Saturday, July 27, 2024
spot_img

15. भगवान वल्लभाचार्य की वापसी

‘शहंशाहे आलम, राजा रूपसिंह राठौड़ मुजरा अर्ज कर रहे हैं।’ दारा शिकोह ने बूढ़े और बीमार बादशाह की ख्वाबगाह में प्रवेश करके उसे सूचित किया।

शाहजहाँ कई दिनों से बीमार चल रहा था तथा तीन दिन से पेशाब आना भी बंद हो गया था। जीवन भर पराई स्त्रियों के साथ रमण करते रहने से उसे कोई यौन सम्बन्धी रोग हो गया था जिसके उपचार के लिए हकीमों ने उसे गरम तासीर वाली दवाइयां खिलाई थीं। इस कारण रोग में तो कमी आई थी किंतु बादशाह की पेशाब की नली में सूजन आ गई थी और पेशाब नहीं उतर रहा था। इस कारण वह अपने महल से उठकर दरबार में नहीं जा पा रहा था और हर समय अपनी ख्वाबगाह में पड़ा रहता था।

यौन सम्बन्धी रोग होने से इस बीमारी को दूसरे लोगों से गुप्त रखा गया था। शाही हकीम, शहजादा दारा शिकोह तथा शहजादी जहांआरा के अलावा किसी अन्य व्यक्ति को बादशाह के कक्ष में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी।

 फिर भी जब राजा रूपसिंह ने अपने आने की सूचना भिजवाई तथा बीमार शहंशाह के दर्शनों की इच्छा जाहिर की तो दारा ने पहले तो उसे मना कर दिया किंतु जब महाराजा रूपसिंह ने कहा कि बादशाह हुजूर की सलामती के लिए यह जरूरी है कि वह अभी और इसी समय बादशाह सलामत की खबका में हाजिर हो तो दारा को महाराजा के आने की सूचना अपने पिता तक पहुँचानी ही पड़ी। क्योंकि वह जानता था कि बादशाह के लिए राजा रूपसिंह का महत्व कितना अधिक है।

मुगलिया हरम में शयनागार को ख्वाबगाह कहा जाता था किंतु राजपूत लोग उसे प्रायः खबका कहा करते थे।

‘क्या रूपसिंह को बताया नहीं गया कि हमारी तबियत नासाज है और हम किसी से मिल नहीं रहे?’ बादशाह ने पीड़ा से कराहते हुए पूछा।

‘राजा साहब को यह सूचित कर दिया गया है किंतु उन्होंने कहा है कि वे इस हालत में भी बादशाह हुजूर के दीदार किया चाहते हैं।’ दारा ने रुग्ण बादशाह की शैय्या के समक्ष सिर झुकाकर जवाब दिया।

‘ठीक है, बुलाइये उन्हें।’

अपनी बीमारी को गुप्त रखने के लिए बादशाह के निकट उनकी बेगमों और शहजादियों तक को नहीं आने दिया जा रहा था, ऐसी स्थिति में राजा रूपसिंह को बादशाह के समक्ष हाजिर होने की अनुमति मिलना बहुत बड़ी बात थी।

राजा रूपसिंह अपने हाथ में बड़ी सी कोई वस्तु लेकर बादशाह के शयनक कक्ष में घुसा जिसे सावधानी पूर्वक लाल रंग के रेशमी कपड़े में लपेटा गया था। वह वस्तु क्या थी, इसे सिवाय दारा शिकोह के और कोई नहीं जानता था। जब राजा रूपसिंह बादशाह के समक्ष उपस्थित हुआ तो बादशाह की आँखों में चमक कौंधी।

राजा रूपसिंह बीमारी से पीले पड़े बादशाह को जुहार करके एक ओर खड़ा हो गया। बादशाह ने उसकी ओर आँख उठाकर देखा और फिर आँखें बंद करके पड़ गया। राजा रूपसिंह कुछ समय तक चुपचाप खड़ा रहा और फिर बोला- ‘यह सेवक, नेकदिल बादशाह हुजूर की तबियत की सलामती चाहता है।’

