ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा राजपूत के 19 में से 18 राज्यों के साथ की गई संधियों के आरम्भ होने से राजपूताने में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। राज्यों को पिण्डारियों एवं मराठों से छुटकारा मिला तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारी देशी राज्यों में रेजीडेण्ट एवं पोलिटिकल एजेण्ट बन कर आए जिससे मराठों और पिण्डारियों की लूट खसोट बंद हुई किंतु अंग्रेज अधिकारियों की लूटखसोट आरम्भ हो गई।
राजपूताने से जितनी लूट पिण्डारियों ने तथा जितनी चौथ मराठों ने वसूल की थी उससे कई गुना अधिक खिराज अंग्रेजों ने वसूल की जिससे देशी राज्यों की आर्थिक स्थिति चरमरा गई और वे पहले से भी अधिक कर्जे में डूब गए।
अंग्रेजी संरक्षण में चले जाने के पश्चात् राजपूताने के प्रायः समस्त राज्यों ने अंग्रेज अधिकारियों की सलाह से अपनी राज्य की आय बढ़ाने के लिए भूमि बंदोबस्त पद्धति को अपनाया। अंग्रेजों का खिराज चुकाने के लिए पुराने करों में वृद्धि की गई तथा जनता पर एवं सामंतों पर नए कर भी लगा दिए गए। करों की वसूली में पहले की अपेक्षा काफी कड़ाई बरती जाने लगी जिससे न केवल जनता में, अपितु सामंतों में भी राजा के विरुद्ध असंतोष पनपा।
राज्यों में नियुक्त अंग्रेजी एजेण्टों ने राजदूत का व्यवहार न करके अधिनायकों जैसा व्यवहार किया। उन्होंने रियासतों के निजी मामलों में हस्तक्षेप किया। ब्रिटिश रेजिडेंटों ने तानाशाहों के अधिकार प्राप्त कर लिए। उन्होंने राज्यों की सेवा में अपने मन पसंद अधिकारियों की नियुक्ति करके एक तरह से सहायक संधि के स्थान पर हस्तक्षेप की नीति अपना ली। इससे देशी रजवाड़ों में राजपरिवारों में अंग्रेज अधिकारियों के विरुद्ध असंतोष ने जन्म लिया।
अंग्रेज अधिकारियों ने राज्यों के शासक एवं उसके उत्तराधिकारी नियुक्त करने में मनमाना व्यवहार किया। अल्पवयस्क शासक सम्बन्धी समस्याएं और ब्रिटिश हस्तक्षेप, देशी राज्यों में उत्तराधिकारियों और शासकों की आयु निर्धारण से जुड़ा हुआ एक विवादग्रस्त क्षेत्र बन गया जिसमें ब्रिटिश हस्तक्षेप अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ।
देशी राज्यों के असंतुष्ट राजकुमार पहले मुगलों की शरण में जाते थे, उसके बाद मराठों की शरण में जाते थे और अब ब्रिटिश अधिकारियों को रिश्वत आदि देकर अपने पक्ष में करने लगे। अंग्रेजों के हस्तक्षेप का परिणाम यह हुआ कि राजा के पद के कई दावेदार राजकुमार राजमहलों से निकलकर सड़क पर आ गए और सड़क पर बैठने को विवश हुए कई राजकुमार महलों में जा बैठे।
भारत में वयस्कता की आयु सम्बन्धी सीमाएं सुनिश्चित नहीं थीं। विभिन्न अवसरों और आवश्यकताओं के अनुसार इसका निर्धारण होता था। अंग्रेजी सत्ता के पूर्व इस निर्धारण में कोई विशेष आपत्ति और व्यवधान नहीं हुआ।
यह स्थिति किसी न किसी प्रकार चलती रही किंतु ब्रिटिश सरकार ने देशी राज्यों की उत्तराधिकार की समस्या के दौरान इसमें सुनिश्चित व्यवस्था करना उपयुक्त व आवश्यक समझा।
अंग्रेजों द्वारा अपनाई गई नीति के अनुसार वयस्कता की आयु 18 वर्ष सुनिश्चित की गई और यह व्यवस्था की गई कि 18 वर्ष से पूर्व शासक अल्पवयस्क माना जाएगा। ऐसी स्थिति में राज्य के शासन का संचालन होने तक अर्थात् 18 वर्ष की आयु पूरी करने तक राज्य का शासन ब्रिटिश नियंत्रण में संचालित किया जाए।
