नगरी अथवा माध्यमिका , शुंग कालीन नगर था। नगरी से प्राप्त ब्राह्मी लिपि के एक शिलालेख में लिखा है- “स वा भूतानाम् दयाथम् कारिता।” अर्थात् इस शिलालेख में भगवान बुद्ध द्वारा समस्त जीवों के प्रति दया करने के उपदेश की ओर संकेत किया गया है। यह शिलालेख दूसरी शताब्दी ई.पू. अर्थात् शुंगकालीन है। माध्यमिका से प्राप्त बौद्ध स्तूप तथा नारायण वाटिका की वैष्णव प्रतिमाएं उस युग की बौद्ध कला तथा धार्मिक मान्यताओं का प्रमाण हैं।
नगरी से एक मूर्तिमय पाषाण खण्ड मिला है जिसे किसी बौद्ध द्वार का खण्ड माना गया है। डॉ. मधुकर भण्डारकर ने यहां एक ढांचा देखा था जो क्षितिज के समानान्तर पंक्ति वाला था। उसमें लटकती हुई भारी मालाओं का अंकन किया गया था। नगरी से बहुत सी स्थापत्य सामग्री ले जाकर चित्तौड़ दुर्ग में लगाई गई।
चित्तौड़ दुर्ग
हेनरी कजेन्स नामक विद्वान ने चित्तौड़ दुर्ग के कालिका मंदिर से उत्तर-पश्चिम में लगभग आधा किलोमीटर दूरी पर 10 बौद्ध स्तूप पहचाने थे। ये 10 स्तूप एक ही प्रकार के थे। इनमें सबसे बड़ा 3 फुट तीन इंच ऊंचा था। इसका आधार एक फुट आठ इंच वर्गाकार था। ऊपरी भाग वर्तुलाकार था उसके ऊपर गुम्बद की आकृति थी। नीचे, चारों तरफ बैठी भगवान बुद्ध की 16 प्रतिमाएं थीं।
प्रत्येक प्रतिमा एक छोटे ताक में थी। इसके नीचे सिकुड़े गोल गर्दन की तरह की आकृति थी जिसमें से कमल के पत्ते निकल रहे थे। एक पंक्ति ऊपर की ओर तथा दूसरी नीचे की ओर जाती थी। इसके नीचे पुनः चौकोर स्थान आगे निकले ताकों को स्थान देता हुआ था और उनमें से प्रत्येक में भगवान बुद्ध की ध्यान मुद्रा, अभय मुद्रा एवं वरद् मुद्राओं में प्रतिमाएं विराजमान थीं। हर एक के नीचे मुद्रा अंकित थी।
बौद्ध मूर्तियों पर यक्ष मूर्तियों का प्रभाव
ब्रज क्षेत्र में यक्ष पूजा की परम्परा बहुत पुरानी है। शुगकालीन मूर्तिकारों ने इनकी विशालकाय प्रतिमाएं बनाईं जो 8-9 फुट ऊंची तथा भारी-भरकम काया वाली थीं। इनके शरीर पर धोती तथा उत्तरीय के साथ सिर पर भारी पगड़़ी और विविध प्रकार के आभूषण उत्कीर्ण किये जाते थे। नोह ग्राम की यक्ष प्रतिमा आज भी पूजा में होने के कारण ज्ञात और प्रसिद्ध है। यह प्रतिमा आगे ओर पीछे दोनों और उकेरी गई है अतः चारों से देखी जा सकती है। भरतपुर संग्रहालय में यक्ष एवं यक्षी प्रतिमाओं का अच्छा संग्रह है। यही मूर्तियां आगे चलकर भारत में जैन एवं बौद्ध प्रतिमाओं का आदर्श बनीं।
लालसोट स्तूप के अवशेष
दौसा के निकट लालसोट से कुछ छतरियां मिली हैं। इनमें से एक छतरी में लाल प्रस्तर निर्मित छः स्तम्भ लगे हुए हैं। प्रत्येक स्तम्भ पांच फुट ऊँचा है जो नीचे और ऊपर चौकोर तथा बीच में अष्टकोणीय है। इन पर बीच में एक स्तम्भ पर बौद्ध द्वार का अंकन है। ये समस्त स्तम्भ किसी प्राचीन बौद्ध स्तूप के भाग रहे होंगे तथा द्वार अंकित स्तम्भ, स्तूप के सामने रहा होना चाहिये। स्तंभ पर अंकित स्तूप के ऊपर एक छत्र है और स्तूप के चारों ओर घेरा है।
