Saturday, July 27, 2024
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सशस्त्र क्रांति की ओर

केसरीसिंह ने उदयपुर तथा कोटा राज्य में कार्य करते हुए भारतीय समाज की पतितावस्था को निकट से अनुभव किया। साथ ही अंग्रेज सरकार की शक्ति, सीमा तथा कमजोरियों को भी समझा। उन्होंने राजपूती राज्यों की कमजोरी भी देखी जिससे उन्हें विश्वास हो गया कि जब तक राजपूताना की राजपूत एवं चारण आदि सैनिक जातियां अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार नहीं उठायेंगी तब तक राजपूताने से ब्रिटिश शासन का अन्त नहीं होगा। यदि एक बार राजपूताने से अंग्रेज शक्ति के पैर उखड़ गये तो अन्ततः पूरे देश से उसके पैर उखड़ जायेंगे किंतु ऐसा संभव कर दिखाने का उन्हें कोई उपाय दिखाई नहीं देता था। जब वे घोर निराशा एवं विद्रोहजनित मानसिकता में पंहुचे तो उनका सम्पर्क अर्जुनलाल सेठी और राव गोपाल सिंह खरवा से हुआ।

ई.1905 में बंगभंग के बाद पूरे देश में क्रांति की ज्वाला भड़क उठी। रासबिहारी बोस के नेतृत्व में देश के विभिन्न भागों में सशस्त्र क्रांति का आयोजन होने लगा। कई क्रांतिकारी राजस्थान में निरंतर आते रहते थे। अतः राजस्थान में भी क्रांति के लिये अच्छा दल बन गया जिसमें शाहपुरा के केसरीसिंह बारहठ, खरवा के गोपालसिंह, जयपुर के अर्जुनलाल सेठी, विजयसिंह पथिक, ब्यावर के सेठ दामोदरदास राठी व स्वामी कुमारानन्द मुख्य थे। केसरीसिंह ने चारण जाति के कई नवयुवकों को क्रांतिकारी बनाया। राजस्थान, बंगाल और पंजाब के क्रांतिकारियों से केसरीसिंह का सीधा सम्पर्क था। राव गोपालसिंह बंगाल के प्रसिद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस और केसरीसिंह बारहठ से गुप्त रूप में सम्पर्क स्थापित किये हुए थे।

पण्डित विष्णुदत्त त्रिवेदी और केसरीसिंह बारहठ

राजस्थान में गुप्त क्रांतिकारी कार्यों के प्रचार-प्रसार में मिर्जापुर निवासी पण्डित विष्णुदत्त त्रिवेदी का काफी हाथ रहा। उसका सम्बन्ध बंगाल के क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति से रहा था। वह मारवाड़ के गांवों में घूम-घूम कर वह क्षत्रिय बालकों का यज्ञोपवीत संस्कार कराने की ओट में विप्लव की भावनाएं भरता था। वह केसरीसिंह का विश्वासपात्र साथी बन गया।

कोटा के क्रांतिकारियों का नेतृत्व

अर्जुनलाल सेठी की ही तरह केसरीसिंह बारहठ ने भी कोटा में क्रांतिकारियों का संगठन बनाया जिनमें डॉ. गुरुदत्त, लक्ष्मीनारायण और हीरालाल लहरी प्रमुख थे। केसरीसिंह का विश्वास था कि स्वराज्य प्राप्ति के लिये राजस्थान में भी बंगाल में कार्य कर रही गुप्त समितियों के समान संगठनों की स्थापना होनी चाहिये।

अभिनव भारत के सम्पर्क में

अर्जुनलाल सेठी और राव गोपाल सिंह खरवा के द्वारा केसरीसिंह ‘अभिनव भारत’ नामक संस्था के सम्पर्क में आये। सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी लाला हरदयाल, रासबिहारी बोस और शचीन्द्रनाथ सान्याल इस गुप्त क्रांतिकारी दल के सदस्य थे। इस संस्था से सम्पर्क में आने के बाद केसरीसिंह सशस्त्र क्रांतिकारी विद्रोह के लिये राजपूताना में शस्त्रास्त्र एकत्रित करने, साधन जुटाने, लड़ाकू सैनिक जातियों एवं ब्रिटिश फौजों में ब्रिटिश विरोधी विद्रोह के विचारों के प्रसार में लग गये। प्रारंभ में केसरीसिंह के साथ खरवा ठाकुर राव गोपालसिंह और जयपुर के अर्जुनलाल सेठी राजपूताना में अभिनव भारत के प्रमुख सूत्रधार बने। बाद में केसरीसिंह के अनुज जोरावरसिंह, पुत्र प्रतापसिंह और जामाता ईश्वरदान आशिया भी इस संगठन में शामिल हो गये। उन्होंने अपने दो रिवॉल्वर क्रांतिकारियों को दिये और कारतूसों का एक पार्सल बनारस के क्रांतिकारियों को भेजा।

वीर भारत सभा

ई.1910 में केसरीसिंह ने राजपूताने के नरेशों, जागीरदारों, राजपूत नवयुवकों आदि को क्रांति के कार्य में व्यापक स्तर पर सम्मिलित करने की दृष्टि से वीर भारत सभा की स्थापना की। यह अभिनव भारत की ही शाखा थी। केसरीसिंह के प्रभाव से राजपूताने के कई नरेश, सामंत और प्रभावशाली व्यक्ति इस सभा के सदस्य बने। राजपूताना में गुप्त क्रांतिकारी संगठन ने निम्नलिखित कार्य निश्चित किये- क्षत्रियों एवं अन्य लड़ाकू जातियों में राष्ट्रीय विचारों का प्रसार, शिक्षा कार्य के माध्यम से नवयुवकों को क्रांतिकारी कार्य में शामिल करना, क्रांति के लिये धन और शस्त्रास्त्र एकत्र करना, राजपूताना की फौजों में बगावत के विचार प्रसारित करना।

