने उसे विशाल सेना लेकर चित्तौड़ पर आक्रमण करने के आदेश दिए। शाहजहाँ ने महाराजा रूपसिंह को दूसरे मोहरे के रूप में चुना। उसने महाराजा रूपसिंह को सादुल्ला खाँ के साथ चित्तौड़ के मोर्चे पर जाने को कहा। मुगलों की यह पुरानी नीति थी। कभी भी किसी मुसलमान सूबेदार या हिन्दू सेनापति को अकेले लाम पर नहीं भेजा जाता था।

शाहजहाँ ने रूपसिंह को चित्तौड़ के लिए रवाना करने से पहले दरबारे आम का आयोजन किया तथा उसमें महाराजा रूपसिंह को पांच हजारी जात और पांच हजार सवारों का मनसब देने की घोषणा की। किशनगढ़ के राजाओं के लिए चरमोत्कर्ष का क्षण आ पहुँचा था। अब किशनगढ़ का राजा भी आम्बेर के मिर्जा राजा जयसिंह, बीकानेर के राजा कर्णसिंह और मारवाड़ के महाराजा जसवंतसिंह के बराबर कद वाला हो गया था। अब उसका ओहदा मुगलिया सल्तनत में किसी भी हिन्दू सरदार से कमतर नहीं था।

हैरानी की बात थी कि मुगलिया सल्तनत में वजीर से लेकर प्यादे तक कोई नहीं जानता था कि जात और सवार का असली मतलब क्या है, लेकिन क्या मुसलमान और क्या हिन्दू, क्या तैमूरी लड़ाके और क्या चंगेजी शहजादे, सब अपनी-अपनी जात और अपने-अपने सवारों में बढ़ोत्तरी होते रहने का सपना रात-दिन देखते थे। यह व्यवस्था अकबर ने लागू की थी और शाहजहाँ के समय तक इसकी जड़ें काफी गहरी चली गई थीं।

ये मनसब ढाई सौ जात एवं सवार से शुरू होते थे किंतु कहाँ जाकर खत्म होते थे, कोई नहीं जानता था। अकबर ने सलीम को 12 हजार जात एवं सवारों का मनसब दिया था किंतु शाहजहाँ ने अपनी ताजपोशी के दिन दारा शिकोह को 60,000 जात एवं 40,000 सवार का मनसब दिया और दूसरे एवं तीसरे नम्बर के शहजादे शाहशुजा एवं औरंगज़ेब को 20,000 जात एवं 15,000 सवार का तथा चौथे शहजादे मुरादबक्श को केवल 15,000 जात एवं 12,000 सवार का मनसब दिया था।

किसी भी हिन्दू राजा को अब तक पांच हजार जात एवं सवार से अधिक का मनसब नहीं मिला था। महाराजा रूपसिंह आज, हिन्दुओं के लिए सुरक्षित सर्वोच्च जात एवं सवार के मनसब तक पहुँच गया था।

महाराजा रूपसिंह ने पांच हजार जात और सवार का मनसब तो ले लिया था तथा इस उपलब्धि पर वह मन ही मन गदगद भी था किंतु वह जानता था कि इस मनसब का पूरा-पूरा मूल्य उससे वसूल किया जाएगा।

मेवाड़ का महाराणा राजसिंह अत्यंत स्वाभिमानी एवं शक्तिशाली हिन्दू नरेश था। गुहिल, खुमांण, कुम्भा, सांगा और प्रताप के बाद राजसिंह को अपने स्वामी के रूप में पाकर अरावली की पहाड़ियाँ धन्यता का अनुभव करते नहीं थकती थीं। सादुल्ला खाँ और रूपसिंह के लिए राणा राजसिंह से टक्कर लेना उसी प्रकार कठिन था जिस प्रकार कच्छवाहा मानसिंह तथा आसफ खाँ के लिए था। फिर भी रूपसिंह को पहाड़ों में लड़ने का लम्बा अनुभव था तथा राजसिंह को अभी महाराणा की गद्दी पर बैठे केवल एक ही साल हुआ था। इस कारण सादुल्ला खाँ और रूपसिंह का साहस चित्तौड़ की तरफ मुँह करने का हुआ।

अरावली की पहाड़ियों से माथा टकराने पर एक आदमी का जो हाल हो सकता है, वही हाल सादुल्ला खाँ और रूपसिंह का हुआ फिर भी उन्होंने राजसिंह की राजधानी उदयपुर और चित्तौड़ दुर्ग के बीच का सम्पर्क काटकर, चित्तौड़ की रसद पंक्ति काट दी। कई महीनों की घेराबंदी और अथक भागमभाग के बाद किसी तरह रूपसिंह और सादुल्ला खाँ की नाक बची। एक बार फिर से मुगल सेनाएं चित्तौड़ दुर्ग में घुस गईं और शाहजहाँ की मुँह मांगी मुराद पूरी हुई।

रूपसिंह की वीरता से ही बादषाह चित्तौड़ पर अधिकार करने में समर्थ हो सका। चित्तौड़ विजय के बाद रूपसिंह एक फिर किशनगढ़ आ गया। उसकी छुट्टियाँ दिल्ली से मंजूर होकर आ गई थीं। किशनगढ़ पहुंचने पर महाराजा रूपसिंह ने बादशाह को लिखा कि वह किशनगढ़़ के पास खोड़ा नामक स्थान पर एक बड़ा किला बनाना चाहता है।

शाहजहाँ ने रूपसिंह को जवाब भिजवाया कि आपको खोड़ा में किला बनवाने की आवश्यकता नहीं है। हम मांडलगढ़ का दुर्ग आपकी जागीर में शामिल कर रहे हैं। माण्डलगढ़ का दुर्ग मूलतः मेवाड़ रियासत का हिस्सा था किंतु कच्छवाहा मानसिंह ने इसे मेवाड़ से छीनकर मुगलिया सल्तनत में शामिल किया था। उसके बाद से यह दुर्ग कई बार मेवाड़ियों और मुगलों के बीच आता-जाता रहा था।

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