Saturday, July 27, 2024
spot_img

अंग्रेजों ने भारत हिन्दुओं से लिया (22)

लॉर्ड वेलेजली के समय में ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा ई.1803 से 1805 के बीच अलवर, भरतपुर तथा धौलपुर राज्यों के साथ संधियां की गई थीं। ये संधियाँ लॉर्ड हेस्टिंग्स (ई.1813-23) के समय तक चलती रहीं। लॉर्ड हेस्टिंग्स द्वारा पद संभालने के समय अलवर, भरतपुर और धौलपुर को छोड़कर शेष समस्त राजपूताना अंग्रेजी नियन्त्रण से बाहर था।

लॉर्ड हेस्टिंग्स के समय में ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा राजपूताना के 14 राज्यों के साथ सहायक संधियां की गईं तथा उनको अंग्रेजों के अधीन कर लिया गया। इनमें से करौली, टोंक तथा कोटा राज्यों के साथ ई.1817 में, जोधपुर, उदयपुर, बूंदी, बीकानेर, किशनगढ़, बांसवाड़ा, जयपुर, प्रतापगढ़, डूंगरपुर तथा जैसलमेर के साथ ई.1818 में तथा सिरोही राज्य के साथ ई.1823 में संधि की गई।

इस प्रकार लॉर्ड हेस्टिंग्स ने राजपूताना में ब्रिटिश प्रभुसत्ता स्थापित की। ई.1838 में झालावाड़ राज्य अस्तित्व में आया, तब झालावाड़ राज्य के साथ भी अलग से संधि की गई।

इस प्रकार अंग्रेजों ने राजपूताना की 19 में से 18 रियासतों से संधियां कीं। इन्हें अंग्रेजों ने सैल्यूट स्टेट्स का दर्जा दिया अर्थात् जब इन रियासतों के शासक अंग्रेज अधिकारियों से मिलने के लिए जाते थे तो कम्पनी सरकार इन राजाओं को तोपों से सलामी दिया करती थी। राजपूताने की केवल शाहपुरा रियासत ही ऐसी थी जिसके साथ ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने कोई संधि नहीं की। अंग्रेजों ने शाहपुरा रियासत को नॉन सैल्यूट स्टेट का दर्जा दिया।

अंग्रेजों से संधि करने वाले राज्यों के शासकों को अपने आंतरिक मामलों में पूरी तरह स्वतंत्र आचरण करने का अधिकार था किंतु उन्हें अपने खर्चे पर ब्रिटिश फौजों को अपने राज्य में रखना पड़ता था। इन संधियों के तहत एक राज्य को दूसरे राज्य से संधि करने के लिए पूरी तरह ब्रिटिश सरकार पर निर्भर रहना पड़ता था।

TO PURCHASE THIS BOOK, PLEASE CLICK ON IMAGE.

इस सब के बदले में अंग्रेजों ने राज्य की बाह्य शत्रुओं से सुरक्षा करने तथा आंतरिक विद्रोह के समय राज्य में शांति स्थापित करने का जिम्मा लिया।

यद्यपि ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा राजपूताने के प्रत्येक राज्य के साथ अलग-अलग संधि की गई तथापि अंग्रेजों द्वारा भारतीय रियासतों के राजाओं के साथ किए गए मित्रता के समझौतों को अलग-अलग करके और राज्यानुसार नहीं लिया जा सकता क्योंकि बहुत से मामलों में परिस्थितियाँ समान थीं।

भारतीय राजाओं को अपनी आंतरिक समस्याओं को सुलझाने के लिए अपने से अधिक शक्तिशाली सत्ता की सहायता और संरक्षण आवश्यक था। ली वारनर ने लिखा है- ‘सन् 1818 से भारतीय रियासतों के प्रति अंग्रेजों का दृष्टिकोण अधीन समझौते का बन गया।’

राजपूताना के कई राज्यों पर कई दशकों से सिंधिया और होलकर का आधिपत्य चला आ रहा था। मराठों के पतन के बाद राजपूताना के राज्यों में इतनी ताकत नहीं रह गई थी कि वे अपनी स्वतंत्रता को फिर से स्थापित करें। उन्होंने तुरंत ही ब्रिटिश आधिपत्य मान लिया।

इस प्रकार भारत की राजनैतिक दुर्बलता का लाभ उठा कर ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में शासन का अधिकार प्राप्त किया। यह एक आश्चर्य की ही बात थी कि कम्पनी की सरकार ने राजपूताने की 19 में से 18 रियासतों से अधीनस्थ सहायता की संधियां कीं जबकि सम्पूर्ण भारत में केवल 40 रियासतें ऐसी थीं जिनकी ब्रिटिश सरकार के साथ वास्तविक संधियां हुई थीं।

अर्थात् कम्पनी सरकार ने राजपूताने की 18 और शेष भारत की 22 रियासतों से संधियां कीं। साढ़े पांच सौ से अधिक रियासतें अंग्रेजी शासन काल में ब्रिटिश परमोच्च सत्ता की सनदों और जागीरों के फलस्वरूप अंग्रेजों के अधीन हुईं।

राजपूताना की रियासतों ने इससे पूर्व इतने प्रभावकारी और निश्चित रूप से अपनी स्वाधीनता किसी अन्य शक्ति (मुगलों अथवा मराठा सत्ता) को इस सीमा तक समर्पित नहीं की थी जैसी कि उन्होंने ई.1817 एवं 1818 में अंग्रेजों के समक्ष की।

अंग्रेजों ने देशी रियासतों के साथ संधियां सोच-समझ कर सम्पन्न की थीं। उनके उद्देश्य भी निश्चित थे। वे ‘झण्डे के पीछे व्यापार है’ के सिद्धांत में विश्वास रखते थे।

