औरंगज़ेब को ऑक्सस नदी के तट से अपने डेरे समेट कर आगरा लौटने की इतनी हड़बड़ी थी कि वह एक दिन भी मार्ग में व्यर्थ नहीं जाने देना चाहता था। इसलिए जब बुखारा के शहजादे अब्दुल अजीज ने हिन्दुस्तान को लौटती हुई मुगल सेना पर बार-बार हमले किए थे तो भी औरंगज़ेब ने जवाबी हमला नहीं किया था। इससे अब्दुल अजीज का हौंसला बुलंद हो गया था और मुगलों की बड़ी किरकिरी हुई थी। औरंगज़ेब की इस हड़बड़ी से फारस तक भी गलत संदेश गया था और सुल्तान शाह अब्बास ने कांधार पर आक्रमण करके अपनी योजना के दूसरे चरण को क्रियान्वित करने का निर्णय ले लिया था।
अभी औरंगज़ेब को दिल्ली आए हुए दो माह भी नहीं बीते होंगे कि शाहजहाँ को समाचार मिला कि शाह अब्बास ने बिस्त पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया। शाहजहाँ ने तुरंत औरंगज़ेब को बुलाकर आदेश दिया कि वह अफगानिस्तान के लिए रवाना हो जाए और किसी तरह बिस्त के किले को अपने कब्जे में ले। इससे पहले कि औरंगज़ेब अफगानिस्तान पहुँच पाता, शाहजहाँ के पास वह बुरा समाचार भी आ गया जिससे बादशाह पहले ही भयभीत हुआ बैठा था। शाह अब्बास ने कांधार के किले पर भी अधिकार कर लिया था।
जिस समय शाह अब्बास ने कांधार के किले पर अधिकार किया, औरंगज़ेब काबुल तक पहुंचा था। यहीं पर उसे अपने बाप का कड़ी फटकार वाला पत्र मिला कि वह काबुल में न बैठा रहे। आगे बढ़कर कांधार और बिस्त पर कब्जा करे। औरंगज़ेब इस पत्र को पढ़कर तिलमिलाया तो खूब किंतु उसके पास इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं था कि वह अपने पचास हजार सैनिकों को लेकर आगे बढ़े। वह दो माह बाद गजनी होता हुआ कांधार पहुँचा। तब तक सर्दियां आरंभ हो चुकी थीं और दिल्ली से कांधार आने वाले रास्ते बंद हो चुके थे।
शाह अब्बास यही चाहता था। उसका किलेदार कांधार दुर्ग के दरवाजे मजबूती से बंद करके भीतर बैठ गया जबकि दुर्ग के चारों ओर मीलों लम्बे घेरे में खुले आकाश के नीचे पड़ी मुगल सेना की हालत खराब हो गई। शाह अब्बास के ईरानी सैनिकों के पास दुर्ग के भीतर रसद-पानी, गोला-बारूद और आग का पूरा प्रबंध था किंतु औरंगज़ेब के सिपाहियों की रसद खत्म हो गई। सर्दियों के खत्म होने से पहले नई रसद नहीं मिल सकती थी। एक दिन तोपखाने के मुखिया ने औरंगज़ेब को सूचित किया कि मुगल सेना का गोला-बारूद भी खत्म हो गया।
इस सूचना को पाकर औरंगज़ेब ने अपना माथा पकड़ लिया। अब वे किले की प्राचीर से गरज रही तोपों का जवाब देने की स्थिति में नहीं रहे थे। जब मुगलों की तोपें आग उगलना बंद कर देंगी तो शाह अब्बास की सेना को अवश्य ही इस सच्चाई का पता लग जाएगा और मौत किसी भी समय कांधार के किले से निकलकर उन पर झपट पड़ेगी। भूखी-प्यासी मुगल सेना के लिए यह भी संभव नहीं था कि वह बर्फ से बंद हो चुके पहाड़ी रास्तों को लांघ कर पीछे काबुल तक भी पहुँच सके। प्रत्येक मुगल सिपाही को कांधार के बियाबान पहाड़ी जंगलों में मौत नाचती हुई दिखाई दे रही थी।