धन संग्रहण के प्रयास

केसरीसिंह का विचार था कि बंगाल की गुप्त समितियों के नमूने पर राजस्थान में भी गुप्त समितियां गठित की जायें और नवयुवकों को उसी तरह से राष्ट्रसेवा के लिये प्रेरित किया जाये। उनका यह भी विचार था कि जनमत को पक्ष में करने के लिये क्रंतिकारी साहित्य का वितरण किया जाना चाहिये। इस संगठन का अंतिम ध्येय स्वराज्य था। अपनी लक्ष्यसिद्धि के लिये धन प्राप्त करने हेतु क्रंतिकारियों के इस समूह ने कसरीसिंह बारहठ व उनके प्रकुख सयोगियों के मार्गदर्शन में दो डकैतियों की योजना बनाई।

जैन उपासरे पर छापा

बंगाल के क्रांतिकारी आर्थिक साधन जुटाने के लिये राजनीतिक डाके डाला करते थे। राजपूताने के क्रांतिकारियों ने भी उनका अनुसरण किया। मोतीचंद, विष्णुदत्त, माणिकचंद, जयचंद, केसरीसिंह, व उनके छोटे भाई जोरावारसिंह ने निमाज (निमेज-आरा) में जैन उपासरे पर छापा मारा। विष्णुदत्त व मोतीचंद पकड़ लिये गये। उन्हें सख्त सजाएं दी गईं। माणिकचंद, जयचंद एवं जोरावरसिंह फरार हो गये।

प्यारेलाल साधू की हत्या

जोधपुर के एक धनिक साधू की हत्या का निश्चय किया गया। योजनानुसार प्यारेलाल साधू को जोधपुर से कोटा लाने के लिये रामकरन नामक एक क्रांतिकारी को जोधपुर भेजा गया जो साधू को सफलता पूर्वक 23 जून 1912 को कोटा लिवा लाया। तत्पशचात साधू को दूध में मिलाकर जहर दे दिया गया परंतु जब इसका प्रभाव नहीं हुआ तो 25 जून 1912 को हीरालाल लाहिरी ने साधू की हत्या कर दी। जबरदस्त खोजबीन व जांच पड़ताल के बावजूद पुलिस किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं कर सकी। सुखवीरसिंह ने लिखा है- ‘क्रांतिकारियों को अपना कार्यक्रम चलाने के लिये धन की आवश्यकता होती तो कई बार वे डकैती करके अपना काम चलाते थे। …….. ई. 1912 में जोधपुर के प्यारेराम साधु की कोटा में हत्या कर दी गई। हत्या करने वालों में लक्ष्मीलाल, हीरालाल, केसरीसिंह नारायणसिंह जोरावरसिंह और त्रिवेणी दास उपनाम ‘लेहरी’ थे। इस साधु को फुसलाकर कोटा ले गये और वहाँ लेहरी ने कटार भौंककर हत्या कर दी। वहाँ राजपूत बोर्डिंग में मारकर लाश गाड़ दी गई। लगभग 6 माह बाद लाश निकालकर जला दी गई।’ डॉ. कन्हैयालाल राजपुरोहित ने लिखा है- ‘कोटा के दल को इस समय पंजाब के क्रांतिकारी नेता बाबा गुरदत्तसिंह की कामागाटामारु योजना में सहायता देने के लिये धन की आवश्यकता थी।’

छात्रावासों पर रोक के सम्बन्ध में सर कोल्विन का पत्र

भारत सरकार की ओर से सर कोल्विन ने जयपुर नरेश सवाई माधोसिंह को केसरीसिंह और उसके साथियों पर अंकुश लगाने के सम्बन्ध में 7 अगस्त 1914 को परम गोपनीय पत्र लिखकर सूचित किया कि- ‘दो वर्ष पहले कोटा में हुए राजनीति से प्रेरित हत्याकाण्ड में देशी रियासतों की पुलिस कुछ भी पता नहीं लगा सकी। इससे पता लगता है कि देशी राज्यों में राजद्रोह की गतिविधियां चल रही हैं और रियासतें उनसे निबटने में सक्षम नहीं हैं। अब जो सूत्र मिले हैं, उनसे पता चला है कि जोधपुर और कोटा में केसरीसिंह तथा जयपुर में अर्जुनलाल राजद्रोह की गतिविधियों में संलग्न हैं। राजद्रोह की गतिविधियां, शिक्षा के माध्यम से फैलाई जा रही हैं। इनमें जयपुर, जोधपुर तथा कोटा में बनाये गये छात्रावासों के शिक्षकों और विद्यार्थियों का हाथ है। अतः देशी रियासतें अपने पुलिस तथा गुप्तचर विभागों में सुधार लायें तथा स्कूल और कॉलेजों पर कठोरता से नियंत्रण करें।’

