महाराजा ने अपने मुत्सद्दियों और ठाकरों के बहकाने पर भी न तो मराठों के विरुद्ध मोर्चा खोला और न पासवान की हत्या की योजना सफल होने दी, न ठाकुरों की तागीर की गई जागीरें बहाल कीं, तब भैरजी साणी आदि मुत्सद्दियों ने जोधपुर छोड़ दिया और मालकोसनी में जाकर डेरा डालकर बैठ गये। वृद्ध मरुधरानाथ ने सरदारों को समझाकर वापस लाने के लिये अपने विश्वस्त अनुचर उनके पीछे भेजे।
इस पर सरदारों ने मरुधरानाथ को प्रत्युत्तर भिजवाया कि हमने दरबार को पहले कहा फिर देश छोड़ा। हमारी कही हुई बात दरबार को पसन्द नहीं आती और आपके काम ऐसे हैं कि हमें विश्वास नहीं होता। अतः हमें समझाने के लिये बापजी स्वयं ही आवें। सरदारों की योजना यह थी कि जैसे ही मरुधरानाथ जोधपुर से निकलकर बाहर आये। उसे अपने संरक्षण में रखकर पासवान की हत्या कर दें। सरदारों के बुलावे पर मरुधरानाथ ने मालकोसनी जाने का विचार किया किंतु पासवान ने महाराजा को अपने उद्यान से बाहर ही नहीं निकलने दिया।
जब यह योजना भी विफल हो गई तो सरदारों ने मरुधरानाथ के चचेरे भाई महाराज पृथ्वीसिंह को मालकोसनी बुलवाया। पृथ्वीसिंह सरदारों के बुलावे पर मालकोसनी पहुँचा। सरदारों ने अपनी व्यथा उससे कही-‘स्वामी की स्त्री या खवास हमारे लिये माँ के समान है किंतु महाराजा ने हमें कलंकित करके अनुचित कार्य किया है। इसलिये आप जोधपुर जाकर पासवान को मार डालें।’
महाराज पृथ्वीसिंह स्वर्गीय महाराजा अभयसिंह के पुत्र जोरावरसिंह का पुत्र था तथा महाराजा विजयसिंह का चचेरा भाई लगता था। इस कारण उसे महाराज की उपाधि प्राप्त थी। पासवान ने उसकी जागीर के भी कई गाँव जब्त कर लिये थे। इसलिये वह भी गुलाब से अप्रसन्न रहता था। उसका वश चलता तो वह अब तक पासवान को मार ही चुका होता। इसलिये जब सरदारों ने उसे पासवान की हत्या करने का दायित्व सौंपा तो वह इस कार्य को करने के लिये सहर्ष तैयार हो गया। वह घोड़े पर बैठकर मालकोसनी से पुनः जोधपुर आया और मरुधरानाथ की ड्यौढ़ी पर हाजिर होकर उससे मिलने की प्रार्थना भिजवाई। मरुधरानाथ उस समय पासवान के उद्यान से लौटकर अपने महल में भगवान की पूजा कर रहा था। उसने पृथ्वीसिंह को वहीं बुला लिया।
-‘तुम लोग जरा बाहर बैठो।’ मरुधरानाथ ने अपने अनुचरों को कक्ष से बाहर जाने का संकेत दिया ताकि पृथ्वीसिंह से वार्त्तालाप करने के लिये एकांत सुलभ हो सके।
-‘घणीखम्मा! सरदारों का विनम्र संदेश देने के लिये उपस्थित हुआ हूँ। आदमियों को दूर भेजने की आवश्यकता नहीं है।’ पृथ्वीसिंह ने हँस कर कहा।
-‘हम दोनों भाई कुछ बात करेंगे तो ये लोग भी कुछ विश्राम कर लेंगे।’ मरुधरानाथ ने स्नेह से उसके कंधे पर हाथ रखकर प्रत्युत्तर दिया।
