Thursday, November 21, 2024
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अशोक कालीन कपड़ा

बौद्ध विहार से प्राप्त पंचमार्क अथवा आहत सिक्के एक कपड़े में बंधे मिले थे। इस कपड़े की जांच बम्बई के टर्नर और गुलाटी फर्म से कराई गई। इन दोनों ही फर्मों ने निष्कर्ष निकाला कि यह कपड़ा उसी समय का अर्थात् मौर्य कालीन है।

भिक्षुओं की सामग्री

यहां से चमकीले भिक्षा पात्रों के अवशेष, मृदा निर्मित थालियां, पूजा पात्र आदि भी मिले हैं। सर्प के फन के समान आकृति वाले धूपदान, धूप की बत्तियों के लिये बने छिद्रयुक्त मृदा पात्र, नर्तकी एवं यक्ष की मूर्तियां तथा मृदा निर्मित बेसबल भी मिले हैं जिस पर कटहरे का अंकन है।

तंत्र-मंत्र के प्रमाण

बैराठ से प्राप्त सामग्री में लोहे की कीलें, अण्डाकार घेरदार पतली तहों वाले पत्थर के छोटे फलक भी प्राप्त हुए जिनका उपयोग ताबीज के रूप में होता था। यहां से एक नृत्यरत यक्षिणी की मूर्ति मिली है जिसका सिर और पैर अनुपलब्ध है। इसका बायां हाथ कूल्हे पर है और दाहिना हाथ वाम स्तन को संभालने के लिये छाती पर है। यह मूर्ति नग्न है तथा कमर पर तीन लड़ियों की मणिमाला धारण किये हुए है। ऐसी ही मूर्तियां मथुरा में रेलिंग के स्तम्भों से मिली हैं जो ईसा पूर्व प्रथम शती की हैं।

लोहे का कारखाना

बैराठ के बौद्ध विहार के निकट लोहे का कारखाना स्थित था। इसमें मठ के लोगों की आवश्यकता की पूर्ति के लिये लोहे के औजार बनाये जाते थे। लोहे के मुड़े हुए टुकड़े, कीलियां, फिश प्लेटें जिन पर कीलियां लगी थीं, आदि बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। लोहे की और भी कई प्रकार की वस्तुएं मिली हैं।

विभिन्न माप की कीलें, छोटी छड़ें, बड़े आकार की लोहे की पट्टियां जिनकी कीलें उनके चौड़े किनारों पर जड़ी हुई थी, लोहे की रेती, धातु के फीतों की गठरी और केवल एक बाण का अग्रभाग तथा सुंई भी प्राप्त हुई है। ताम्बे की एक तीली मिली है जो दोनों किनारों पर गहरी है। यह कान से मैल निकालने वाली तीली जैसी है। 

ब्राह्मी लिपि का लेख

इस सामग्री के स्थल से कुछ दूरी पर एक चिकना चुनार पत्थर का बट्टा भी प्राप्त हुआ है। मंदिर की उत्तरी दिशा की खाई से मिट्टी के घड़े के ऊपरी किनारे का वह भाग भी प्राप्त हुआ जिस पर ब्राह्मी लिपि में लेख अंकित है।

चार स्तर आये प्रकाश में

बैराठ की सभ्यता के चार स्तर प्रकाश में आये हैं। पहली खुदाई दयाराम साहनी ने की थी। दूसरी खुदाई नीलरत्न बैनर्जी तथा कैलाशनाथ दीक्षित ने। दूसरी खुदाई से धूसर चित्रित मृद्पात्र, उत्तर भारतीय कृष्ण मार्जित मृद्पात्र तथा प्राचीन युग के महत्त्वपूर्ण अवशेष प्राप्त हुए। इस खुदाई से चार स्तर प्रकाश में आये जिनसे चार विभिन्न युगों की संस्कृतियों का पता चला।

सबसे नीचे के स्तर में अर्थात् इस स्थान पर सबसे पहले रहने वाले लोग चित्रित स्लेटी पात्रों का उपयोग करते थे। इसके बाद उत्तरी काली पालिश वाले पात्रों का प्रयोग करने वाले लोग थे। तीसरे स्तर से ईसा की प्रारम्भिक युगीन संस्कृति वाले पात्रों का प्रयोग करने वाले लोग रहते थे। चौथे स्तर से मध्ययुगीन चमकीली वार्निश युक्त पात्र प्राप्त हुए हैं।