सशस्त्र क्रांति के लिये राजपूत सैनिकों से सम्पर्क

केसरीसिंह किसी भी कीमत पर देश में सशस्त्र क्रांति करने के लिये कटिबद्ध थे। मंगल पाण्डे का उदाहरण उनके सामने था। दुर्भाग्य वश कुशल नेतृत्व के अभाव में 1857 की क्रांति असफल हो गई थी किंतु केसरीसिंह का मानना था कि यदि ढंग से योजना तैयार की जाये तथा सैनिकों को कुशल नेतृत्व प्रदान किया जाये तो विभिन्न सेनाओं में कार्यरत राजपूत सैनिकों से सम्पर्क करके उनसे सफल सशस्त्र क्रांति करवाई जा सकती है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये केसरीसिंह ने रियासती एवं ब्रिटिश सेना के सैनिकों से सम्पर्क किया। ब्रिटिश सरकार की एक गुप्त रिपोर्ट में कहा गया है कि केसरीसिंह राजपूत रेजिमेंट से सम्पर्क करना चाह रहा था। माना जा सकता है कि केसरीसिंह को अपने इस उद्देश्य में सफलता प्राप्त नहीं हुई। 1857 और 1914 के वातावरण में बहुत अंतर आ चुका था। 1857 की क्रांति को छोटे जागीरदारों का समर्थन प्राप्त था किंतु अब न कोई छोटा जागीरदार और न कोई बड़ा राजा अंग्रेजों को भारत से जाने देने का समर्थन करता था। इसलिये केसरीसिंह और उनके साथियों को अपना रास्ता स्वयं चुनना था।

सशस्त्र क्रांति की तैयारी

ई.1913 तक यूरोप में युद्ध के बादल मण्डराने लगे थे। जर्मनी से ब्रिटेन का युद्ध अवश्यम्भावी प्रतीत हो रहा था। इस स्थिति का लाभ उठाने की दृष्टि से क्रांतिकारियों ने धन और हथियार एकत्र करने व सैनिक क्रांति की तैयारियां तेज कर दीं। विभिन्न छावनियों में देशी सेनाओं के विद्रोह के ठोस प्रयास शुरू हुए। रासबिहारी बोस द्वारा तैयार की गई इस योजना में राजस्थान में इस कार्य को सम्पन्न करने का दायित्व केसरीसिंह, राव गोपालसिंह खरवा, अर्जुनलाल सेठी, व प्रतापसिंह आदि को सौंपा गया। क्रांति का दिन 21 फरवरी 1914 निश्चित किया गया। स्वतंत्रता का घोषणा पत्र तैयार किया गया। विद्रोह के स्थान निश्चित किये गये और राजस्थान में विभिन्न छावनियों में गुप्त रूप से विद्रोह के संगठन का कार्य शुरू हुआ जिसमें प्रधानतः जोरावरसिंह, प्रतापसिंह व सोमदत्त लहरी सक्रिय थे।

केसरीसिंह की गिरफ्तारी

अंग्रेज सरकार को राजस्थान में अपने विरुद्ध गुप्त राजनैतिक कार्यवाहियों का आभास मिल चुका था। केसरीसिंह के विचारों, संगठन कार्यों व प्रचार की गतिविधियों के कारण उन पर पूरा संदेह था लेकिन राजस्थान में उनके प्रभाव व राजाओं व सामन्तों से उनके अच्छे सम्बन्धों के कारण बिना प्रमाण गिरफ्तार करना कठिन था। सरकार अवसर की खोज  में थी। यह मौका दिल्ली षड़यंत्र केस की जांच के सिलसिले में मिला। दिल्ली षड़यंत्र केस में प्रसिद्ध क्रांतिकारी मास्टर अमीरचंद के घर की तलाशी ली गई। इस तलाशी में पुलिस के हाथ उन लोगों की सूची लगी जिन्हें लिबर्टी पेम्फलेट भेजा गया था। उसमें अर्जुनलाल सेठी का भी नाम था। वे उस समय तक वर्धमान विद्यालय इन्दौर ले जा चुके थे। उन्हें पकड़कर दिल्ली लाया गया किंतु कोई सूत्र हाथ नहीं लगा। इसी समय उनकी इन्दौर पाठशाला का एक अध्यापक शिवनारायण बम्बई में पकड़ा गया। वह पहले जोधपुर में चारण छात्रावास का व्यवस्थापक रह चुका था। उसने आरा (निमेज) कांड की सारी जानकारी पुलिस को दे दी। आरा केस की जांच के दौरान लगभग एक वर्ष पुरानी घटना जोधपुर के महंत प्यारेराम के रहस्मय ढंग से लापता हो जाने का मामला पुनः उठाया गया। लम्बे समय से केसरीसिंह पर झपटने को उद्धत ब्रिटिश सरकार ने प्यारेराम की हत्या का केस बनाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उनके साथ राजस्थान में कार्यरत लगभग सभी क्रांतिकारी पकड़ लिये गये। कोटा केस में रामकरण और लक्ष्मीलाल सरकारी गवाह बन गये।

डॉ. के. एस. सक्सेना ने लिखा है- ‘पुलिस द्वारा क्रांतिकारियों को पकड़ने में सहायता तब मिली जब रामकरण द्वारा केसरीसिंह बारहठ को गुप्त भाषा में लिखा गया एक पत्र पकड़ा गया। इस पत्र में लिखा गया था कि आटा अब तक खराब हो गया होगा। अतः उसे चम्बल में मछलियों को खिलाने के लिये फैंक दिया जाये। पुलिस ने इस आटे का अर्थ लाश से लिया और केसरीसिंह बारहठ, हीरालाल लाहिरी, रामकरण और हीरालाल जालौरी को साधू की हत्या किये जाने के अपराध में गिरफ्तार कर लिया गया। मुकदमे के दौरान लक्ष्मीलाल कायस्थ मुखबिर बन गया। केसरीसिंह बारहठ, हीरालाल लाहिरी और रामकरण को 20-20 वर्ष का कारावास तथा हीरालाल जालौरी को सात वर्ष के कारावास का दंड दिया गया। केसरीसिंह की सारी सम्पत्ति जब्त कर ली गई।