सेनाएं युद्ध लड़ती हैं, कभी जीतती हैं तो कभी हार भी जाती हैं किंतु उस सेना की मनोदशा का वर्णन नहीं किया जा सकता जो लड़कर जीतने, हारने या मरने की बजाय रोटी-पानी और असले की कमी की वजह से बिना लड़े ही मौत की प्रतीक्षा करने लगे। औरंगज़ेब की सेना की इस समय यही स्थिति थी।
औरंगज़ेब की आँखों में हर समय दिल्ली घूमती रहती थी जबकि बादशाह उसे हर समय दिल्ली से दूर रखना चाहता था। जाने क्यों औरंगज़ेब को लगता था कि उसे दिल्ली से दूर रखने की योजनाएं शाहजहाँ नहीं अपितु दारा शिकोह बनाया करता था क्योंकि शाहजहाँ, औरंगज़ेब को दिल्ली से दूर तो रख सकता था किंतु उसे मौत के मुँह में नहीं धकेल सकता था।
औरंगज़ेब को पूरा विश्वास था कि काबुल और कांधार को दारा शिकोह, औरंगज़ेब के लिए मौत के फंदे की तरह प्रयुक्त कर रहा था। औरंगज़ेब को लगता था कि अपने बाप शाहजहाँ के लिए लड़ाइयां लड़ना और जीतना औरंगज़ेब का फर्ज था किंतु क्या उसे दारा शिकोह के लिए भी युद्ध करने चाहिए थे! यही वह कशमकश थी जो औरंगज़ेब को कोई लड़ाई जीतने नहीं देती थी।
जब बादशाह को कांधार में औरंगज़ेब की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के समाचार मिले तो वह हैरान रह गया। एक ओर तो महाराजा रूपसिंह जैसे छोटे हिन्दू राजा ने काबुल और कांधार से लेकर बलख, बदखशां और बुखारा तक कभी कोई जंग नहीं हारी थी जबकि न तो शहजादा दारा शिकोह, न शहजादा मुराद, और न ही शहजादा औरंगज़ेब वहाँ एक भी लड़ाई जीत सका था।
यह कैसी विचित्र बात थी। चंगेजी खानदान के वारिस इतने कमजोर थे और अदने से काफिर हिन्दू सरदार कभी भी न रण छोड़ते थे और न जबान! फिर भी चंगेजी खानदान के शहजादे आज लगभग आधी दुनिया पर शासन कर रहे थे और हिन्दू सरदार जगह-जगह उनकी ताबेदारी में रहकर अपना पेट भरते थे!
शाहजहाँ को हैरानी हुई! तो क्या यह अजेय मुगल सल्तनत इन मुट्ठी भर राठौड़ों और कच्छवाहों के भरोसे चल रही है। उसके अपने शहजादों की कोई दिली ख्वाहिश नहीं कि वे अपने दुश्मनों से लड़ें और जंग जीतें! शाहजहाँ की निगाह में यह पूरी तरह साफ हो गया कि उसके मरहूम दादा शहंशाह अकबर ने मुगल शहजादों के निकम्मेपन को अच्छी तरह पहचान लिया था। तभी तो उन्होंने मुगलिया हरम में राजपूत राजकुमारियों को तवज्जो दी ताकि राजपूतों की वफादारी मुगलिया खून में घुलकर सल्ततन को सहारा दे सके।
ऐसी स्थिति में बादशाह को एक बार फिर महाराजा रूपसिंह की याद आई। वैसे भी महाराजा को इस बार अपनी राजधानी में रहते हुए कई महीने हो गए थे और मुगलिया नीति के अनुसार महाराजा को अब किसी न किसी मोर्चे के लिए रवाना हो ही जाना चाहिए था। शाहजहाँ को महाराजा रूपसिंह के साहस एवं वीरता पर पूरा भरोसा था। इसलिए उसने एक बार फिर उसे पश्चिमी सीमा के खूंखार पठानों एवं ईरानियों के विरुद्ध भेजने का निर्णय लिया।
जब रूपसिंह नियत समय पर शाहजहाँ के दरबार में उपस्थित हुआ तो शाहजहाँ ने उसका मनसब बढ़ाकर ढाई हजारी जात और बारह सौ सवारों का कर दिया और उसे ईरानियों का दमन करने के लिए कंधार जाने के आदेश दिए जबकि मूल मकसद शहजादे औरंगज़ेब को शाह अब्बास की दाढ़ में से निकालकर लाने का था।
