Monday, October 14, 2024
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समाज सुधार की राह पर केसरीसिंह बारहठ

धर्म सुधार का कार्य

ठाकुर केसरीसिंह हिन्दू धर्म के बड़े प्रशसंक थे। उन्हें विश्वास था कि हिन्दू धर्म मानव को सच्चा मानव बनाता है और उसे कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर करता है। इसलिये उन्होंने जीवन भर धर्म प्रचार के कार्य में रुचि ली। वे भारत धर्म महामण्डल के सक्रिय कार्यकर्ता रहे। भारत धर्म महामंडल (काशी) के स्वामी ज्ञानानन्द को उन्होंने गुरु रूप में स्वीकार किया। स्वामी ज्ञानानन्द स्वयं प्रच्छन्न क्रांतिकारी थे और अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र कार्यवाही के पक्षधर थे। राजपूताना तथा मध्यभारत के राजाओं, महाराजाओं और सामंतों पर भी स्वामी ज्ञानानन्द का बड़ा प्रभाव था। उनके साथ सम्पर्क हो जाने से केसरीसिंह को राजपूताना के नरेशों एवं सामंतों पर प्रभाव बढ़ाने में सहायता मिली। ई.1902 में स्वामी ज्ञानानंद ने ठाकुर केसरीसिंह को मण्डल का प्रतिनिधि बनाकर महामंडल का संकट दूर करने के लिये कलकत्ता भेजा। उन्होंने महाराजा दरभंगा को समझा-बुझा कर महामण्डल के प्रधान पद पर बने रहने के लिये पुनः तैयार किया।

क्षत्रिय जाति को गौरवमयी बनाने के प्रयास

ठाकुर केसरीसिंह ने 18-19 वर्ष की अवस्था में ही जातीय एवं सामाजिक सुधारों के कार्य में उत्साह पूर्वक भाग लेना आरंभ कर दिया था। वे इतिहास के प्रखर विद्यार्थी थे। भारतीय इतिहास में क्षत्रिय जाति की भूमिका के सम्बन्ध में उनकी अगाध आस्था और विश्वास था। उनका विचार था कि यदि क्षत्रिय जाति के लोग सामाजिक पतनावस्था के गर्क से निकाल लिये जायें और उन्हें अपने जातीय गौरव और राष्ट्रीय दायित्व के प्रति जाग्रत कर दिया जाये तो देश का इतिहास बदल सकता है। इसलिये उन्होंने सामाजिक कुरीतियों, कुप्रथाओं एवं रूढ़ियों के विरुद्ध जागृति एवं संगठन का कार्य प्रारंभ किया। उन्होंने राजस्थान के राजाओं एवं जागीरदारों में राष्ट्रीय भावना भरने का प्रयत्न किया और उन्हें अपने गौरवपूर्ण अतीत का स्मरण करवाया।

चेतावणी रा चूंगटिया

फरवरी 1903 में भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड कर्जन ने एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण के अवसर पर दिल्ली में भारतीय नरेशों का एक बहुत बड़ा दरबार आयोजित किया। राजस्थान के समस्त राजाओं ने इस सम्मेलन में भाग लेने की स्वीकृति दे दी। ई. 1818 में हुई संधि के आधार पर मेवाड़ के महाराणा फतहसिंह ने इस सम्मेलन में भाग लेने से इन्कार कर दिया। इस पर अंग्रेजों ने उन्हें मेवाड़ की गद्दी से हटा देने की धमकी दी। अन्ततः कुछ शर्तों पर महाराणा फतहसिंह सम्मेलन में भाग लेने के लिये तैयार हो गये। जब महाराणा सम्मेलन में भाग लेने के लिये दिल्ली रवाना हुए तो कुछ लोगों को यह बात बुरी लगी और उन्होंने महाराणा द्वारा अंग्रेजों की मातहती स्वीकार करने तथा अपमानजनक तरीके से दिल्ली दरबार में उपस्थित होने की प्रवृत्ति का विरोध करने का निर्णय लिया। कुछ सरदारों ने एकत्रित होकर बारहठ केसरीसिंह से इस समस्या का हल निकालने का आग्रह किया।