प्रो. चिंतामणि शुक्ल एवम् डॉ. अवधेश कुमार शुक्ल ने लिखा है- ‘ई.1912 के लगभग अर्जुनलाल सेठी के मकान की जो तलाशी हुई थी उसमें दो पत्र सांकेतिक भाषा में मिले थे। इन्हीं पत्रों के आधार पर एक धनवान साधु प्यारेराम को जोधपुर से लाकर कोटा में उसकी हत्या कराने में ठाकुर केसरीसिंह, लाहेरी, रामकरण, हीरालाल जालोरी और लक्ष्मीलाल को पुलिस द्वारा दोषी ठहराया गया। यह मुकदमा आठ-दस मास चला। ठाकुर केसरीसिंह को 20 वर्ष का कारावास हुआ। 

डॉ. कांति वर्मा ने भी प्रो. चिंतामणि शुक्ल एवम् डॉ. अवधेश कुमार शुक्ल का समर्थन किया है कि अर्जुनलाल सेठी के मकान से दो सांकेतिक पत्र मिले। वे लिखती हैं- ‘1912 के लगभग अर्जुनलाल सेठी के मकान की तलाशी हुई जिसमें खुफिया पुलिस को दो पत्र ऐसे मिले जिनका अर्थ सांकेतिक भाषा में लिखे होने के कारण स्पष्ट नहीं था। इसमें लिखा था कि पुराना आटा मछलियों को डाल दिया जाये। खुफिया पुलिस के एक अधिकारी धर्मसिंह को इस पत्र का भेद लगाने का काम सौंपा गया। केसरीसिंह के एक मित्र रामकरण थे, उनकी बहिन का नाम प्रभावती था। वह भी क्रांतिकारी विचारों की थी और क्रांतिकारियों से मिली हुई थी। धर्मसिंह ने साधु के भेष में प्रभावती और उसके भाई रामकरण की बात सुन ली। प्रभावती ने अपने भाई से कहा कि पुराना आटा खाकर मछली मोटी हो गई होगी। धर्मसिंह समझ गया कि उस पत्र का निश्चय ही इस वाक्य से सम्बन्ध है। रामकरण को गिरफ्तार कर लिया गया और इस सिलसिले में केसरीसिंह आदि कई क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस ने यह मुकदमा बनाया कि प्यारेराम साधु को जोधपुर से बद्रीनाथ की यात्रा पर साथ ले चलने के बहाने से लाया गया। मार्ग में उसे कोटा के एक मकान में ठहराया गया जिसकी कुंजी केसरीसिंह बारहठ के पास रहती थी। वहीं उसकी हत्या की गई।

डॉ. जमनेश ओझा ने लिखा है- ‘ई.1914 में दिल्ली षड़यंत्र कांड में केसरीसिंह को 31 मार्च को गिरफ्तार कर लिया गया तथा अक्टूबर 6 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। अतएव बीस साल की जेल दी गई।

ब्र. धर्मव्रत ने लिखा है- ‘जब सरकार ने देखा कि भारतीय सेना में जो राजस्थानी राजपूत सिपाही और अफसर हैं, वे भी अपने असहाय बालकों के शुभ भविष्य और जातीय गौरव के पुनर्दर्शन की आशा से केसरीसिंह की सेवा को अमूल्य समझकर उत्साह पूर्वक सहयोग देने लगे हैं, तब ब्रिटिश सरकार व्यग्र हो गई। न सरकार ने सत्य की जांच की, न पड़ताल परन्तु ई.1914 की 31 मार्च को शाहपुरा नरेश को आगे रखकर सहसा केसरीसिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। केसरीसिंह को तीन महीने तक इन्दौर की छावनी में भील पलटन में बंद रखा गया। उसी समय दिल्ली षड़यंत्र, आरां केस आदि चल रहे थे। उनमें केसरीसिंह को फंसाने के लिये सरकार ने बहुत चेष्टायें कीं परन्तु निष्फल रही क्योंकि उस समय वे कानूनी प्रांत थे। तब सरकार ने चालाकी चली कि सम्राट का शासन उलट देने की नीयत के अभियोग में राजस्थान के किसी राजा के हाथ से सजा दिलायी जाये। जिससे प्रत्येक नरेश कांप जाये और क्षात्र शिक्षा का कार्य भी छिन्न-भिन्न हो जाये। साथ ही राज्यों में सरकारी पुलिस का भी द्वार खुल जाये। राजद्रोह के साथ एक कत्ल की पूंछ लगाना तो अंग्रेज सरकार का सनातन धर्म रहा है। सरकार ने कोटा को ही उपयुक्त समझा और केसरीसिंह का मुकदमा वहाँ ही चलाया। वहाँ पर प्रायः भारत के समस्त बड़े-बड़े प्रांतों के अंग्रेज पुलिस अधिकारी आये। ‘पायोनियर ‘और ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ सरदार केसरीसिंह के विरुद्ध आग उगल रहे थे। राजपूताना और मध्य भारत के सब नरेशों की आंखें कोटा पर लगी हुई थीं। क्योंकि देशी राज्यों में यह काण्ड अभूतपूर्व था। राजद्रोह का कोई भी प्रमाण सरकार को न मिला। सरकार को आशा थी कि वह अधीन राज्य को घुड़की से मना लेगी की परंतु केवल घुड़की से हाँ कह देने पर केसरीसिंह से सम्बंधित रियासतें व्यर्थ विपत्ति में पड़ जातीं। अतः साहसी कोटा दीवान रघुनाथ दास चौबे ने गला दबाये जाने पर भी इस प्रकरण में राजनैतिक अपराध होना स्वीकार नहीं किया फिर भी सरकार ने सरदार केसरीसिंह को बीस वर्ष का दण्ड देकर जेल में ठूंस दिया।’