महाराजा रूपसिंह तो नियति के इस विधान को समझता ही था कि उसकी जात और सवार इसी प्रकार बढ़ते रहेंगे और उसे जीवन भर काबुल-कांधार से लेकर बलख-बुखारा की पहाड़ियों में खून की होलियां खेलनी होंगी। महाराजा बिना कोई समय गंवाए, अपने राजपूतों को लेकर कांधार के लिए रवाना हो गया। इस बार उसे उसकी जात एवं सवारों की हैसियत के अनुसार मुगलों की एक बड़ी सेना भी दी गई।
सर्दियां समाप्ति पर थीं जब महाराजा रूपसिंह कांधार पहुँचा। बर्फ पिघल-पिघल कर बहने लगी थी और रास्ते खुलने लगे थे। रास्तों में पीने के पानी की भी कोई कमी नहीं रही थी किंतु बर्फीला पानी पेट में जाकर आंतड़ियों को काटता था और सर्द हवाएं मोटे कम्बलों और लबादों को पार करके सिरहन पैदा करती थीं। फिर भी महाराजा रूपसिंह ताबड़तोड़ चलता हुआ शहजादे औरंगज़ेब के खेमे तक जा पहुँचा।
जब महाराजा ने शहजादे औरंगज़ेब को रसद, बारूद और तोपें भेंट की तो औरंगज़ेब इस विपुल युद्ध सामग्री को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने महाराजा की बड़ी चिरौरी की। उसे लगा कि यदि रूपसिंह की सहायता से कांधार विजय की जा सके तो उसे यहाँ से छुटकारा मिलेगा और वह फिर से दिल्ली के लिए रवाना हो सकेगा। उत्तर सीमांत से दूसरी बार पराजय का कलंक लेकर दिल्ली जाने में उसे शर्म भी आ रही थी।
महाराजा रूपसिंह ने औरंगज़ेब को सलाह दी कि सबसे पहले हमें बिस्त और गिरीषक के इलाकों को अपने अधिकार में लेना चाहिए ताकि ईरान की ओर से आने वाली रसद सामग्री कांधार तक नहीं पहुँच सके। औरंगज़ेब में इतना सब्र नहीं था। वह तो जल्दी से जल्दी कांधार को अपने कब्जे में करना चाहता था। उसे रणनीति की बजाय तोपों की बारूद पर अधिक भरोसा था। इसलिए उसने महाराजा को बिस्त और गिरीषक में समय खराब करने के स्थान पर कांधार पर ही केन्द्रित रहने के लिए कहा। शहजादे की इच्छानुसार अगले दिन से ही महाराजा रूपसिंह के राठौड़ों ने मोर्चा संभाला।
ईरानियों में महाराजा रूपसिंह के आ जाने की सूचना से खलबली मची हुई थी। राठौड़ों के कारनामे हिन्दुस्तान की सरहदों को पार करके न केवल अफगानिस्तान और ट्रांस-ऑक्सियाना में गूंजने लगे थे अपितु फारस भी उनके नाम से थोड़ा बहुत भयभीत होने लगा था। कुछ ही दिनों में महाराजा की मेहनत रंग लाने लगी। काबुल शहर पर महाराजा का अधिकार हो गया।
इससे पहले कि महाराजा आगे बढ़कर दुर्ग पर अधिकार कर पाता, दिल्ली के लाल किले की राजनीति, साजिशों में बदल चुकी थी और वहाँ से एक नया फरमान कांधार शिविर में आ चुका था।
अब तक शहजादा दारा शिकोह, बादशाह को यह विश्वास दिला चुका था कि मुराद की ही तरह औरंगज़ेब भी एकदम नाकारा और निकम्मा शहजादा है। वह कोई भी युद्ध जीत ही नहीं सकता। शाहजहाँ भी पिछले कुछ सालों में घटी घटनाओं को देखकर यही समझने लगा था कि औरंगज़ेब किसी काम का नहीं।
