चारण जाति
चारण जाति भारत की अत्यंत प्राचीन जातियों में’से है। आदित्यहृदयस्तोत्र में भगवान् सूर्य की वंदना सिद्धों एवं चारणों द्वारा सेवित कहकर की गई है। पुराणों एवं महाभारत आदि ग्रंथों एवं अनेकानेक देव स्तुतियों में इस जाति का उल्लेख गायन-वादन करने वाली सिद्ध, गंधर्व एवं विद्याधर आदि जातियों के साथ बहुत आदर पूर्वक किया गया है। भारतीय इतिहास के मध्य काल में यह जाति क्षत्रियों के लिये राजनतिक गुरु, वीरता की प्रोत्साहक, विपत्ति में सहायक एवं सब जातियों में पूज्य रही है। चारणों की वीरता से भारतीय इतिहास के पृष्ठ भरे हुए हैं।
सौदा बारहठ
चारण जाति के देथा गोत्र में आज से लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व बारू ने जन्म लिया। वह मेवाड़ नरेश महाराणा हम्मीर का समकालीन था। बारू की प्रेरणा एवं सहायता से महाराणा हम्मीर ने चित्तौड़ का दुर्ग फिर से प्राप्त किया। महाराणा हम्मीर ने प्रसन्न होकर उसे ‘सौदा बारहठ’ का खिताब दिया। तब से यह वंश बारहठ कहलाने लगा। इसी बारू को केन्द्रित करके मैथिलीशरण गुप्त ने रंग में भंग नामक एक लघु काव्य की रचना की है।
कृष्णसिंह बारहठ
बारू की 22वीं पीढ़ी के वंशज ठाकुर कृष्णसिंह बारहठ हुए। मेवाड़ प्रदेश के शाहपुरा राज्य में सरदार कृष्णसिंह के पूर्वजों की जागीर चली आती थी। कृष्णसिंह बारहठ, शाहपुरा राज्य के प्रथम श्रेणी के उमरावों तथा सरदारों से भी अधिक सम्मानित थे। कृष्णसिंह ने अपने बुद्धि बल से राजपूताना के समस्त नरेशों से सम्मानित पद प्राप्त किया था। वे अपने समय में राजपूताना और मध्य भारत में राजनीतिज्ञ के रूप में विख्यात थे। सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ कविराजा श्यामलदास, कृष्णसिंह के मामा थे। कविराजा श्यामलदास मेवाड़ की राजकीय सेवा में थे और महाराणा सज्जनसिंह के अत्यंत विश्वास पात्र एवं निकट थे। कृष्णसिंह बारहठ के तीन पुत्र हुए- केसरीसिंह, किशोरसिंह तथा जोरावरसिंह। उन्होंने अपनी जागीर में कृष्ण वाणी विलास नामक पुस्तकालय की स्थापना की थी। कृष्णसिंह विद्या-व्यसनी पुरुष थे तथा संस्कृत के पुजारी थे। इसलिये उन्होंने अपने पुत्रों के लिये संस्कृत शिक्षा की विशेष व्यवस्था की।
केसरीसिंह का जन्म एवं शिक्षा
केसरीसिंह का जन्म 21 नवम्बर 1872 को तत्कालीन मेवाड़ प्रदेश के अंतर्गत शाहपुरा (भीलवाड़ा) के निकट अपनी पैतृक जागीर के देवपुरा गांव में हुआ था। उनके जन्म के एक माह पश्चात उनकी माता का देहावसान हो गया। इस कारण उनका लालन-पालन उनकी दादी ने किया। आठ वर्ष की आयु में वे उदयपुर में गोपीनाथ शास्त्री के सानिध्य में विद्याध्ययन हेतु चारण पाठशाला में भर्ती कराये गये। गोपीनाथ शास्त्री बनारस के निवासी थे और संस्कृत के उद्भट विद्वान थे। उन्होंने केसरीसिंह में हिन्दू धर्म, दर्शन और अध्यात्म के संस्कार डाले जिनसे केसरीजी के अद्भुत व्यक्तित्व का विकास हुआ। ई.1890 के अन्त तक वे चारण पाठशाला में पढ़ते रहे।
विवाह एवं संतान
ई.1891 में केसरीसिंह का विवाह कोटा राज्य के कोटड़ी ठिकाने में कविराजा देवीदान की बहिन माणिक कुंवर से हुआ। 25 मई 1893 को माणिक कुंवर की कोख से देश के प्रमुख क्रांतिकारियों में अपनी गिनती करवाने वाले वीर प्रतापसिंह बारहठ का जन्म हुआ।
व्यक्तित्व निर्माण में पिता तथा पिता के मामा का प्रभाव
केसरीसिंह बारहठ अनेक भारतीय भाषाओं के ज्ञाता, डिंगल के उत्कृष्ट कवि और महान देशभक्त थे। केसरीसिंह के व्यक्तित्व निर्माण में उनके पिता कृष्णसिंह बारहठ और पिता के मामा कविराजा श्यामलदास के मार्गदर्शन और शिक्षा-दीक्षा का काफी प्रभाव पड़ा। केसरीसिंह की शिक्षा संस्कृत में हुई थी पर उन्होंने संस्कृत और हिन्दी के अतिरिक्त प्राकृत, पाली, बंगला, मराठी एवं गुजराती भाषाओं का भी अध्ययन किया था। केसरीसिंह के पिता कृष्णसिंह द्वारा स्थापित कृष्ण वाणी विलास पुस्तकालय की पुस्तकों से भी केसरीसिंह को बहुत लाभ हुआ। स्वाध्याय की आदत उन्हें इसी पुस्तकालय से पड़ी।
स्वामी दयानंद सरस्वती का प्रभाव