-‘जैसी मरुधरानाथ की इच्छा।’ पृथ्वीसिंह मान गया।
मरुधरानाथ ने अपने आदमियों को दूर भेजकर कमरे का दरवाजा बंद करके पृथ्वीसिंह को अपने पलंग पर अपने पास बैठा लिया।
-‘कहो।’
-‘महाराज! समय आपके अनुकूल हुआ इसलिये आपने मेरी जागीर के गाँव जब्त कर लिये। मेरी आपसे क्या शत्रुता थी? अतः पासवान से कहकर मेरे गाँव वापस बहाल करवाने की कृपा करें।’ पृथ्वीसिंह ने राजा से अनुरोध किया।
-‘तुम्हारी बात बिल्कुल सही है। हम भी यही चाहते हैं किंतु इस कार्य के लिये यह उपयुक्त समय नहीं है। इस समय चारों ओर उपद्रव का वातावरण है। सरदार और मुत्सद्दी रुष्ट होकर मालकोसनी जा बैठे हैं तथा गुलाब का मन भी शान्त नहीं है। दो-चार दिन धीरज रखो। जागीर फिर से तुम्हारे नाम करवा दूंगा।’ मरुधरानाथ ने जवाब दिया।
यह सुनते ही पृथ्वीसिंह ने पलंग पर रखी तलवार हाथ में लेकर कहा-‘महाराज! आपको लगता है कि गाँवों के लिये अर्ज करने का यह उपयुक्त समय नहीं है किंतु मेरे पास तो यही समय है। सम्हल कर बैठना।’
इतना कहकर पृथ्वीसिंह ने तलवार म्यान से बाहर खींच ली और मरुधरानाथ पर तड़ातड़ वार करने लगा। जैसा ही उसका पहला वार हुआ वैसे ही खास ड्यौढ़ी का ड्यौढ़ीदार खींवकरण उसके और मरुधरानाथ के बीच कूद पड़ा। तलवार का भरपूर वार खींवकरण के दायें कंधे पर हुआ। इससे महाराजा तो बच गया किंतु खींवकरण बुरी तरह घायल हो गया। खींवकरण सतर्क तो उसी समय हो गया था जब उसने पृथ्वीसिंह को महल की ओर आते देखा था किंतु जब मरुधरानाथ ने अपने अनुचरों को कक्ष से बाहर जाने के लिये कहा तो खींवकरण छाया की तरह दूसरे द्वार के बाहर आकर खड़ा हो गया था जिसे मरुधरानाथ भीतर से बंद नहीं कर पाया था। यही कारण था कि वह ठीक समय पर मरुधरानाथ और पृथ्वीसिंह के बीच आ खड़ा हुआ था।
जब पृथ्वीसिंह का वार खींवकरण के कंधे पर लगा तो पृथ्वीसिंह ने तड़ातड़ नौ वार किये। दायां कंधा घायल हो जाने के कारण खींवकरण इस स्थिति में तो नहीं था कि वह पृथ्वीसिंह के वारों को अपनी तलवार पर रोक सकता किंतु उसने पृथ्वीसिंह के हर वार को अपनी छाती पर झेला ताकि उसकी तलवार महाराज तक नहीं पहुँच सके। इधर ये दोनों एक दूसरे से उलझे हुए ही थे कि महाराज द्वार खोलकर बाहर जा पहुँचा और ड्यौढ़ी पर उपस्थित सैनिकों को पुकारने लगा।
इससे पूर्व कि ड्यौढ़ी पर उपस्थित सैनिक कक्ष के भीतर आ पाते, पृथ्वीसिंह महाराजा की कटार लेकर कक्ष से बाहर आया और लम्बे डग भरता हुआ गढ़ के परकोटे की तरफ भागा। गढ़ से बाहर आकर भी वह रुका नहीं, सरपट भागता हुआ शहर परकोटे से बाहर निकल गया और वहाँ खड़े मालियों का ऊँट छीनकर उस पर सवार हो मालकोसनी के लिये रवाना हो गया।