बादशाह उसी तरह आँखें बंद करके पड़ा रहा। पलकों के किनारों से आंसू की एक बूंद बादशाह के गालों पर लुढ़क गई जिसे शमांदान की धीमी रौशनी के कारण न तो दारा देख सका और न महाराजा रूपसिंह।

‘यह सेवक यदि अपनी जान देकर भी बादशाह हुजूर को ठीक करता सकता तो एक क्षण का भी विलम्ब नहीं करता लेकिन मुझे उम्मीद है किआप बहुत जल्द ठीक हो जाएंगे और लम्बी उम्र जिएंगे।’ महाराजा रूपसिंह ने किसी तरह हिम्मत बटोर कर कहा।

‘झूठी दिलासा मत दो रूपसिंह।’ बादशाह ने उसी प्रकार आँखें बंद किए हुए ही जवाब दिया।

‘जो गुलाम, अपने मालिक से झूठ बोलता है, उसकी रूह को दोनों जहान में शांति नहीं मिलती। मैं सलेमाबाद के आचार्यश्री से मिलकर आ रहा हूँ। उन्होंने जो कहा, वही मैंने बादशाह सलामत के हुजूर में अर्ज किया है।’

सलेमाबाद के आचार्य का नाम सुनकर बादशाह ने आँखें खोल दीं- ‘और क्या कहा है आचार्य ने।’

‘आचार्य ने बादशाह के लिए यह चमत्कारी भभूती दी है तथा कहलवाया है कि बादशाह सलामत की उम्र अभी बाकी है, वे चिंता नहीं करें, वे पूरी तरह ठीक हो जाएंगे।’

‘और कुछ नहीं कहा……..?’ बादशाह ने दारा शिकोह की तरफ देखा। दारा ने महाराजा के हाथ से कागज की पुड़िया लेकर भभूती बादशाह के माथे पर लगा दी और थोड़ी सी भभूती अपने माथे पर भी लगा ली।

‘कहा तो है हूजूर लेकिन कहने के लिए जुबान नहीं खुलती।’

‘आप बेफिक्र होकर कह सकते हैं।’

‘आचार्यश्री ने कहा है कि बीमारी से घबराने की जरूरत नहीं है लेकिन दुश्मनों से सावधान रहने की आवश्यकता है।’

‘कौनसे दुश्मन?’ बादशाह के पीले पड़ चुके चेहरे की पेशानी पर उभर आई सलवटें इस मंद रौशनी में भी साफ दिखाई दे रही थीं।

‘बहुत पूछने पर भी आचार्यश्री ने केवल इतना ही कहा कि राजा के बहुत से दुश्मन होते हैं। राजा को चाहिए कि वह अपनी सुरक्षा का प्रबंध स्वयं करे। हाँ इतना उन्होंने अवश्य बताया कि बादशाह सलामत को जल्दी ही दिल्ली छोड़कर आगरा जाना पड़ेगा।’

महाराजा रूपसिंह की बात सुनकर बादशाह ने फिर से आँखें बंद कर लीं।

‘बादशाह सलामत की खिदमत में एक भेंट भी लेकर उपस्थित हुआ हूँ।’

‘उम्र के इस पड़ाव पर और बीमारी की इस हालत में हमें किसी भेंट की ख्वाहिश नहीं है रूपसिंह। तुमने बलख, बुखारा मुझे दिए, तुमने चित्तौड़ का किला मुझे दिया, तुमने शाह अब्बास की इज्जत छीनकर मुझे दी। क्या इनसे भी बड़ी भेंट लेकर आए हो?’ बादशाह ने उसी तरह आँखें बंद रखे हुए जवाब दिया।

बादशाह का इकबाल बुलंद रहे। यह तुच्छ सेवक आपको क्या दे सकता है! वह तो आपके जलाल का कमाल था लेकिन आप मेरी भेंट पर एक नजर डाल लें तो मेरे लिए वही सबसे बड़ी तसल्ली होगी।’