डॉ. कन्हैयालाल राजपुरोहित ने इस घटना का बड़ा रोचक वर्णन किया है- ‘कोई चारा नहीं देखकर महाराणा ने कुछ शर्तों पर दिल्ली दरबार में शामिल होना स्वीकार किया। इस समाचार से राजस्थान स्तब्ध रह गया। जयपुर में भिण्डों के रास्ते पर स्थित जोबनेर ठाकुर कर्णसिंह की हवेली पर चर्चा का यही प्रमुख विषय था। वहां कर्णसिंह, केसरीसिंह बारहठ और राव उमरावसिंह के बीच यही सलाह मशविरा हो रहा था कि भारतीयों के सम्मान की रक्षा कैसे हो। किसी खास नतीजे पर नहीं पहुँच पाने के कारण ये तीनों व्यक्ति चांदपोल दरवाजे के बाहर स्थित मलसीसर की हवेली पहुँचे। मलसीसर ठाकुर भूरसिंह वहाँ राव गोपालसिंह खरवा, हरीसिंह लाडखानी व सज्जनसिंह खंडेला के साथ इसी विषय पर मंत्रणा कर रहे थे। वहाँ यह तय हुआ कि चूंकि मेवाड़ के महाराणा, दीर्घ काल से भारतीय स्वातंत्र्य समर को नेतृत्व देते आ रहे हैं अतः उनका दिल्ली दरबार में जाना किसी तरह रोका जाये। इससे भारतीयों की प्रसुप्त स्वातंत्र्य चेतना को बल और उद्धत गोरी सत्ता को चुनौती मिलेगी।

राव गोपालसिंह ने सुझाव दिया कि राजस्थान के इतिहास में ऐसी संकटपूर्ण घड़ियों में चारणों ने ही अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा सही दिशा दी है। अतः केसरीसिंह को यह कार्य सौंपा गया। उन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा का चमत्कार दिखाते हुए उसी समय तेरह सोरठों की रचना की। इन दोहों को सुनकर वहाँ उपस्थित समस्त जन अत्यंत प्रभावित हुए। उनका विचार था कि ये सोरठे इतने प्रभावशाली हैं कि यदि इन्हें महाराणा तक पहुंचा दिया जाये तो महाराणा दिल्ली दरबार में उपस्थित होने का विचार त्याग देंगे। चेतवाणी रा चूंगटिया शीर्षक से लिखे इन दोहों को महाराणा तक पंहुचाने का दायितव राव गोपालसिंह खरवा ने लिया। ……… दोहे क्या थे, हवा में सनसनाते तीर थे जिन्होंने महाराणा के मर्म को बींध दिया।

जब गोपालसिंह खरवा ये सोरठे लेकर महाराणा को देने के लिये चले तो महाराणा की ट्रेन उदयपुर छोड़ चुकी थी अतः ये सोरठे नसीराबाद रेल्वे स्टेशन पर महाराणा की नजर किये गये। इस सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी गोपालसिंह खरवा ने अपने एक पत्र में अपने भतीजे खेतसिंह को लिखा है- ‘क्षात्र शक्ति का भक्त बारहठ केसरीसिंहजी ए दोहा बणा कर महाराणा साहेब की सेवा में भेज्या। उण बगत महाराणा साहेब स्पेशल ट्रेन द्वारा उदयपुर सूं रवाना हो चुक्या हा। ये दोहा नसीराबाद की स्टेशन पर श्री दरबार के नजर हुआ, उण बगत फरमायो बतावे है कि यदि ये दूहा उदयपुर में ही मिल जाता तो म्है दिल्ली के लिए रवाना ही नहीं होता, परंतु अब तो दिल्ली पहुंच कर ही इस पर विचार करहां। दिल्ली पहुंच कर महाराणा साहब जो कुछ कर दिखाई वा संसार प्रसिद्ध बात है। यानी महाराणा साहेब दरबार में नहीं पधारया। जिण बगत महाराजा, नवाब और अमरावां सूं भरया दरबार में सम्राट को प्रतिनिधि लार्ड कर्जन महाराणा साहेब की खाली कुर्सी की तरफ देख रहयो हो, उण बगत उदयपुर राज्य की स्पेशल महाराणा साहेब को लिये हुए स्वतन्त्रता की वेदी चित्तौड़ की तरफ दौड़ रही ही।’