डॉ. कन्हैयालाल राजपुरोहित ने लिखा है कि बारहठजी के निकट सहयोगी अर्जुनलाल सेठी ने जयपुर में वर्धमान विद्यालय की स्थापना की। इस विद्यालय के विद्यार्थियों ने क्रांतिकारी कार्यों के लिये डकैती द्वारा धन जुटाने के प्रयास किये थे, उसमें बिना साक्ष्य के केसरीसिंह को भी अभियुक्त बनाया गया। यहीं से उनकी विपदाओं की शुरूआत हुई। रामनारायण चौधरी ने लिखा है- ‘बारहठजी को आरा और जोधपुर के मामलों में लम्बी सजा हो गई।

केसरीसिंह पर मुकदमा

31 मार्च 1914 को केसरीसिंह को बिना कोई अभियोग लगाये शाहपुरा में इन्दौर पुलिस द्वारा पकड़ लिया गया। वहाँ उन्हें छावनी में कैद रखा गया और जब तक वे वहाँ रहे आसपास की सड़कों पर आवागमन बंद कर दिया गया था। बाद में 3 जून को वे इन्दौर से कोटा लाये गये। कोटा की विशेष अदालत में उन पर महंत प्यारेराम हत्याकांड, राजद्रोह एवं राजनैतिक षड़यंत्र का मुकदमा चलाया गया। इस मुकदमे में 23 जून को ब्रिटिश सरकार के सेन्ट्रल इण्टेलिजेंस ब्यूरो, दिल्ली के चीफ सर चार्ल्स क्लीवलैण्ड की देखरेख में मि. आर्मस्ट्रंग, आई. पी. को छान बीन और सहायता के लिये नियुक्त किया गया। बारहठजी के पक्ष में मुकदमे की पैरवी के लिये उनके अनुज किशोरसिंह लखनऊ के प्रसिद्ध देशभक्त बैरिस्टर हामिद अली खान को लेकर आये। इस पर चार्ल्स क्लीवलैण्ड की सलाह पर 22 जुलाई 1914 को दिल्ली के एडवोकेट रायसाहब मूलचंद को कोटा दरबार की ओर से प्रोसीक्यूशन कौंसल नियुक्त किया गया। रायसाहब लाहौर दिल्ली षड़यंत्र केस में भी सरकारी वकील थे। केसरीसिंह के खिलाफ इस मुकदमे से सारे राजस्थान में तहलका मच गया। अधिकांश नरेशों व सामंतों की केसरीसिहं के प्रति सहानुभूति थी। अंग्रेज सरकार भी इस बात से अनभिज्ञ नहीं थी। कोटा महाराव व अन्य उच्च अधिकारी भी बारहठजी के पक्ष में थे।

राजनैतिक दृष्टि से कोटा अभियोग उस समय का बहुत महत्वपूर्ण मामला बना गया। भारत के प्रायः सभी प्रान्तों के बड़े अंग्रेज पुलिस अधिकारी व कई रियासतों के रेजीडेंट भी कोटा पंहुचे। उन दिनों कोटा एक प्रकार से गौरांगों की छावनी बन गया। पायोनियर व टाइम्स ऑफ इण्डिया जैसे समाचार पत्र केसरीसिंह के विरुद्ध निरंतर विष वमन कर रहे थे। खुफिया विभाग के अधिकारी आर्मस्ट्रांग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि राजपूताना में राजद्रोह फैलाने में दो व्यक्तियों- केसरीसिंह और अर्जुनलाल सेठी का प्रमुख हाथ है। वे शैक्षणिक प्रवृत्तियों की आड़ में नवयुवकों में विद्रोहात्मक विचार भरते हैं। इन्होंने राजपूताना से राजनैतिक अपराध कर्म करने के लिये दिल्ली में अमीरचंद के पास विचारोन्मुख नवयुवक भेजे हैं। वस्तुतः राजपूताना के राजद्रोहियों में सबसे प्रमुख केसरीसिंह ही हैं। 6 अक्टूबर 1914 को ट्रायल जज मुंशी श्रीराम चौबे द्वारा केसरीसिंह को बीस वर्ष के आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सोमदत्त व रामकरण को भी आजीवन कारावास की सजा हुई। ब्रिटिश सरकार बारहठजी को राजद्रोह और हिंसा द्वारा सरकार का तख्ता उलटने के मामले में फंसाकर मृत्युदण्ड देने को आतुर थी पर इसमें उसे सफलता नहीं मिली।

हजारीबाग जेल में स्थानांतरण

केसरीसिंह से मिलने के लिये कोटा राज्य की संेट्रल जेल में कोटा के बड़े-बड़े लोग जाया करते थे। इनकी सूचना पोलिटिकल डिपार्टमेंट को मिलती रहती थी। ब्रिटिश सरकार अपनी सारी कोशिशों के उपरांत भी क्रांतिकारी गतिविधियों के सारे केन्द्रों को नष्ट नहीं कर सकी और न उनकी कार्यवाहियां बंद हुई थीं। ऐसी स्थिति में केसरीसिंह जैसे प्रभावशाली और लोकप्रिय व्यक्ति को कोटा जेल में रखना खतरे से खाली नहीं था। विश्वयुद्ध का विस्तार होते जोने के कारण भारत में अंग्रेजों की स्थिति संकटपूर्ण हो रही थी। इसलिये केसरीसिंह को कोटा से हटाकर बिहार में हजारीबाग जेल में भेज दिया गया।

ब्र0 धर्मव्रत ने लिखा है- केसरीसिंह को सरकार भयंकर मानती थी। इसी से जगह-जगह खुले हुए राजपूत बोर्डिंग हाउस और संगठन के बिखर जाने पर, केस और विद्रोह भड़काने की आशंका मिट जाने पर नौकरशाही ने केसरीसिंह को कोटा से सुदूर हजारी बाग (बिहार) जेल भेज दिया। हजारीबाग जेल में ठाकुर केसरीसिंह को बहुत कष्ट सहन करने पड़े किंतु बाद में कर्नल मीक तथा उसकी पत्नी से अच्छे सम्बन्ध हो जाने के कारण उन्हें इन कष्टों से छुटकारा मिल गया।