अपने पिता शाहजहाँ का ऐसा भाव देखकर शहजादे दारा शिकोह ने अवसर का लाभ उठाते हुए बादशाह के कान भरे कि अपनी बेगम दिलरास बानो के कहने से औरंगजेब, ईरानियों के विरुद्ध कठोर कदम नहीं उठाता। बेगम दिलरास बानो, फारस के सुल्तान के छोटे भाई की बेटी थी जिसका विवाह कई साल पहले औरंगज़ेब के साथ हुआ था। औरंगज़ेब के दुर्भाग्य से शाहजहाँ को ये सारी बातें सही लगती थीं।
दारा शिकोह तथा जहांआरा की बातें सुनकर शाहजहाँ को भय हुआ कि औरंगज़ेब की नालायकी की वजह से कहीं कांधार हमेशा के लिए मुगलों के हाथ से न निकल जाए। इसलिए उसने औरंगज़ेब को वापस दिल्ली आने और वली-ए-अहद दारा शिकोह को कांधार पहुँच कर मोर्चा संभालने के आदेश दिए। बादशाह के इस आदेश से दारा सन्न रह गया था। उसने कभी नहीं चाहा था कि वह स्वयं कभी भी दिल्ली छोड़कर किसी मोर्चे पर जाए।
वह तो दूसरे शहजादों को युद्ध के मोर्चों पर जाते हुए और उन्हें शिकस्त खाते हुए देखना चाहता था ताकि बादशाह उनके निकम्मेपन से निराश होकर उन्हें नाकारा घोषित कर दे और एक दिन हिन्दुस्तान का ताज बड़ी आसानी से दारा के सिर पर आ गिरे। फिर भी बादशाह का आदेश तामील करने के अतिरिक्त दारा शिकोह के पास और कोई चारा नहीं था। वह स्वयं अपनी ही चाल में फंस गया लगता था। दारा ने अपने पिता के समक्ष औरंगज़ेब के निकम्मेपन के इतने किस्से गढ़े थे कि शाहजहाँ ने अब दारा को यह अवसर प्रदान किया ताकि वह अपनी बातों की सच्चाई को प्रमाणित भी कर सके।
बादशाह ने औरंगज़ेब को कांधार फतह करने के लिए दो करोड़ रुपये दिए थे। दारा हमेशा अपने बाप के सामने शेखी बघारा करता था कि वह इस काम को केवल एक करोड़ रुपये में करके दिखा सकता था। घमण्डी दारा ने अपने बाप के समक्ष जो बढ़-चढ़कर दावे किए थे, उन्हें देखते हुए शहंशाह ने उसे कांधार फतह करके दिखाने के लिए एक करोड़ रुपये ही दिए।
जब तक दारा दिल्ली से निकल कर लाहौर पहुँचा, तब तक औरंगज़ेब भी कांधार से चलकर लाहौर आ चुका था। रास्ते में दोनों भाइयों की मुलाकात हुई। दोनों ही शाही रिवाज के अनुसार बगलगीर हुए किंतु दोनों के मन में एक दूसरे के खिलाफ इतनी नफरत भरी हुई थी कि उनमें से किसी का भी बस चलता तो दूसरे का खून कर डालता किंतु बादशाह शाहजहाँ का खौफ उन्हें ऐसा करने से रोकता था।
महाराजा रूपसिंह अब भी कांधार में मोर्चा जमाए हुए था। जब महाराजा रूपसिंह को ज्ञात हुआ कि दारा शिकोह लाहौर तक आ पहुँचा तो महाराजा बड़ा प्रसन्न हुआ। उसे बदतमीज बहरूपिये औरंगज़ेब का साथ बिल्कुल भी पसंद नहीं था। उसकी तुलना में दारा में न तो जेहादी दिखावा करने की प्रवृत्ति थी और न लोगों को बेवजह नीचा दिखाने का उन्माद था। इतना अवश्य था कि डींगें हांकने में दारा भी औरंगज़ेब से कम नहीं था। महाराजा को ये डींगें कभी विचलित अथवा व्यथित नहीं करती थीं किंतु औरंगज़ेब का मजहबी दिखावा महाराजा को पल-पल विचलित करता रहता था। इसलिए रूपसिंह ने औरंगज़ेब की जगह दारा के आगमन पर संतोष की सांस ली।