माना जाता है कि ब्रिटिश हुकूमत के दबाव और देश के दूषित वातावरण के प्रभाव के कारण महाराणा फतहसिंह दिल्ली पहुंच तो गये किंतु केसरीसिंह बारहठ द्वारा लिखे गये और गोपालसिंह खरवा द्वारा भेंट किये गये चेतावणी रे चूंगटियों को महाराणा पर इतना गहरा प्रभाव हुआ कि महाराणा दिल्ली जाकर बीमार हो गये और लार्ड कर्जन द्वारा आयोजित दिल्ली दरबार में सम्मिलित नहीं हुए। महाराणा ने औपचारिकता के नाते अपने दीवान को कर्जन के दरबार में भेज दिया। ब्रिटिश सरकार की यह भारी अवज्ञा थी किंतु वह खून का घूंट पीकर रह गई।          

डॉ. कन्हैयालाल राजपुरोहित ने दिल्ली में घटित हुए घटनाक्रम का उल्लेख इन शब्दों में किया है- ‘शब्दों की इस फटकार ने महाराणा को गहराई से सोचने के लिये विवश कर दिया। वे अपने दिल्ली शिविर में इसी उधेड़-बुन में थे कि कया किया जाए? इतने में कानोता के ठाकुर नारायणसिंह व उनके साथ गुप्त वेश में अलवर नरेश जयसिंह महाराणा के शिविर में पहुँचे। जयपुर की घटनाओं का ब्यौरा देते हुए उन्होंने कहा यदि आप घोड़ों से उदयपुर जाना चाहें तो हम इस समय ऐसी व्यवस्था करके आये हैं जिसके अनुसार दिल्ली से बसवा तक अलवर राज्य का प्रबंध होगा। बसवा से जहाजपुर तक जयपुर राज्य का और जहाजपुर से चित्तौड़ तक राव गोपालसिंह खरवा का। हर मील पर घोड़ा तैयार मिलेगा। दिल्ली की सारी व्यवस्था जोधपुर के सर प्रताप संभालेंगे। निश्चय को बल मिला। महाराणा ने दिल्ली दरबार में नहीं जाने को दृढ़ निश्चय कर लिया और उसकी सूचना सम्बन्धित व्यक्तियों को दे दी गई। स्पेशल रेलगाड़ी को उदयपुर लौटाने की व्यवस्था की जाने लगी।

ठाकुर नारायणसिंह कानोता का पुत्र अमरसिंह उन दिनों इम्पीरियल कैडेट की हैसियत से दिल्ली दरबार में भाग लेने आया हुआ था। उसने अपनी डायरी में इस घटना का पूरा विवरण दिया है। इस डायरी के अनुसार अमरसिंह ने आधी रात को सर प्रताप को जगाकर अपने पिता का संदेश दिया कि महाराणा मर जायेंगे पर दरबार में नहीं जायेंगे। सर प्रताप ने उसी समय वायसराय के सचिव लारेन्स को इस बारे में सूचित कर दिया। वस्तुस्थिति बताकर उसे चेतावनी भी दी कि यदि महाराणा पर अनुचित दबाव डाला गया और बदले की कार्यवाही की गई तो बात बिगड़ जायेगी। दिल्ली में सभी नरेशों के लाव लश्कर सहित पड़ाव हैं और उनकी सहानुभूति महाराणा के साथ है। सचिव से सूचना मिलने पर कर्जन ने स्थिति को भांप लिया और मन मसोस कर वह संधि स्वीकार कर ली।