जेलर की पत्नी को संस्कृत की शिक्षा

जेल में भी ठाकुर केसरीसिंह ने अपना संतुलन बनाये रखा और आजादी की अलख जगाने के लिये कैदियों को पढ़ाने लगे। एक बार सब कैदी मिलकर दाल बीन रहे थे। ठाकुर केसरीसिंह ने दाल से भारतवर्ष का नक्शा बनाकर कैदियों को राजनीतिक भूगोल की जानकारी दी तथा दाल से अक्षर बनाने भी सिखाये। यह कार्यवाही जेल के अध्यक्ष ले. कर्नल मीक ने देख ली। वे ठाकुर केसरीसिंह से बड़े प्रभावित हुए और उनसे काफी देर तक बातचीत करते रहे। कर्नल मीक की पत्नी को संस्कृत में बड़ी रुचि थी। वह उनसे संस्कृत सीखने लगी। इस प्रकार बारहठजी ने जेलर मीक की पत्नी को संस्कृत की शिक्षा दी। यह किसी भी भारतीय जेल में घटने वाली सबसे अनोखी घटना थी।

अन्न का त्याग

केसरीसिंह ने हजारी बाग जेल में आने के बाद से अन्न का त्याग कर दिया । उनका निश्चय था कि वह लौटकर अपनी पत्नी के हाथ का ही भोजन करेंगे। जेल कर्मचारियों ने उनके निश्चय को बदलने के लिये अनेक प्रयत्न किये। वह बहुत दिन तक भूखे रहे, पर उनके संकल्प से उन्हें कोई डिगा नहीं सका। जितने वर्ष वे जेल में रहे केवल दूध ही लेते रहे। ब्र. धर्मव्रत ने लिखा है- ‘केसरीसिंह ने जिस दिन गिरफ्तार होकर शाहपुरा राज्य छोड़ा उसी दिन से अन्न न खाने की प्रतिज्ञा की। केवल दूध ही पीते थे। हजारी बाग पहुंचते ही सरकार ने केसरीसिंह की कठिन परीक्षा लेनी आरंभ की। सरकार को वीरों को संकल्प से च्युत करने में अधिक आनन्द आता है। उल्लंघन शुरू हुआ। अठारह दिन निराहार बिताये। दूध भी नहीं पिया। जब अधिकारियों ने देखा कि कष्ट भोगने से पूर्व ही कहीं पंछी उड़ न जाये, उन्नीसवें दिन थोड़ा सा दूध दिया। प्रतिज्ञा तो अन्न न खाने की थी, दूध तो ले लिया परंतु अन्न खाना प्रारंभ न किया। सरकार एक सप्ताह के बाद जबर्दस्ती चावलों के मांड का पानी नासिका के द्वारा देने लगी। इस प्रकार का युद्ध 18 माह तक चलता रहा लेकिन वे काल कोठरी से नहीं निकले। अंत में सरकार परास्त हुई। बिहार और उड़ीसा जेलों के अधिकारी (आई. जी.) ने आकर कहा कि केसरीसिंह ! राणा प्रताप के इतिहास से हम मेवाड़ के पानी की ताकत को पहले से जानते थे। शाबास बहादुर ! तुम जीत गये हम परास्त हो गये। आज से दूध ही मिलता रहेगा। रहस्य दूध में न था अपितु संकल्प की अचलता में था।

 डॉ. कन्हैयालाल राजपुरोहित ने लिखा है- ‘हजारीबाग जेल में जहाँ उन्हें कालकोठरी में रखा गया था, उन्होंने अन्न ग्रहण करने से इंकार कर दिया। उनकी फल और दूध की मांग ठुकरा दी गई। इस पर अट्ठाईस दिन तक वे निराहार रहे। नाक से नली द्वारा चावल की मांड या अन्य तरल चीज जो उन्हें दी जाती उसे वे वमन करे वापिस निकाल देते। उन्तीसवें दिन अधिकारी उन्हें दूध देने पर राजी हुए किंतु उसकी मात्रा बहुत कम थी। इस कारण सात दिन बाद उन्हें फिर अनशन करना पड़ा। वस्तुतः डेढ़ साल तक उन्हें यह संघर्ष करना पड़ा। अन्ततः अनकी तपस्या व संकल्प के आगे सरकार को झुकना पड़ा। केसरीसिंह ने अपने संस्मरणों में पत्रकार यज्ञदत्त शर्मा को बताया- ‘बिहार-उड़ीसा की जेलों के इन्सपेक्टर जनरल ने एक दिन आकर कहा- केसरीसिंह राणा प्रताप की हिस्ट्री से हम मेवाड़ के पानी की प्रशंसा सुन चुके थे। तुम जीत गये। आज से तुम्हें दूध मिलेगा।’

जेल में कठिन परीक्षा

केसरीसिंह का पुत्र प्रतापसिंह धोखे से गिरफ्तार कर लिया गया। उसके पास क्रांतिकारियों के बहुत बड़े-बड़े राज थे क्योंकि वह स्वयं राजस्थान में  क्रांतिकारी गतिविधियों का कर्ताधर्ता था। उसने अपने चाचा जोरावरसिंह के साथ मिलकर लार्ड हार्डिंग पर बम फेंका था। प्रतापसिंह को कई वर्षों तक जेल में कठोर यातनायें दी गईं लेकिन प्रताप ने जीभ नहीं खोली। इस पर अंग्रेज अधिकारियों ने योजना बनाई कि प्रताप को केसरीसिंह के पास ले जाया जाये। प्रताप अपने पिता के कष्टों को देखकर टूट जायेगा। जब प्रतापसिंह को जेल में केसरीसिंह के सामने लाया गया तो केसरीसिंह अंग्रेजों की योजना को समझ गये। उन्होंने उसी समय प्रताप से कहा- ‘प्रताप जानता है कि वह केसरीसिंह की संतान है। वह प्राणों के मोह अथवा अन्य किसी प्रलोभन से विश्वासघात नहीं कर सकता है।’ प्रतापसिंह कुछ नहीं बोले और मौन साधे रहे।