‘दिखाओ।’ बादशाह की आवाज और भी कमजोर हो आई थी।

महाराजा ने अपने हाथ की तस्वीर से रेशमी कपड़ा हटाकर तस्वीर बादशाह के सामने कर दी। बादशाह ने तस्वीर को देखा तो चौंक पड़ा। यह तो वही तस्वीर थी जो एक दिन रूपसिंह बलख-बदखशां की जीत के बदले मांग कर ले गया था।

‘ऐसा क्यों कर रहे हो रूपसिंह, जो चीज एक दिन हमने तुम्हें बख्शी, आज उसी को भेंट बताकर हमें वापिस कर रहे हो?’ बादशाह को महाराजा रूपसिंह की धृष्टता अच्छी नहीं लगी।

‘बादशाह हुजूर, यह सेवक ऐसी गुस्ताखी कभी नहीं कर सकता।’

‘क्या तुम भूल गए कि एक दिन गुसाईं वल्लभ का यह अक्स हमने ही तुम्हें दिया था?’ बादशाह, रूपसिंह की इस बेअदबी पर हैरान था।

‘मुझे हर चीज आपने ही बख्शी है बादशाह सलामत किंतु केवल यही एक चीज है जो मैं अपनी तरफ से हिन्दुस्तान के बादशाह को नजर कर रहा हूँ।’

बादशाह समझ गया कि कुछ ऐसी बात है जिसे बादशाह समझ नहीं पा रहा।

कुछ देर कक्ष में खोमोशी छाई रही। कक्ष की दीवार से सटकर जल रहे रौशनदान में से निकल रहा खुशबूदार धुआं कुछ देर तक अपनी ही कमजोर रोशनी में दोनों के बीच खामोशी के साथ घूमता रहा।

‘हुजूर। यह गुसांई वल्लभाचार्यजी का वह अक्स नहीं है जिसे आपके परदादा हुमायूँ ने सिकंदर लोदी के महल से हासिल किया था। यह उस अक्स का अक्स है जिसे हमने तैयार किया है।’

‘ओऽह!’ केवल इतना ही कह सका बादशाह। उसने आँखें खोलकर फिर से उस चित्र को देखा। उसे विश्वास नहीं हुआ। ठीक वही चित्र, किंतु असल नहीं, असल की नकल। बादशाह ने अपने कांपते हुए हाथ आगे बढ़ाए और चित्र अपने हाथ में ले लिया तथा कोने में खड़े दारा की ओर देखा।

शहजादे दारा ने बादशाह के हाथों से चित्र लेकर पास में ही रखी एक मेज पर रख दिया।

राजा रूपसिंह ने एक बार फिर से झुककर सलाम किया और उलटे पैरों चलता हुआ बादशाह के शयनकक्ष से बाहर हो गया। बादशाह ने करवट बदली और अपना मुँह उस चित्र की ओर कर लिया जो ख्वाबगाह के मंद उजाले में रखी मेज पर भी अच्छी तरह चमक रहा था।

हालांकि महाराजा रूपसिंह के कदमों की आवाज बिल्कुल नहीं आ रही थी फिर भी बादशाह उसके कदमों की आहट अपनी धड़कनों की तरह सुन सकता था। उसके मस्तिष्क में रूपसिंह के शब्द एक बार फिर चक्कर काट गए-

‘आचार्य ने कहा है कि बीमारी से घबराने की जरूरत नहीं है लेकिन दुश्मनों से सावधान रहने की आवश्यकता है……… राजा के बहुत से दुश्मन होते हैं। राजा को चाहिए कि वह अपनी सुरक्षा का प्रबंध स्वयं करे। हाँ इतना उन्होंने अवश्य बताया कि बादशाह सलामत को जल्दी ही दिल्ली छोड़कर आगरा जाना पड़ेगा।’

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source