दारा शिकोह भलीभांति जानता था कि महाराजा रूपसिंह के कांधार में होने का अर्थ क्या है! वह आश्वस्त था कि जीत निश्चित रूप से मुगलों के कदम चूमने वाली थी। इसलिए अब जबकि परिस्थितियों के हाथों में पड़कर वह कांधार तक आ ही गया था तो वह हर हाल में जीत का श्रेय लेना चाहता था ताकि अपने भाई-बहिनों एवं सौतेली माताओं द्वारा लगाए जा रहे इस आरोप का कलंक अपने ऊपर से धो सके कि दारा शिकोह न कभी लाम पर गया और न कभी उसने कोई बड़ी जीत हासिल की।
जब दारा कांधार के मोर्चे पर पहुँचा तो महाराजा रूपसिंह ने उसे भी वही सलाह दी जो उसने औरंगज़ेब को दी थी कि कांधार से पहले हमें बिस्त और गिरीषक पर अधिकार करना चाहिए ताकि कांधार दुर्ग को ईरान की ओर से आने वाली रसद से वंचित किया जा सके। दारा ने महाराजा का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उसने महाराजा को कांधार के चारों ओर कड़ाई से डटे रहने का निर्देश दिया और स्वयं बिस्त और गिरीषक पर अधिकार करने चला गया।
कुछ ही दिनों में बिस्त और गिरीषक पर मुगलों का अधिकार हो गया। दारा ने कांधार के आसपास का सारा इलाका जलाकर राख कर दिया ताकि कोई जंगलों में छुपकर भी कांधार दुर्ग तक नहीं पहुँच सके।
शहजादे दारा शिकोह ने अपनी इस जीत की सूचना खूब बढ़ा-चढ़ाकर बादशाह को भिजवाई तथा अपने अत्यंत विश्वसनीय संदेशवाहक के हाथों शाहजहाँ तक पहुँचवाई जो दारा की महानता के गीत गाते हुए विश्राम नहीं लेता था। दारा के संदेशवाहक ने दरबारे आम में दारा के जो कसीदे पढ़े, उन्हें सुनकर दरबार में मौजूद औरंगज़ेब तथा ऊपर खिड़कियों से झांक रही शहजादियाँ तिलमिलाकर रह गईं।
मुमताज महल के सीने पर साँप लोट गए। झीने कपड़े से मुँह लपेटकर बैठी केवल जहांआरा ही एक मात्र ऐसी शहजादी थी जिसे इस खबर से बड़ी राहत मिली थी। हालांकि वह जानती थी कि उसके निकम्मे भाई दारा के किए क्या कुछ हो सकता था! अवश्य ही यह राजा रूपसिंह राठौड़ का कारनामा होगा जिसे दारा की शान में सितारे की तरह जड़कर चमकाया जा रहा था। फिर भी जहांआरा को अपने इस नेकदिल भाई से पूरी सहानुभूति थी।
इधर दिल्ली में शाहजहाँ के दरबार में गर्मी बढ़ रही थी और उधर कांधार में भी गर्मी बढ़ने से बर्फ तेजी से पिघल रही थी। कांधार शहर के अधिकांश हिस्से पर तो राजा रूपसिंह का पहले से ही नियंत्रण था, अब बिस्त और गिरीषक के भी नियंत्रण में आ जाने से कांधार दुर्ग में बैठी हुई शाह अब्बास की सेना को रसद और गोला-बारूद की आपूर्ति बंद हो गई। इसके बाद कुछ दिनों तक महाराजा रूपसिंह और दारा की सेनाओं ने कांधार दुर्ग पर बारूद के गोलों की बरसात कर दी किंतु फारस की जोरदार तोपों के कारण मुगलों की सेना अपने स्थान से इंच भर भी आगे नहीं बढ़ पाती थी।
फिर भी औरंगज़ेब के मुकाबले में दारा की सफलताएं कहीं अधिक शानदार थीं। निश्चित रूप से ये सफलताएं यहीं रुकने वाली नहीं थीं किंतु विधि को कुछ और ही स्वीकार्य था।
जब ऐसा लगने लगा कि मुगल, कांधार दुर्ग में घुसने में कामयाब हो जाएंगे, शाह अब्बास के आदेश से नजर मुहम्मद के हजारों उजबेग सैनिकों ने गजनी में घुसकर उत्पात मचा दिया। गजनी काबुल और कांधार के ठीक मध्य में था और हिन्दुस्तान से आने वाले मार्ग पर स्थित था। गजनी पर उजबेकों का अधिकार हो जाने से मुगलों का सम्पर्क भी ठीक उसी प्रकार हिन्दुस्तान से कट गया जिस प्रकार कांधार में बैठे ईरानियों का ईरान से।