डॉ. कन्हैयालाल राजपुरोहित लिखते हैं- ‘जिस समय दिल्ली का दरबार हो रहा था, मेवाड़ के महाराणा की कुर्सी खाली पड़ी थी। महाराणा की स्पेशल ट्रेन उदयपुर की ओर बढ़ रही थी। कर्जन खून का घूंट पीकर रह गया। साम्राज्यवादी दंभ पर भारतीय स्वाभिमान की यह करारी चोट थी। केसरीसिंह के मार्मिक उद्धारों ने यह चमत्कार कर दिखाया था। चेतावणी रा चूंगट्या वस्तुतः राजस्थान की आत्मा की पुकार थी जिसे अनसुनी करना संभव नहीं था।’

महाराणा के इस प्रकार लौट जाने को अखबारों ने बड़ी-बड़ी सुर्खियां देकर छापा। चेतावणी रा चूंगट्या के प्रभाव का मूल्यांकन करते हुए सुप्रसिद्ध इतिहासकार श्री रघुबीरसिंह गहलोत ने लिखा है- ‘……… राजस्थान पर अंग्रेजों का पंजा इतना सुदृढ़ता पूर्वक जम चुका था और वह निरंतर इतना अधिक जकड़ता जा रहा था कि उनके साथ अपनी जान झौंकने वाले उन्हें वहाँ न मिले किन्तु उनका यह निरन्तर बढ़ता हुआ रोष और विरोध अन्त में बारहठ केसरीसिंह की वाणी में फूट ही पड़ा और महाराणा जवानसिंह, शंभूसिंह तथा सज्जनसिंह द्वारा स्वीकृत परंपरा के अनुसार उनके उत्तराधिकारी महाराणा फतेहसिंह ने लार्ड कर्जन के बुलावे पर सम्राट एडवर्ड के राज्यारोहण के उपलक्ष में होने वाले दिल्ली दरबार में सम्मिलित होना बहुत ही अनिच्छा पूर्वक स्वीकार कर जब वह दिल्ली के लिए रवाना हुआ तब तो बारहठ केसरीसिंह से रहा न गया, राजपूत नरेशों में प्रमुख पूज्य हिन्दुआ सूरज के भी उसने चेतावणी का चुंगट्या ले ही लिया और गरजती हुई हुंकार से उसने प्रताप और राजसिंह के उस वंशज से पूछा।  इस चेतावनी ने फतेहसिंह के सुप्त गौरव को जगा दिया। दिल्ली पंहुच कर भी वह दरबार में नहीं गया; वहाँ उसकी कुर्सी खाली ही रही। उस रिक्त स्थान को देखकर जहाँ लार्ड कर्जन ने गहरी निश्वासें लीं, वहीं उस खाली कुर्सी की गाथा ने सारे राजस्थान में नवीन आशा और स्फूर्ति की लहर दौड़ा दी। ई.1903 की इस अनपेक्षित अविश्वसनीय घटना का ठीक-ठीक ऐतिहासिक महत्व तथा राजैतिक प्रभाव अब तक नहीं आंका गया है। तिलमिला देने वाली इस तीव्र उपेक्षा के बाद भी महाराणा फतेहसिंह को कुछ भी कहने-सुनने की लार्ड कर्जन को हिम्मत नहीं हुई, जिससे अंग्रेजों के कठोर शासन के विरुद्ध राजस्थानी नरेशों के हृदयों में अब धीरे-धीरे प्रतिक्रिया की भावना उत्पन्न होने लगी और वहाँ के साधारण जन समाज में भी एक नूतन साहस का संचार हुआ।

अक्षर के स्वरूप पर शोध कार्य

ई.1903 में केसरीसिंह ने अक्षर के स्वरूप पर शोध कार्य आरम्भ किया। यह अपने आप में एक अभिनव योजना थी।

राजपूत एवं चारण छात्रों के लिये छात्रावास

ई.1904 के आसपास केसरीसिंह ने राजपूताने के राजपूत तथा चारण छात्रों के रहने के लिए छात्रावास खोलने आरंभ किये। उनकी इस योजना में सामाजिक तथा राजनीतिक क्रांति के बीज भी थे। यही कारण था कि इन छात्रावासों में युवकों को राष्ट्रीय चेतना व क्रांति की शिक्षा दी जाती थी। छात्रावासों में आने वाले छात्रों के अभिभावकों में भी विदेशी सत्ता के विरुद्ध क्रांतिकारी विचारों का प्रचार किया जाता था। इस कारण इन छात्रावासों के संचालन का कार्य क्रांतिकारी विचारों वाले व्यक्तियों को सौंपा गया।