इस प्रकार ब्रिटिश भारत का राजनैतिक ढांचा बनाने का जो काम ई.1799 में टीपू सुल्तान की मृत्यु के साथ आरम्भ हुआ था, वह ई.1819 में पेशवा को हटाए जाने के बीच की 20 वर्षों की अवधि में तैयार हुआ।

इस अवधि के आरम्भ में मैसूर के मुस्लिम राज्य का विनाश हो गया और इस अवधि के अंत में मराठों का संघ-राज्य अनेक सरदारों में बिखर गया। इन दोनों विजयों ने अंग्रेजों को भारत का स्वामी बना दिया।

डब्लू. डब्लू. हंटर ने स्वीकार किया है कि अंग्रेजों ने भारत मुगलों से नहीं बल्कि राजपूतों, मराठों और सिक्खों से प्राप्त किया। वह लिखता है- ‘मुस्लिम शहजादे हमसे बंगाल, कर्नाटक तथा मैसूर में लड़े परन्तु सर्वाधिक विरोध हिंदुओं की ओर से हुआ।’

कुछ इतिहासकारों के अनुसार राजपूताना के राज्यों ने मराठों और पिण्डारियों से सुरक्षा पाने के लिए अंग्रेजों से संधि नहीं की थी अपितु कम्पनी सरकार ने पिण्डारियों को नष्ट करने तथा मराठा शक्ति के विस्तार को रोकने के लिए राजपूत राज्यों से संधि की।

इतिहास की नंगी सच्चाई यह है कि इन संधियों के पीछे किसी एक पक्ष की मजबूरी नहीं थी, दोनों ही पक्ष एक-दूसरे का संरक्षण चाहते थे। राजपूताना के राज्यों को अपने भीतरी एवं बाहरी शत्रुओं से सुरक्षा चाहिए थी तो अंग्रेजों को मराठों तथा पिण्डारियों की लूटपाट से अपने व्यापारिक मार्गों को सुरक्षित करना आवश्यक हो गया था।

मराठे तथा पिण्डारी देशी राज्यों तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी दोनों के साथ शत्रुवत् व्यवहार कर रहे थे। इस प्रकार ‘शत्रु का शत्रु, मित्र’ के सिद्धांत को आधार बनाकर दोनों पक्षों में मित्रता हो गई। अंग्रेजों और देशी राज्यों की यह मित्रता आगे चलकर भारत के लिए खतरनाक सिद्ध हुई। जिसकी विस्तार से चर्चा हम इस धारावाहिक की अंतिम कुछ कड़ियों में करेंगे।

राजपूताना के देशी राज्यों के साथ हुई संधियों के पश्चात् ई.1819 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने पूना के पेशवा को हटा दिया और उसके क्षेत्र हड़प लिए। इससे मराठों को संगठित करने वाली शक्ति हमेशा के लिए समाप्त हो गई।

इसी तरह पिण्डारी अमीर खाँ को टोंक में स्थापित करके उसकी गतिविधियों को समाप्त कर दिया गया किंतु पिण्डारियों के अन्य गिरोह विशेषकर करीम खाँ, वसील मुहम्मद और चीतू का सफाया किया जाना अभी शेष था। इन गिरोहों के राजपूताना में शरण लेने की पूरी आशंका थी।

राजपूताने के राज्यों द्वारा भले ही अपने कारणों से संधि की गई हो किंतु अंग्रेजों के लिए इन संधियों को करने का उद्देश्य राजपूताना को मराठों और पिण्डारियों के लिए शरणस्थली बनने देने से रोकना था। यही कारण था कि संधि के समय अंग्रेजों ने देशी राज्यों के आंतरिक प्रशासन में हस्तक्षेप से स्वयं को दूर रखा था तथा देशी राज्यों को केवल बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा का ही वचन दिया गया था।

इन संधियों के आरम्भ होने से देशी राज्यों के सामंतों को कुछ समय के लिए पूरी तरह से दबा दिया गया तथा राजाओं की स्थिति अपने सामंतों के ऊपर दृढ़ हो गई। इससे राजाओं को सामंतों के आतंक से छुटकारा मिला किंतु अब राजा, अंग्रेजी सत्ता के अधीन हो गए। कुछ ही समय में अंग्रेज अधिकारी निरंकुश बर्ताव करने लगे तथा शासन के आंतरिक मामलों में भी उनका हस्तक्षेप हो गया।

इन संधियों के तहत जहाँ देशी राज्यों को बिना कोई अधिकार दिए केवल दायित्व सौंप दिए गए, वहीं अंग्रेजों को बिना कोई दायित्व निभाये असीमित अधिकार प्राप्त हो गए। राजाओं को सुरक्षा तो मिली किंतु उनकी स्वतंत्रता नष्ट हो गई। यहाँ तक कि अंग्रेज अधिकारी देशी राज्य के उत्तराधिकारी के चयन में भी हस्तक्षेप करने लगे।

इन संधियों के हो जाने से राजपूताना में मराठों, अंग्रेजों, फ्रांसिसियों तथा पिण्डारियों के आक्रमण बंद हो गए। देशी राज्यों के सैनिक अभियानों तथा आक्रामक प्रवृत्ति का प्रायः अंत हो गया। इस प्रकार राजपूताना के देशी राज्यों को भीतर तथा बाहर दोनों ही मोर्चों पर पूर्ण सुरक्षा प्राप्त हो गई किंतु देशी राजाओं एवं राज्यों के लिए यह सुरक्षा तभी तक उपलब्ध थी जब तक कि अंग्रेजों के स्वार्थों को कोई आंच नहीं आती थी।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source