अमृतसर अधिवेशन में केसरीसिंह के सम्बन्ध में प्रस्ताव

केसरीसिंह को हुई जेल राष्ट्रीय महत्व का मुद्दा बन गई। यही कारण था कि कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने एक प्रस्ताव रखकर मांग की कि कांग्रेस जेल में बंद केसरीसिंह को छुड़ाने के लिये प्रयास करे।

पूरा परिवार क्रांति की राह पर

ठाकुर केसरीसिंह के विचारों से प्रभावित होकर उनके पूरे परिवार ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। उनके छोटे भाई जोरावरसिंह, उनकी पत्नी माणिक कुंवर, पुत्री चंद्रमणि, जामाता ईश्वरीदान आदि ने भी अनेक यातनाएं सहीं और उनमें से कई सदस्यों को काले पानी तक की सजा हुई। केसरीसिंह का पुत्र प्रतापसिंह तो उनके देखते-देखते स्वतंत्रता की बलिवेदी पर चढ़ गया। यह जानते हुये भी कि क्रांतिकारियों के जीवन में मौत का खतरा बना रहता है, केसरीसिंह बारहठ ने अपने पुत्र प्रतापसिंह एवं जामाता ईश्वरदान आसिया को रासबिहारी बोस के सहायक मास्टर अमीरचन्द की सेवा में क्रांति का व्यवहारिक अनुभव और प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिये दिल्ली भेजा।

भारत में सैनिक क्रांति के प्रणेता रास बिहारी बोस ने ठाकुर केसरीसिंह बारहठ के बारे में कहा था- ‘भारत में एक मात्र ठाकुर केसरीसिंह ही एक ऐसे क्रांतिकारी हैं जिन्होंने भारत माता की दासता की शृंखलाएं काटने के लिये अपने समस्त परिवार को स्वतन्त्रता के युद्ध में झौंक दिया।’ एक अन्य स्थान पर उन्होंने कहा- ‘ऐसे उदाहरण तो हैं कि पिता ने पुत्र को देश की बलिवेदी पर चढ़ने भेज दिया परन्तु मेरे सामने केसरीसिंह का यह पहिला उदाहरण है जिसने अपने पुत्र के साथ जामाता को भी आगे कर दिया है।’

डॉ. कन्हैयालाल राजपुरोहित ने लिखा है- ‘पराधीनता के पाश को काटने के लिये सर्वस्व बलिदान की तत्परता की भावभूमि पर खड़े भारतीय क्रांतिकारी आन्दोलन में निहित आनन्दमठ के सन्तानों की अप्रतिम उत्सर्ग भावना को शाहपुरा के इस बारहठ परिवार ने चरितार्थ कर दिखाया। मातृभूमि की सेवा में सर्वस्व न्यौछावर करने का ऐसा उदाहरण कहीं नहीं मिलता जहाँ क्रांतियज्ञ के ऋत्विक ने अपने पुत्र, अनुज एवं जामाता को भी समिधास्वरूप अर्पित कर दिया हो। मॉं की सेवा की इस यशोज्जवल कीर्तिकथा के नायक हैं क्रांतिकारी स्वप्न-दृष्टा केसरीसिंह बारहठ।’

प्रो. चिन्तामणि शुक्ल एवम् डॉ. अवधेश कुमार शुक्ल ने लिखा है- ‘ठाकुर केसरीसिंह बारहठ ने अपने पुत्र कुंवर प्रतापसिंह बारहठ, अनुज जोरावरसिंह बारहठ और जामाता ईश्वरदान को क्रांतिकारी मास्टर अमीरचन्द के पास क्रांतिकारी कार्यों के प्रशिक्षण के लिये भेजा था।’ ब्रह्मदत्त शर्मा ने लिखा है- ‘आपके अमरशहीद पुत्र प्रताप देश के विप्लववादी भक्तों में अग्रणी रहे और जेल की यातनाओं के कारण 28 वर्ष की आयु में ही यह युवक जून 1919 में वीर गति को प्राप्त हुआ। इसी प्रकार बारहठजी के भाई ठाकुर जोरावरसिंह ने क्रांतिकारी नेता रासबिहारी बोस के बुुलावे पर दिल्ली जाकर वीर बसंत विश्वास के साथ लार्ड हार्डिंग पर दिल्ली दरबार के समय बम फेंका जिसका वर्णन लाला लाजपतराय ने अपनी आत्मकथा में किया है और जो एक ऐतिहासिक तथ्य है।