जब पासवान को यह समाचार ज्ञात हुआ तो उसने अपने घुड़सवार पृथ्वीसिंह के पीछे दौड़ाये। घुड़सवार सैनिकों ने मालकोसनी से पहुँचने से पहले ही महाराज पृथ्वीसिंह को जा घेरा। चारों तरफ से घिर जाने पर भी पृथ्वीसिंह रुका नहीं, वह लगातार मालकोसनी की तरफ भागता रहा। इस पर गुलाब के सैनिकों ने पृथ्वीसिंह के ऊँट को पकड़कर उसके पैर काट डाले। ऊँट बुरी तरह डकराता हुआ धरती पर आ गिरा। उसके साथ ही पृथ्वीसिंह भी धरती पर गिर पड़ा किंतु उसने एक सैनिक की बरछी छीनकर उसे मार डाला और उसका घोड़ा लेकर लगातार नौ कोस तक घोड़ा दौड़ाता हुआ सरदारों में जाकर मिल गया।
उधर पासवान ने रात में गुप्त रूप से गढ़ में आकर मरुधरानाथ को दिलासा दी। अगली रात को दिन निकलने से पहले, ड्यौढ़ीदार खींवकरण के प्राण पंखेरू उड़ गये। जब मृत्यु उसे लेने आई तो खींवकरण के होठों पर संतोष की मुस्कान फैली हुई थी। उसे इस बात का गर्व था कि वह मारवाड़ के उन सपूतों में से एक सिद्ध हुआ था जिन्होंने अपने स्वामी के प्राणों की रक्षा करने में कोई कोताही नहीं बरती थी तथा अपने प्राण देकर धरतीपति के प्राण बचाये थे। जिस क्षण उसके प्राण कण्ठ में आकर अटके, उस क्षण उसे अपने पिता की बात एक बार फिर स्मरण हो आई-‘महल का ड्यौढ़ीदार किसी भी समय संकट में पड़ सकता है इसलिये उसे हर समय चौकन्ना रहना चाहिये।’ वह चौकन्ना रहा था इसीलिये मरुधरानाथ के प्राण बच गये थे। वह चौकन्ना रहा था इसीलिये उसे प्राण गंवाने पड़े थे। यह युग ऐसा ही था। कुछ लोगों के हृदयों में निष्ठा तो थी किंतु उसका मोल कुछ भी नहीं था। कुछ दिनों बाद कोई भी यह याद रखने वाला नहीं था कि एक दिन राठौड़ों के इस दुर्ग में ड्यौढ़ीदार खींवकरण ने मरुधरानाथ के प्राणों के बदले में अपने प्राण मृत्यु की देवी को अर्पित कर दिये थे।
इस काण्ड के हो जाने के बाद सरदारों ने जोधपुर से और दूर चले जाना श्रेयस्कर समझा। वे बीसलपुर होते हुए निम्बाज चले गये। निम्बाज ठाकुर शंभुसिंह ने विद्रोही सरदारों का जोरदार स्वागत किया किंतु सरदार वहाँ भी अधिक समय नहीं रुके। वे वहाँ से चलकर सोजत जा पहुँचे। इस पर पासवान ने गंगादास नाजर को अपनी कैद से मुक्त करके उसे सरदारों से समझौता करने के लिये भेजा किंतु सरदारों ने उसे अपने निकट ही नहीं फटकने दिया। सरदारों ने राजा के समक्ष मांग रखी कि कुँवर भीमसिंह उन्हें सौंप दिया जाये तथा राज्य की समस्त जिम्मेदारी भी सरदारों पर छोड़ दी जाये। इसके बाद दरबार और उनकी पासवान गुलाबराय यदि हरि कीर्तन करते हैं तो उसमें सरदारों को आपत्ति नहीं होगी। हर बार की तरह पासवान को सरदारों का यह प्रस्ताव भी स्वीकार्य नहीं हुआ।