ह्वेनसांग ने देखे थे 8 बौद्ध विहार

चीनी चात्री ह्वेनसांग ने इस क्षेत्र में 8 बौद्ध विहार देखे थे जिनमें से 7 का अब तक पता नहीं चल पाया है। व्हेनसांग ने इस स्थान का नाम ‘पोलियो टोलो’ लिखा है। उसके आगमन के समय अर्थात् ईसा की सातवीं सदी में यह स्थान काफी प्रसिद्ध रहा होगा। इसी कारण ह्वेनसांग ने इस स्थान की यात्रा की होगी। अशोक ने जिस योजना के अनुसार शिलालेख लगवाये थे, उसके अनुसार इन 8 बौद्ध विहारों के पास 128 शिलालेख लगवाये होंगे किंतु इनमें से अब तक कुल 2 शिलालेख ही प्राप्त हुए हैं।

अनुमान लगाया जा सकता है कि एक साथ 8 बौद्ध विहारों के कारण इस पूरे क्षेत्र में बौद्ध धर्म का कितना व्यापक प्रभाव रहा होगा। एक अनुमान के अनुसार वर्तमान में जिस टीले पर शहर बसा हुआ है उसके नीचे ये बौद्ध विहार हो सकते हैं।

मौर्य साम्राज्य का पतन

इन विहारों में भिक्षुओं को बिना कोई परिश्रम किये निःशुल्क भोजन, वस्त्र, आवास एवं सुरक्षा प्राप्त होती थी। समाज से आदर भी मिलता था इसलिये लोग सैनिक या किसान बनने के स्थान पर बौद्ध भिक्षु बन जाते थे। बड़ी संख्या में युवकों के भिक्षु बन जाने से मौर्यों की सेनाएं कमजोर हो गईं। इस कारण  मौर्य साम्राज्य का आधार ही ध्वस्त हो गया। 184 ई. पूर्व में बृहद्रथ के मंत्री और सेनापति पुश्यमित्र शुंग ने बृहद्रथ की हत्या कर दी और स्वयं मगध का राजा बन गया।

शुंग कालीन अवशेष

शुंग वंश ने 184 ई.पू. से 72 ई.पू. तक की अवधि में मगध पर शासन किया। शुंग वंश का संस्थापक पुश्यमित्र शुंग ब्राह्मण था तथा बौद्ध धर्म की बजाय अपने स्वयं के धर्म को प्रश्रय देना अधिक श्रेयस्कर समझता था। गंगानगर जिला मुख्यालय से 78 किलोमीटर दूर स्थित सूरतगढ़ एक प्राचीन कस्बा है। यहाँ जोहियों का एक पुराना दुर्ग था जो सोढल के नाम से विख्यात था। बीकानेर नरेश सूरतसिंह ने ई.1799 में यहां एक नया दुर्ग बनवाया जिसका नाम सूरतगढ़ रखा।

इस कारण सोढलगढ़, सूरतगढ़ कहलाने लगा। सूरतगढ़ के नवीन किले के लिये अधिकतर ईंटें निकटवर्ती बौद्ध स्थानों से लाकर यहाँ लगायी गयीं। बौद्ध स्थानों से प्राप्त मिट्टी से बनी अनेक प्राचीन वस्तुएं बीकानेर दुर्ग में रखवाई गईं। इनमें हड़जोरा की पत्तियां, गरुड़, हाथी, राक्षस, आदि की आकृतियां बनी थीं। इस सामग्री पर गांधार शैली की छाप स्पष्ट दिखायी देती है।

गांधार शैली भारतीय एवं यूनानी मूर्ति शिल्प के मिश्रण से विकसित हुई थी जिसने भगवान बुद्ध की मूर्तियों को विशिष्ट आकृति प्रदान की। गंगानगर जिले के रंगमहल नामक टीले से प्राप्त पशु एवं वनस्पति आकृतियां, नर-नारी के विभिन्न स्वरूप, उनके विविध परिधान तथा आभूषण, घुंघराले बाल तथा तनी हुई मूंछें सजीवता तथा स्वाभाविकता के अच्छे उदाहरण हैं। इस टीले से भगवान बुद्ध की मूर्तियों के साथ-साथ भगवान महावीर, शंकर तथा कृष्ण मूर्तियां भी प्राप्त हुई हैं जो मृण्मयी तथा पत्थरों की हैं।

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