अजमेर में क्षत्रिय कॉलेज की स्थापना की योजना

ई.1875 से अजमेर में लॉर्ड मेयो द्वारा स्थापित कॉलेज काम कर रहा था (यह वास्तव में स्कूल था न कि कॉलेज)। इस कॉलेज में राजपूत नरेश तथा राजकुमारों को ब्रिटिश राजभक्त शासक बनाने के उद्देश्य से शिक्षा दी जाती थी। ई.1904 में केसरीसिंह ने अजमेर में अलग क्षत्रिय कॉलेज स्थापित करने की योजना बनाई जिसमें साधारण राजपूत परिवारों के बच्चों को देशभक्त प्रजा बनाने की शिक्षा दी जा सके। वे कलकत्ता के नेशनल कॉलेज से अत्यंत प्रभावित थे जिसके प्रिंसीपल अरविंद घोष थे। इस योजना में राजस्थान के कई प्रमुख बुद्धिजीवी भी उनके साथ हो गये। उसी वर्ष अजमेर में आयोजित क्षत्रिय महासभा के अधिवेशन में क्षत्रिय कॅालेज की स्थापना का प्रस्ताव पास हुआ तथा उसके लिये एक कमेटी बनाई गई। केसरीसिंह ने इस योजना को क्रियान्वित करने के बहुत प्रयास किये किंतु दबाव, भय, और प्रमाद के कारण राजपूताने के नरेशों एवं सामंतों से उनको सहयोग नहीं मिला।

राजपूत हितकारिणी सभा में सक्रिय योगदान

केसरीसिंह ने क्षत्रियों में जागृति का शंख फूंकने की दृष्टि से समाज सुधार और शिक्षा प्रसार को माध्यम बनाया। क्षत्रिय समाज में व्याप्त विभिन्न प्रकार की सामाजिक बुराइयों एवं कुप्रथाओं जैसे- बहु विवाह, टीका प्रथा, बाल विवाह, दास प्रथा, विवाह और मृत्यु पर अपव्यय आदि के विरुद्ध प्रचार और संगठन सम्बन्धी कार्य किया। इस कार्य के लिये उन्होंने वॉल्टर कृत राजपूत हितकारिणी सभा को अपना मंच बनाया। यह सभा कविराजा श्यामलदास के प्रयत्नों से राजपूताना में तत्कालीन एजेण्ट टू दी गवर्नर जनरल कर्नल वॉल्टर की अध्यक्षता में ई.1880 में स्थापित हुई थी जिसकी शाखायें राजपूताना के लगभग सभी राज्यों में थी। इस सभा के वार्षिक अधिवेशन होते थे जिसमें प्रस्ताव तो पारित होते थे किंतु उन पर कोई कार्यवाही नहीं होती थी। केसरीसिंह ने इस सभा की कोटा शाखा को सक्रिय किया और उसके द्वारा उसके केन्द्रीय नेतृत्व को प्रभावी बनाने की चेष्टा की।

ई. 1905 में केसरीसिंह बारहठ ने राजपुत्र हितकारिणी सभा की कोटा शाखा के सम्मेलन में जाति उत्थान पर एक मार्मिक भाषण दिया। उन्होंने क्षत्रियों की पतित एवं दयनीय दशा पर चोट करते हुए कहा- ‘ईश्वर के घर से कभी किसी व्यक्ति या जाति को राज्य करने का परवाना नहीं मिलता। सब शक्ति का खेल है। आधिपत्य शक्ति में है। संसार शक्ति का उपासक है। शक्ति अपने सच्चे भक्त ही की भुजाओं में रहती है। वह उसी की बन जाती है और साथ में संसार को भी उसी का बनाती है। आपके पूर्वज भी शक्ति के अभेद भक्त थे, पूर्ण शक्ति सम्पन्न थे। शक्ति उन्हीं की हो चुकी थी ……… किंतु प्रमाद से शक्ति चली जाती है। शक्ति का वह चिर स्थान आज उजाड़ है।’