अर्थात् राज्य का शासन अंग्रेज अधिकारियों द्वारा नियुक्त रीजेण्ट द्वारा कम्पनी सरकार की सहमति और स्वीकृति के आधार पर चलाया जाए। बड़े राज्यों में यह प्रशासन रीजैंसी कौंसिल’ द्वारा और छोटे राज्यों में ‘पॉलिटिकल ऐजेण्टों’ द्वारा नियंत्रित और संचालित होना था। वयस्कता प्राप्त होने पर ब्रिटिश सरकार द्वारा राज्य के समस्त प्रशासनिक अधिकार वयस्क नरेश को सौंप दिए जाते थे।
इस प्रकार अधीनस्थ सहायता की संधियों से राजाओं के राज्यों को स्थिरता तो मिली किंतु राजाओं की व्यक्तिगत स्वतंत्रता बुरी तरह प्रभावित हुई। राज्य के सरदारों के स्थान पर अंग्रेज अधिकारी राजाओं के लिए सिर दर्द बन गए।
इन संधियों से राज्यों के सरदारों तथा जनता को कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। कई मामलों में राज्य के सामंत तथा सरदार लोग राजाओं के निर्देशों का पालन करने की अपेक्षा अंग्रेज अधिकारियों से मिलकर राज्य की जनता को लूटने-खसोटने में लग गए। यदि राजा इन सामंतों के विरुद्ध किसी तरह की कार्यवाही करने का विचार करता तो ये सामंत अंग्रेज अधिकारी की सेवा में उपस्थित होकर मनचाही सुविधा प्राप्त कर लेते थे।
ई.1818 तक पंजाब और सिंध को छोड़कर लगभग सारा भारतीय उपमहाद्वीप अंग्रेजों के नियंत्रण में चला गया था। इसके एक हिस्से पर अंग्रेज सीधे शासन करते थे और बाकी पर अनेक भारतीय शासकों का शासन था किंतु राजाओं पर अंग्रेजों की सत्ता सर्वोपरि थी। धीरे-धीरे राज्यों के पास अपनी कोई फौज नहीं रह जानी थी। अपने ही जैसे दूसरे राज्यों से सम्बन्ध बनाने के लिए भी वे स्वतंत्र नहीं रह गए थे।
राजाओं के अपने राज्यों में उन्हीं पर नियंत्रण रखने के लिए जो अंग्रेजी फौजें रखी जाती थीं, उनके लिए भी राजाओं को भारी रकम चुकानी पड़ती थी। संधि की शर्तों के अनुसार राजा अपने आंतरिक मामलों में स्वायत्त थे किंतु व्यावहारिक रूप में उन्हें ब्रिटिश सत्ता स्वीकार करनी पड़ती थी। इस सत्ता का प्रयोग ब्रिटिश रेजिडेंट करता था। इस कारण देशी राज्य एवं उनके राजा हमेशा परीक्षा काल में ही रहते थे।
इन संधियों के होने के कई वर्षों बाद थॉम्पसन ने लिखा- राज्यों द्वारा की गई संधियों के शब्दों को ध्यान में रखते हुए यह मानना होगा कि राजाओं द्वारा व्यापक रूप से अनुभूत कष्ट आज प्रमाणित हैं। सभी राज्यों के आंतरिक कार्यों में प्रचुर मात्रा में हस्तक्षेप हुआ है। देशी राज्यों में ब्रिटिश पॉलिटिकल ऑफीसर्स के अधिकार तथा उनकी उपस्थिति नाराजगी से देखी जाती है।
ई.1830 में बिशप हेबर ने लिखा था, कोई भी देशी राजा उतना कर नहीं लगाता जितना हम लगाते हैं। ऐसे बहुत कम लोग हैं जो यह न मानते हों कि कर आवश्यकता से अधिक लगाया जाता है और जनता निर्धन होती जा रही है। बंगाल से भिन्न हिंदुस्तान में देशी राजाओं के राज्य में रहने वाले किसान कम्पनी राज में रहने वाले किसानों से कहीं अधिक गरीब और पस्त दिखाई देते हैं। उनका व्यापार चौपट हो गया है।
इन संधियों के हो जाने से राज्यों के सैनिक अभियानों तथा आक्रामक प्रवृत्ति का प्रायः अंत हो गया। अब राजपूताने के राज्यों पर बाह्य सैनिक क्रियाओं तथा संघर्ष की समाप्ति हो गई और उन्हें संधि के अंतर्गत पूर्ण सुरक्षा प्राप्त हो गई।
इन संधियों के बाद देशी राज्यों के शासकों को बिना कोई अधिकार दिए केवल कर्त्तव्य सौंप दिए गए, वहीं अंग्रेजों को बिना कोई दायित्व निभाये असीमित अधिकार प्राप्त हो गए। अंग्रेज अधिकारी निरंकुश बर्ताव करने लगे तथा शासन के प्रत्येक आंतरिक मामले में अंग्रेजों का हस्तक्षेप हो गया। यहाँ तक कि वे राजाओं, राजपरिवार के सदस्यों एवं शक्तिशाली सामंतों को भी अपमानित एवं पदच्युत करने लगे।
डॉ. मोहनलाल गुप्ता