जब यह समाचार बादशाह शाहजहाँ तक पहुँचे तो वह विचार में पड़ गया। अब तक उत्तरी सीमांत के मोर्चे पर शाहजहाँ बारह करोड़ रुपये खर्च कर चुका था। इन अभियानों में हजारों मुगलिया सिपाही और बोझा ढोने वाले बेहिसाब पशु मारे जा चुके थे। राजपूत सैनिकों की शहादत की तो वह गिनती ही नहीं करता था।
इन अभियानों के चलते उसके दोनों नालायक शहजादे मुराद और औरंगज़ेब दिल्ली में थे जबकि उसका प्रिय शहजादा दारा-शिकोह कांधार के मोर्चे पर खूंखार पठानों, ईरानियों और उजबेकों से जूझ रहा था। बादशाह को दिल्ली से दारा की अनुपस्थिति खलने लगी। वह कभी दारा-शिकोह के बिना नहीं रहा था।
देखते ही देखते साल बीत गया और सर्दियाँ फिर से सिर पर आ गईं। एक बार फिर कई महीनों के लिए हिन्दुस्तान और कांधार के बीच के मार्ग बंद हो जाने वाले थे। शाहजहाँ के सामने केवल काबुल, कांधार की ही समस्या नहीं थी, अपितु दक्कन के मोर्चे को भी संभालना आवश्यक हो गया था। इसलिए वह चाहता था कि दारा-शिकोह जल्दी से दिल्ली आ जाए ताकि औरंगज़ेब को दक्कन के लिए रवाना किया जा सके। काफी सोच-विचार के बाद उसने इस आशय के आदेश कांधार भिजवा दिए। न केवल दारा शिकोह को अपितु राजा रूपसिंह को अपनी आधी सेना काबुल में छोड़कर तुरंत दिल्ली लौटने के लिए लिखा गया था।
अचानक कांधार मोर्चे से हटने के आदेश मिले तो दारा और महाराजा रूपसिंह की हैरानी का पार न रहा। वे दोनों ही चाहते थे कि अब हाथ आई हुई बाजी को यूं हाथ से न फिसलने दिया जाए। अब कांधार दुर्ग का हाथ में आना कुछ ही दिनों की बात शेष बची थी किंतु बादशाह का आदेश सर्वोपरि था। बादशाह का परवाना आने के बाद ना-नुकर या कोई हीला-हवाला करने की गुंजाइश नहीं थी।
वैसे भी यदि वे कांधार के मोर्चे पर एक माह और रुक जाते हैं तो उन्हें अगली गर्मियों तक इसी मोर्चे पर जमे रहना पड़ता। फिर अभी तो उन्हें हिन्दुस्तान पहुँचने के लिए गजनी में बैठे उजबेकों से भी निबटना था। इसलिए शहजादे दारा-शिकोह ने महाराजा रूपसिंह को अपने डेरे डण्डे उठाकर हिन्दुस्तान के लिए कूच करने का आदेश दिया।
दारा को तो दिल्ली पहुँचने की जल्दी थी किंतु महाराजा को ऐसी कोई जल्दी नहीं थी। उसे तो ज्ञात था कि कांधार का मोर्चा न सही, कोई और सही, रहना तो उसे जीवन भर मोर्चे पर ही है। इसलिए उसने एक योजना बनाई ताकि वह दिल्ली पहुँचे तो हर बार की तरह जीत का सेहरा बांध कर पहुँचे। उसने शहजादे से अनुरोध किया- ‘आप गजनी पहुँचकर उजबेकों से निबटें मैं इन ईरानियों को निबटा कर आता हूँ।’
‘लेकिन बादशाह हुजूर ने तो हमें तुरंत हिन्दुस्तान आने के लिए लिखा है!’ शहजादे ने प्रतिवाद किया।
‘बादशाह हुजूर के आदेशों की पूरी तरह पालना होगी। हम यही तो निवेदन कर रहे हैं कि आप आगे चलें, हम पीछे से आपकी पीठ दबाए हुए आते हैं ताकि कोई आप पर पीछे से हमला न करे। वैसे भी पूरी फौज एक साथ कूच कैसे कर सकती है!’ महाराजा ने मुस्कुराकर कहा।