पुत्र और भाई का बलिदान

ई.1912 में ब्रिटिश सरकार ने भारत की राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली लाने का निर्णय लिया। इस अवसर पर 23 दिसम्बर 1912 को भारत के गवर्नर जनरल लार्ड हार्डिंग ने दिल्ली में प्रवेश करने के लिये शानदार जुलूस का आयोजन किया। उधर रास बिहारी बोस ने हार्डिंग को मारने की एक साहसी योजना बनाई। उन्होंने बंगाल के बसंत कुमार विश्वास और राजस्थान के जोरावरसिंह और प्रतापसिंह आदि विश्वस्त युवकों के कंधों पर यह भार डाला। ये युवक चांदनी चौक स्थित पंजाब नेशनल बैंक की इमारत पर पहुंच गये। जब वायसराय जुलूस में हाथी पर सवार होकर वहाँ से गुजर रहा था, तो उन्होंने उस पर बम फैंका। हार्डिंग के शरीर पर जख्म आये परन्तु वह बच गया। वायसराय का छत्रधारी अंगरक्षक महावीरसिंह घटना स्थल पर ही मारा गया। क्रांतिकारियों ने सारा काम इस सफाई से किया कि भारत सरकार की पुलिस अभियुक्तों का पता न लगा सकी। पुलिस ने संदेह में प्रतापसिंह और ईश्वरदान आसिया को गिरफ्तार किया किंतु उनके विरुद्ध किसी प्रकार का सबूत नहीं होने से उन्हें छोड़ देना पड़ा। जोरावरसिंह तो भूमिगत हो गये किंतु प्रतापसिंह को कुछ समय बाद पुनः गिरफ्तार कर लिया गया। उस समय प्रतापसिंह मात्र 22 वर्ष के थे। छः वर्ष तक उन्हें देश की विभिन्न जेलों में यातनाएं दी गईं किंतु उन्होंने मुँह नहीं खोला और एक भी क्रांतिकारी का भेद नहीं दिया। अन्त में मात्र 28 वर्ष की आयु में जेल की यातनाओं से ही उनके प्राण पंखेरू उड़ गये। जोरावरसिंह भी लम्बे समय तक अज्ञातवास में भटकते रहे और अंत में मृत्यु को प्राप्त हुए।

जेल से रिहाई

जेलर कर्नल मीक तथा उसकी पत्नी ने केसरीसिंह से मुकदमे की जानकारी हासिल की और केसरीसिंह को सलाह दी कि वे अपने मामले में वायसराय से अपील करें। यद्यपि केसरीसिंह को ब्रिटिश सरकार से कोई उम्मीद नहीं थी तथापि उदारमना अधीक्षक के बहुत जोर देने पर उन्होंने वायसराय के नाम अपील लिखी जिसे जेल अधीक्षक ने अपनी सिफारिश के साथ आगे भेजा। उस समय प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त हो चुका था। इसमें मित्र राष्ट्रों की विजय होने और वार्साई के संधि होने के बाद ब्रिटिश सरकार के रवैये में कुछ नरमी आई। थी। राजस्थान में क्रांतिकारी गतिविधियां लगभग समाप्त हो चुकी थीं। अतः केसरीसिंह को लगभग पांच वर्ष कारावास भुगतने के बाद 19 जुलाई 1919 को रिहा कर दिया गया। श्रीमती कांति वर्मा ने लिखा है – ‘ठाकुर केसरीसिंह ने जब बिहार प्रांत के शासन को अपने कारावास के विरुद्ध अपील की तो कर्नल मीक ने उनकी सब प्रकार से सहायता की। जिसके फलस्वरूप 1919 में राजनीतिक सुधारों की घोषणा के साथ वह भारत सरकार की आज्ञा से हजारीबाग जेल से मुक्त कर दिये गये।’

सब-कुछ खोया

केसरीसिंह को न केवल आजन्म कारावास की सजा दी गई अपितु हजारों रुपये वार्षिक आय की देवपुरा की सम्पूर्ण पैतृक जागीर, शाहपुरा स्थित विशाल हवेली और सारी सम्पत्ति ब्रिटिश सरकार के दबाव के कारण शाहपुरा नरेश ने जब्त कर ली। इसमें इनका विशाल पुस्तकालय कृष्णवाणी विलास भी शामिल था। उनकी पत्नी और बच्चे बेघरबार होकर सड़क पर आ गये। कहीं से आशा की कोई किरण नहीं बची। ऐसे विकट समय में कोटा रियासत के कोटड़ी ठिकाने के कविराजा दुर्गादान ने सरकारी कोप की परवाह न करते हुए केसरीसिंह की पत्नी माणिक कुंवर को बच्चों सहित अपने यहां बुला लिया। वे रिश्ते में उनकी बुआ लगती थीं।   

केसरीसिंह के ज्येष्ठ पुत्र प्रताप के पास बम निर्माण की सामग्री प्राप्त हुई थी। इसलिये उन्हें बरेली जेल में रखा गया था। बरेली जेल में ही प्रताप नृशंस यातनाओं के शिकार होकर मातृभूमि पर बलिदान हो चुके थे किंतु इसकी सूचना न तो प्रताप की माता को दी गई और उनके पिता को। जेल से बाहर आने तक केसरीसिंह को इस वज्रपात की कोई जानकारी नहीं थी। हजारीबाग से लौटने पर कोटा जंक्शन पर स्वागत के लिये उपस्थित समुदाय में से डॉ. गुरुदत्त द्वारा यह पूछे जाने पर कि उन्हें प्रताप की शहादत का समाचार कब मिला? बारहठजी ने धैर्य पूर्वक उत्तर दिया- ‘आपके ही मुख से।’ बेटे की बहादुरी की बातें सुनकर केसरीसिंह को बड़ा संतोष मिला। उन्होंने कहा- ‘भारतमाता का पुत्र उसकी मुक्ति के लिये बलिदान हो गया।’

अपने भाई जोरावरसिंह के फरार हो जाने के बारे में भी उन्हें जेल से छूटने के बाद ही पता चला। तभी वे जान सके कि शाहपुरा नरेश राजाधिराज नाहरसिंह ने उनकी पैतृक सम्पत्ति, जागीर एवं हवेली जब्त कर ली है। उनका बहुमूल्य पुस्तकालय भी छिन्न-भिन्न हो गया है। इस पुस्तकालय में केसरीसिंह के पिता का लिखा हुआ राजस्थान का 80 वर्ष का रेाचक और निर्भीक इतिहास भी था।

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