इसी सम्मेलन में उन्होंने राजपुत्र हितकारिणी सभा को अंग्रेजों के प्रभाव से मुक्त करने के लिये प्रस्ताव रखा कि उसका स्थायी अध्यक्ष अंग्रेज ए.जी.जी. नहीं रहे और उसके स्थान पर राजपूत नरेश हों जो प्रतिवर्ष बदलते रहें। उन्होंने सभा की कार्यवाही को हिन्दी में चलाने तथा विद्या प्रचार का कार्य मुख्य रूप से हाथ में लेने पर जोर दिया। यह ध्यान देने वाली बात है कि राजपूताना के समस्त राज्यों के प्रतिनिधि जहाँ एक स्वर से वॉल्टर को राजपुत्र हितकारिणी सभा का अध्यक्ष बनाये रखने के लिये उसके कार्यकाल में वृद्धि की मांग करते थे, वहीं ठाकुर केसरीसिंह केवल अकेले ऐसे व्यक्ति थे जो वॉल्टर के स्थान पर किसी भारतीय को इस सभा का अध्यक्ष बनाना चाहते थे। क्योंकि वे समझ गये थे कि वॉल्टर का उद्देश्य इस सभा के माध्यम से ए.जी.जी. के पद पर अपना कार्यकाल बढ़वाना मात्र है न कि क्षत्रिय समाज में व्याप्त कमजोरियों और कुरीतियों को दूर करना।

टीका प्रथा का विरोध

ई.1905 से 1913 के दौरान केसरीसिंह ने राजपूताने के ए.जी.जी. तथा राजपूताने की जोधपुर, बीकानेर, आदि रियासतों में उच्च पदों पर आसीन क्षत्रिय जाति के अधिकारियों, जागीरदारों आदि को जातीय सुधार हेतु तथा टीका प्रथा जैसी विनाशक रूढ़ियों की समाप्ति के लिये मिलकर प्रयास करने पर मनाने का प्रयास किया। उन्होंने टीका प्रथा की उत्पत्ति के कारणों एवं उसके दुष्प्रभावों पर हिन्दी एवं अंग्रेजी में एक विस्तृत लेख तैयार कर ए.जी.जी. को भेजा तथा हितकारिणी सभा के माध्यम से इस कुप्रथा को रोकने के लिये कार्यवाही करने पर बार-बार जोर दिया।

तकनीकी शिक्षा की योजना

ई. 1908 में केसरीसिंह ने ‘राजपूताना एण्ड सैन्ट्रल इन्डिया एज्यूकेशनल एसोसियेशन फॉर टेक्नीकल एज्यूकेशन’ की रूपरेखा तैयार की जिसके द्वारा इस प्रदेश से तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने हेतु विद्यार्थियों को जापान भेजने की व्यवस्था की जा सके। इस योजना के पीछे उद्देश्य यह था कि एसोसियेशन के खर्चे पर भारतीय विद्यार्थी उच्च शिक्षा की प्राप्ति के लिये इंगलैण्ड जाने के बजाय स्वतन्त्र और उन्नतिशील देश जापान भेजे जायें और वे वहाँ से लौट कर देश की वैज्ञानिक व तकनीकी उन्नति करने तथा भारत को उद्योगी एवं स्वतन्त्र राष्ट्र बनाने में सहायक सिद्ध हों।