‘बिल्कुल ठीक कहते हैं आप।’ दारा ने भी मुस्कुराकर जवाब दिया और महाराजा की योजना का समर्थन कर दिया।
उधर शहजादे दारा ने गजनी पहुँचकर उजबेकों के विरुद्ध मोर्चो जमाया और इधर महाराजा रूपसिंह ने पूरे प्राण-प्रण से कांधार दुर्ग पर बड़ा हमला किया। इस हमले में कांधार दुर्ग की दीवारें हिल गईं। सैंकड़ों ईरानी सैनिक निहत्थे भागकर बाहर आ गए और महाराजा से प्राणों की भीख मांगने लगे।
महाराजा ने उनकी जान बख्श दी और उन्हें ईरान जाने का मार्ग दे दिया। जब ईरानी, कांधार का दुर्ग खाली करके चले गए तो महाराजा ने कांधार के पुराने किलेदार दौलत खाँ को फिर से दुर्ग सौंप दिया। उसकी फौज को पर्याप्त रसद देकर सारी व्यवस्था करवाई और दुर्ग की मरम्मत करवाकर वह भी गजनी में शहजादे दारा से जा मिला।
जब यह अप्रतिम विजेता दिल्ली लौटा तो शाहजहाँ की खुशी का पार न था। उसने महाराजा का मनसब बढ़ाकर तीन हजारी जात और डेढ़ हजार सवारों का कर दिया। यह काफी सम्मानजनक ओहदा था जो बड़-बड़े हिन्दू सरदारों को मिलता था। इस कारण अब दिल्ली दरबार में कोई भी शहजादा, अमीर और महाराजा, रूपसिंह को हल्के में नहीं ले सकता था।
इतिहास गवाह है कि दो साल बाद एक बार फिर महाराजा रूपसिंह को कांधार के मोर्चे पर भेजा गया जहाँ उसने ईरानियों के विद्रोह को दबाकर पूरे अफगानिस्तान में शांति स्थापित की। रूपसिंह के नाम का प्रभाव ही ऐसा था कि उसके वहाँ पहुँचते ही विद्रोह स्वतः शांत हो गया। इस बार महाराजा ने इरानियांे को माफ नहीं किया। उसने विद्रोही सिपाहियों की खाल उधड़वाकर उसमें भुस भर दिया। इस कारण ईरानियों में महाराजा का खौफ बैठ गया और वे कांधार छोड़कर भाग खड़े हुए। इससे प्रसन्न होकर शाहजहाँ ने महाराजा का मनसब चार हजारी जात और दो हजार सवारों का कर दिया।
कुछ साल बाद एक बार फिर से कांधार में विद्रोह उठ खड़ा हुआ। इस प्रदेश के लोगों की फितरत ही ऐसी थी। खाने को भले ही दाना नहीं हो किंतु वे लड़े बिना नहीं रह सकते थे। कुदरत ने उन्हें केवल लूटना-खसोटना-मारना और मरना ही सिखाया था। वे कुदरत से मिली इस फितरत से छुटकारा नहीं पा सकते थे।
इस बार रूपसिंह ने ईरानियों का ऐसा दमन किया कि वे फिर कभी मुगल साम्राज्य के विरूद्ध सिर नही उठा सकें। उसने युद्ध में मारे गए ईरानी सिपाहियों के शवों को दूर-दूर तक खड़े पेड़ों से बंधवा दिया। जहाँ तक नजर जाती थी, पेड़ों से बंधी लाशें ही दिखाई देती थीं मानो ये पेड़ इंसानों के शव लेकर ही धरती से बाहर आए हों। बचे खुचे ईरानियों ने जब राजा रूपसिंह के कारनामे शाह अब्बास को सुनाए तो उसकी भी रूह कांप उठी।
जल्लाद तो उजबेक भी कम नहीं थे किंतु राजा रूपसिंह की अगुवाई में मुगलों ने जो कर दिखाया था उसे देखकर तो जल्लादी भी पानी मांगने लगी थी। इस वीरता के पुरस्कार में शाहजहाँ ने महाराजा रूपसिंह को चार हजारी जात और ढाई हजार सवारों का मनसब प्रदान किया।