दिल्ली दरबार 1911 भारत के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी। इस दरबार में इंग्लैण्ड के बादशाह जॉर्ज पंचम ने भारत सम्राट की उपाधि धारण की तथा भारत के समस्त राजाओं, राजनीतिक दलों एवं जन साधारण के समक्ष अपनी असाधारण शक्ति का प्रदर्शन करके ब्रिटिश क्राउन को चुनौती रहित एवं अजेय शक्ति के रूप में दिखाने का प्रयास किया।
ई.1911 के दिल्ली दरबार में भी महाराणा फतहसिंह शाही जुलूस और दरबार में शरीक नहीं हुए थे। निमेज कत्ल केस के दौरान हुई अभियुक्तों की गवाही से पता चलता है कि उस समय भी केसरीसिंह बारहठ तथा खरवा ठाकुर राव गोपालसिंह ने यह प्रयत्न किया था कि महाराणा दरबार में शामिल न हों।
अभियुक्त सोमदत्त उर्फ त्रिवेणीदास लहरी ने अपने बयान में कहा है- ‘मेवाड़ के सरदारों की ओर से महाराणा के नाम का एक गुमनाम पत्र तैयार किया गया जिसकी शुद्ध लिपि मेरे द्वारा करवाई गई। पत्र में लिखा गया कि महाराणा सूर्य वंशी हैं, उन्होंने कभी मुगलों के आगे सिर नहीं झुकाया। महाराणा को फिरंगी के सन्मुख झुकने के बनिस्पत आत्महत्या कर लेना उचित होगा। ठाकुर गोपालसिंह के कहने पर लहरी ने यह पत्र अजमेर डाक से रवाना किया गया था।’
रघुबीरसिंह ने लिखा है-
…… ई.1911 में पुनः दिल्ली दरबार का आयोजन होने लगा, तब उसे पूर्ण रूपेण सफल बनाने के लिये राजस्थानी नरेशों ने भरसक प्रयत्न किये। भारतीय इतिहास में प्रथम और अन्तिम बार इंगलैण्ड के नये बादशाह पंचम जार्ज ने दिल्ली में भारत सम्राट के पद पर आरूढ़ होकर अन्य भारतीय नरेशों के साथ ही राजस्थानी नरेशों का भी आत्म समर्पण स्वीकार कर लिया परन्तु इस बार भी महाराणा फतहसिंह ने अपनी टेक रख ली; दिल्ली में होकर भी न तो शाही जुलूस में वह सम्मिलित हुआ और न दरबार में ही उपस्थित हुआ। संसार ने आश्चर्य चकित होकर मेवाड़ के उस बुझते हुए दीपक की वह अन्तिम चमक देखी।