राजपूताने में राजनीतिक चेतना का अलख जगाने में स्वामी दयानंद सरस्वती का काफी बड़ा योगदान रहा है। अपने भाषणों में वह वैदिक सभ्यता की श्रेष्ठता बताते थे और विदेशी सभ्यता का विरोध करते थे। स्वामीजी के भाषणों को सुनकर जनता अपनी संस्कृति व अपने देश के गौरव का अनुभव करने लगी। स्वामीजी के शिष्यों ने राजपूताने में अंग्रेजों के खिलाफ प्रचार में काफी योगदान दिया। केसरीसिंह के पिता कृष्णसिंह बारहठ स्वामी दयानंदजी के पट्ट शिष्यों में थे। केसरीसिंह पर भी स्वामीजी के विचारों का बहुत प्रभाव पड़ा। केसरीसिंह बारहठ को राष्ट्रीय प्रेम स्वामी दयानंद सरस्वती से प्राप्त हुआ। केसरीसिंह की भांति श्यामजी कृष्ण वर्मा भी स्वामी दयानंद के शिष्य थे जिन्होंने देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये भारतीय युवकों में सशस्त्र क्रांति के बीज बोये।
मैजिनी की जीवनी का प्रभाव
युवावस्था में ही केसरीसिंह को इटली के राष्ट्रपिता मैजिनी का जीवन चरित्र पढ़ने का अवसर मिला। वे इस चरित्र से इतने प्रभावित हुए कि मैजिनी को अपना राजनीतिक गुरु मानने लगे।
उदयपुर महाराणा की सेवा में
केसरीसिंह अपने पिता और पिता के मामा कविराजा श्यामलदास के मार्गदर्शन में मेवाड़ राज्य की राजकीय सेवा में संलग्न हो गये। महाराणा सज्जनंिसंह ने केसरीसिंह की कविता पर मुग्ध होकर केसरीसिंह को जागीर में कई ग्राम दिये। महाराणा सज्जनसिंह के देहावसान के बाद जब कविराजा श्यामलदास ने धीरे-धीरे शासन कार्य से हाथ खींच लिया तब महाराणा फतहसिंह, ठाकुर कृष्णसिंह और उनके पुत्र केसरीसिंह को अपना विश्सवासपात्र बनाकर उनके द्वारा समस्त गोपनीय कार्य करवाने लगे।
श्यामजी कृष्ण वर्मा और केसरीसिंह
महाराणा फतहसिंह को अंग्रेज सरकार के साथ उठने वाले विवादों से निपटने के लिये ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जो अंग्रेजी भाषा का विद्वान, राजनीति पटु तथा कूटनीति में प्रवीण हो। ठाकुर केसरीसिंह को राज्य का प्रधानमंत्री तलाशने का कार्य सौंपा गया। केसरीसिंह ने देश के सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी श्यामजी कृष्ण वर्मा को इस कार्य के लिये चुना। केसरीसिंह के बुलावे पर श्यामजी कृष्ण वर्मा सितम्बर 1893 में उदयपुर आये। श्यामजी कृष्ण वर्मा भारत के क्रांतिकारियों में सम्मानजनक स्थान रखते थे। उस समय तक श्यामजी कृष्ण, अंग्रेजी शासन के विरोध के कारण अंग्रेजों के शत्रु के रूप में विख्यात हो चुके थे। आगे चलकर इन्होंने कई महत्वपूर्ण कार्य किये। महाराष्ट्र के कमिश्नर रेंड और उसके सहयोगी लेफ्टीनेंट आयर्स्ट को गोली मारने में उन्होंने प्रमुख भूमिका निभाई जिसके कारण श्यामजी कृष्ण वर्मा को भारत छोड़कर जाना पड़ा। बाद में उन्हीं के शिष्य मदनलाल धींगरा ने भारत के सचिव कर्जन विली को गोली मारी। श्यामजी कृष्ण वर्मा की नियुक्ति से महाराणा और अंग्रेजों के सम्बन्धों पर विपरीत असर पड़ा तथा केसरीसिंह के पिता कृष्ण सिंह भी अंग्रेजों की आंख की किरकिरी बन गये। पोलिटिकल एजेन्ट कर्नल माइल्स के निर्देश पर ठाकुर कृष्णसिंह को मेवाड़ की राजकीय सेवा से निकाल दिया गया।
कोटा नरेश की सेवा में
कृष्णसिंह के मेवाड़ छोड़ देने के कुछ समय बाद केसरीसिंह भी कोटा चले गये। ब्र.धर्मव्रत ने लिखा है- ‘वैशाख सं. 1956 (ई.1899) में कोटा नरेश उम्मेदसिंह की गुणग्राहकता ने केसरीसिंह को खींचा और वे कोटा में जाकर रहने लगे।’ डॉ. देवीलाल पालीवाल, डॉ. ब्रजमोहन जावलिया एवं फतहसिंह मानव ने लिखा है- ‘जब कोटा राज्य के शासक महाराव उम्मेदसिंह ने उनके गुणों की प्रशंसा सुनी तो महाराव ने केसरीसिंह को ई.1900 में कोटा बुला लिया और 60 रुपये मासिक पर नियुक्ति देकर उनको सम्मानित दरबारी बनाया।’
सुपरिन्टेण्डेण्ट ऑफ एथ्नोग्राफी
ई.1902 में केसरीसिंह को ब्रिटिश भारत में विभिन्न जातियों तथा पेशों आदि के सम्बन्ध में सूचनाएं एकत्र करने का विशेष कार्य देकर सुपरिन्टेंडेंट ऑफ एथ्नोग्राफी के पद पर नियुक्त किया गया। केसरीसिंह ई.1907 तक यही कार्य करते रहे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता