ई.1707 में औरंगजेब की मृत्यु के समय देश में हाहाकार मचा हुआ था। क्या हिन्दू क्या मुसलमान, सब उससे घृणा करते थे। जाट, सिक्ख, मराठे और राजपूत उसके बैरी हुए फिरते थे। वस्तुतः मुगल सल्तनत के विघटन की प्रक्रिया तो औरंगजेब के जीवनकाल में ही आरम्भ हो गई थी किंतु उसके मरते ही, समस्त शक्तियां वेगवान होकर मुगल सल्तनत को नष्ट करने पर तुल गईं।
औरंगजेब का पुत्र मुअज्जम (बहादुरशाह- प्रथम) पौने पांच साल राज्य करके ई.1712 में मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसके बाद जहांदारशाह मुगलों की गद्दी पर बैठा किंतु ई.1713 में उसे उसके भतीजे फर्रूखसीयर ने मार डाला और स्वयं बादशाह बन गया। उसके शासन काल में सैयद बंधुओं ने अपनी शक्ति बढ़ाने के लिये मेवाड़ राज्य से अच्छे सम्बन्ध स्थापित किये और मेवाड़ के वकील बिहारीदास पंचोली की मुगल दरबार में अच्छी प्रतिष्ठा रही।
सैयद बंधुओं ने हिन्दू राजाओं को अपना सहायक बनाने के लिये फर्रूखसीयर से कहकर जजिया उठवा दिया परंतु इनायतुल्ला ने फर्रूखसीयर को मक्का के शरीफ का एक पत्र लाकर दिया जिसमें हदीस के अनुसार हिन्दुओं पर जजिया लगाये जाने पर जोर दिया गया था। फर्रूखसीयर ने सैयदों द्वारा विरोध किये जाने के उपरांत भी पुनः जजिया लगा दिया तथा अपने हाथ से एक फरमान लिखकर महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय) को भिजवाया- ‘हमने प्रजा की भलाई के लिये जजिया माफ कर दिया था किंतु शरअ के अनुसार मक्का के शरीफ की अर्जी (जजिया लगाने की) स्वीकार की गई। इस बात की सूचना अपने दोस्त उत्तम राजा (महाराणा) को दी जाती है।’
औरंगजेब की तरह फर्रूखसीयर भी एक कट्टर बादशाह था किंतु वह सैयद बंधुओं के हाथों की कठपुतली बनकर ही जीवित रह सकता था। फर्रूखसीयर ने मारवाड़ के राजा अजीतसिंह की पुत्री इंद्रकुंवरी से बलपूर्वक विवाह कर लिया। इससे अजीतसिंह उसका बैरी हो गया। सैयद बंधुओं ने फर्रूखसीयर के विरुद्ध हिन्दू राजाओं को अपनी तरफ करना आरम्भ किया। इस पर फर्रूखसीयर ने सयैद बंधुओं को मरवाने का षड़यंत्र रचा।
इस कारण सैयद बंधुओं ने फर्रूखसियर को तख्त से हटाने का निर्णय किया। दक्षिण में नियुक्त सैयद हुसैन अली ने ई.1719 में मराठों से समझौता कर लिया और 15,000 मराठा सैनिकों तथा स्वयं अपनी सेना के साथ दिल्ली आ पहुँचा। जाट नेता चूड़ामन ने भी सैयद बंधुओं का साथ दिया। 17 फरवरी 1719 को महाराजा अजीतसिंह ने सैय्यद बंधुओं की सहायता से दिल्ली के लालकिले पर अधिकार कर लिया। महाराजा ने लालकिले के दीवाने आम में अपना आवास बनाया तथा वहीं पर घण्टों और शंख-ध्वनियों के बीच हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा की तथा तीन दिन तक लालकिले को अपने अधिकार में रखा। फर्रूखसीयर भागकर जनाने में छिप गया और तीन दिन तक वहाँ से नहीं निकला।
रफीउद्दरजात को दिल्ली का बादशाह घोषित कर दिया गया। महाराजा अजीतसिंह के आदेश पर, नये बादशाह रफीउद्दरजात ने हिन्दुओं पर से जजिया उठा लिया तथा हिन्दू तीर्र्थों को सब प्रकार की बाधाओं से मुक्त कर दिया। तीन दिन बाद फर्रूखसियर को हरम से नंगे सिर तथा नंगे पैरों घसीटते हुए, गालियां देते हुए एवं पीटते हुए निकाला गया तथा अन्धा करके कैद में डाल दिया गया। कुछ दिनों बाद उसे गला घोंटकर मार डाला गया।
तीन माह बाद सैयद बन्धुओं द्वारा रफीउद्दरजात को हटाकर उसके बड़े भाई रफीउद्दौला को दिल्ली के तख्त पर बैठाया गया। साढ़े तीन माह बाद उसकी भी मृत्यु हो गई। कामवरखाँ ने आरोप लगाया है कि इन दोनों बादशाहों को सैयद बंधुओं ने विष देकर मरवाया था। इस प्रकार ई.1719 में चौथा बादशाह दिल्ली के तख्त पर बैठा। यह चौथा बादशाह 18 साल का मुहम्मदशाह था जो औरंगजेब के पुत्र मुअज्जम
(बहादुरशाह-प्रथम अथवा शाहआलम प्रथम) का पौत्र था तथा अपनी अकर्मण्यता तथा अय्याशी के कारण भारत के इतिहास में मुहम्मदशाह रंगीला के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वह ई.1748 तक दिल्ली के तख्त पर बैठा रहा। उसके शासनकाल में मुगलों के प्रांतीय शासक एक-एक करके स्वतंत्र होने लगे।
ई.1722 में अवध का स्वतंत्र राज्य अस्तित्व में आया। ई.1725 में हैदराबाद राज्य, दिल्ली की अधीनता से स्वतंत्र हो गया। ई.1740 में बंगाल पूरी तरह मुगल सल्तनत से अलग हो गया। इसी प्रकार रूहलों ने रूहेलखण्ड में अपना स्वतंत्र राज्य बना लिया। पंजाब में औरंगजेब के समय से ही गुरु गोबिंदसिंह के नेतृत्व में विद्रोह का झण्डा बुलंद हो गया था। बंदाबहादुर ने इस अभियान को आगे बढ़ाया। ई.1748 में सिक्खों के छोटे-छोटे दलों ने मिलकर दल खालसा का गठन किया। दल खालसा में सम्मिलित सभी दलों को पुनः 11 जत्थों में विभाजित किया, जो बाद में मिसलों के नाम से विख्यात हुए। इन मिसलों के नेताओं ने पंजाब के भिन्न-भिन्न भागों में अपने राज्य स्थापित कर लिये। धीरे-धीरे सम्पूर्ण पंजाब में 12 छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये। आगे चलकर रणजीतसिंह ने इन मिसलों को जीतकर पंजाब में एक शक्तिशाली सिक्ख राज्य स्थापित किया। इस प्रकार पंजाब, मुगल सल्तनत से बाहर हो गया।
ई.1704 में मैसूर को औरंगजेब की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी थी किन्तु व्यवहार में वह स्वतंत्र राज्य बना रहा। मैसूर के हिन्दू शासकों ने स्वतंत्र शासकों की भाँति राज्य विस्तार की नीति अपनायी किंतु आगे चलकर ई.1761 में मैसूर राज्य की सेना के एक अधिकारी हैदरअली ने सेना की सहायता से मैसूर राज्य हड़प लिया।
उपर्युक्त राज्यों के अतिरिक्त मुगल सत्ता के पतनोन्मुख काल में राजपूताने के कई शासक मुगल सत्ता से मुक्त होकर स्वतंत्र हो गये। इसी काल में भारत में यूरोपीय शक्तियाँ भी प्रबल हो उठीं। यूरोपीय शक्तियों ने पहले दक्षिण में और बाद में पूर्वी भारत में अपनी बस्तियाँ स्थापित कीं। इनके अतिरिक्त भी भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये और मुगल सल्तनत का पूरी तरह विघटन हो गया। मुगल बादशाहों की सत्ता दिल्ली के चारों ओर सिमटती हुई लाल किले के भीतर सीमित रह गई।