गेम लॉ फॉर इण्डिया का विरोध

ई.1909-10 में ब्रिटिश सरकार ने हिन्दुस्तान के लिये सरकार का कानून (गेम लॉ फॉर इण्डिया) लागू किया। यह कानून परोक्ष रूप से भारतवासियों से शस्त्र आदि रखने की बची-खुची आजादी छीन लेने का षड़यंत्र था। केसरीसिंह ने खूले रूप से इसका विरोध किया और राजपूताने के सभी राजाओं को इस कानून को अस्वीकार करने के लिये आग्रह किया। उन्होंने अपने पत्र में लिखा कि इसके द्वारा शस्त्र स्वतन्त्रता पर लाइसेन्स का अंकुश रखकर परोक्ष रीति से आर्म्स एक्ट लागू किया जा रहा है, जिसके परिणाम पश्चिमी राज्यों के लिये आत्मघाती होंगे और अब तक नाम मात्र के लिये बची बचाई कुलदेवी स्वतंत्रता को सदा के लिये तिलांजलि दे दी जायेगी।

क्षात्र शिक्षा परिषद की योजना

ई.1911 में केसरीसिंह ने क्षात्र परिषद की योजना बनाई तथा क्षत्रिय जाति के नाम एक अपील जारी की जिसमें क्षत्रिय जाति के पुनरुद्धार का आह्वान करते हुए क्षत्रिय बालकों के लिये ऐसी शिक्षा पद्धति प्रारम्भ करने को कहा गया जिससे सर्वसाधारण राजपूतों को सुशिक्षित, सुशील, सदाचारी एवं सच्चा क्षत्रिय बनाया जा सके। इस योजना में प्राथमिक शिक्षा को प्रधानता देते हुए उसको इतनी सुलभ, सस्ती और विस्तृत बनाने का प्रयास किया गया कि जिसका लाभ गरीब से गरीब राजपूत उठा सके। इसके लिये स्थानीय और प्रांतीय छात्रालयों की स्थापना का प्रस्ताव किया गया।

यह अपील इतनी मार्मिक थी कि बंगाल के देशभक्तों ने कहा कि यह अपील सिफ क्षत्रिय जाति के लिये न होकर सम्पूर्ण भारतीय जाति के नाम निकालनी चाहिये थी। ब्रिटिश सरकार ने इसमें राजद्रोह के बीज देखे। उसके अनुसार क्षात्र परिषद का उद्देश्य सशस्त्र क्रांति की शिक्षा देना था। केसरीसिंह ने यह अपील जोधपुर की राजकीय प्रेस में छपवाई थी। ब्रिटिश सकरार को इसका पता लगने पर जोधपुर महाराजा तथा उनके प्रधानमंत्री लेफ्टीनेंट जनरल सर महाराजा प्रतापसिंह संकट में पड़ गये। उन्होंने घबराकर केसरीसिंह के विरुद्ध ब्रिटिश सरकार को सहयोग दिया।

इस योजना को सफल करने के लिये केसरीसिंह ने राजपूताना के समस्त राजपूत नरेशों, श्रीमंतों, जागीरदारों आदि से पत्र व्यवहार शुरू कर दिया। एक प्रकार से इस योजना की क्रियान्विति में ही अपना जीवन समर्पित कर देने के विचार से उन्होंने कोटा महाराव को अपनी सेवा से मुक्त करने का पत्र दिया। उनकी योजना थी कि स्थान-स्थान पर जाकर धन एकत्र किया जाये और इस योजना को सफल बनाया जाये किंतु इससे पहले कि केसरीसिंह इस योजना को क्रियान्वित करते, वे 31 मार्च 1914 को ब्रिटिश सरकार का तख्ता उलटने के राजनैतिक षड़यंत्र के मुकदमे में शाहपुरा में गिरफ्तार कर लिये गये।

ब्र. धर्मव्रत ने लिखा है- ‘उन्होंने ई. 1911 में राजपूत जाति की सेवा में अपील निकाली। जिसके निकलते ही भारत की नौकरशाही चौकन्नी हो उठी। केसरीसिंहजी शिक्षा और संगठन का कार्य करते थे। वे स्वतंत्र क्षात्र शिक्षा और क्षात्र शिक्षा परिषद चलाते थे, जिसका ढांचा बड़ा मजबूत था। इसे डिगाया नहीं जा सकता था क्योंकि स्वजाति हित से प्रेरित होकर राजपूताना और मध्य भारत के नरेश एवं बड़े-बड़े सरदार उसमें सम्मिलित थे।’

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