इन स्तम्भों के दोनों ओर उत्कीर्ण किये गये अंश सूची स्तम्भ लगाने के काम आते थे। इन स्तम्भों पर बनी पुरुषाकृतियां तथा कमल का अंकन महत्वपूर्ण है। यह अंकन सांची और भरहुत स्तूप के घेरे जैसा है। इस प्रकार का अंकन शुंग काल में होता था। यह भी शुंग कालीन अंकन है। संभवतः लालसोट में इस स्थान पर कोई शुंगकालीन स्तूप था, ये स्तम्भ उस स्तूप का हिस्सा जान पड़ते हैं।
भाण्डारेज
दौसा के निकट भाण्डारेज नामक स्थान से बौद्ध स्तूप शिलाओं के अवशेष मिले हैं। इन भग्नवाशेषों की प्राप्ति से यह सिद्ध होता है कि विराट नगर (बैराठ) से लेकर भाण्डारेज तथा आसपास का विशाल क्षेत्र बौद्ध कला के विकास का क्षेत्र था।
रैढ़
डॉक्टर केदारनाथ पुरी ने तत्कालीन जयपुर राज्य के रैढ़ गांव में पत्थरों से निर्मित एक ऐसे पात्र के टुकडे़ प्राप्त किये थे जिसके साथ सेलखड़ी से बने संदूक तथा पॉलिशदार बौद्ध पात्र के अवशेष थे। ऐसी वस्तुएं वहां मिलती हैं जहां भगवान बुद्ध की अस्थियां रखी जाती थीं। अतः अनुमान किया जाता है कि रैढ़ में भी ऐसा चैत्य था जहां भगवान बुद्ध की अस्थियां रखी गई थीं। इस स्थान से 7 सेन्टीमीटर की ऊँचाई का एक टुकड़ा मिला था जो किसी देवी प्रतिमा का पांव प्रतीत होता है।
इस मूर्ति के पार्श्व में ‘बिना सिर की भक्तिन की एक मूर्ति मिली है जिसके हाथ में माला है। यह शुंगकालीन है। रैढ़ से छिद्र युक्त मृण्मय पात्र मिले हैं। ये शुंगकालीन बौद्ध पात्र हैं। अनुमान किया जाता है कि ये बौद्ध पात्र रैढ़ में नहीं बनते थे अपितु बाहर से आते थे। ऐसे पात्र बैराठ की खुदाई में भी मिले हैं। हो सकता है कि ये पात्र वहीं से रैढ़ में लाये जाते हों।
सांभर
हैण्डले ने अपने लेख ‘बुद्धिस्ट रिमेन्स नीयर सांभर’ में यह निष्कर्ष दिया है कि सांभर के निकट नलियासर का टीला बौद्धों का स्थान था किंतु दयाराम साहनी की खोज में यह प्रमाणित हुआ कि यह एक ब्राह्मणीय स्थल था। ईसा पूर्व दूसरी शती में वैदिक धर्म के पुनर्जीवन का सिद्धांत एक मिट्टी की मोहर से प्रमाणित है। यहां से यज्ञ सम्बन्धी सामग्री भी मिली है।
बैक्ट्रियिन कालीन स्मारक एवं मूर्तियां
जिस समय मगध पर शुंगवंश का शासन था, बैक्ट्रिया के शासक डिमेट्रियस ने पश्चिमी भारत पर आक्रमण करके काफी बड़े क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। उसके पुत्र मिनेण्डर अथवा मेनेन्द्र ने अपने राज्य को गांधार से लेकर मथुरा तक विस्तृत कर लिया। उसकी कुछ मुद्राओं पर ऊंट का चित्र बना हुआ है, जो राजस्थान पर उसके आधिपत्य को प्रकट करता है।
पतंजलि की व्याकरण में अनायास ही आये एक उद्धरण से ज्ञात होता है कि माध्यमिका (चित्तौड़ से 8 मील दूर स्थित नगरी) को एक यवन ने अभी-अभी ही अपने अधिकार में लिया है। यह शासक डिमैट्रियस अथवा मिनैण्डर अनुमानित किया जाता है। डिमैट्रियस तथा मिनैण्डर ने राजपूताना, काठियावाड़ तथा सिन्ध आदि क्षेत्र अपने अधीन किये। नागसेन नामक बौद्ध भिक्षु ने मिनेण्डर को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया। बौद्ध ग्रन्थों में उसे मिलिन्द कहा गया है। उसका शासन काल 160 ई.पू. से 140 ई.पू. तक माना जाता है।
मिनेण्डर बौद्धों का आश्रयदाता बन गया। उसने अनेक बौद्ध मठों, स्तूपों तथा विहारों का निर्माण करवाया। वृद्धावस्था में उसने एक बौद्ध भिक्षु की तरह जीवन व्यतीत किया और अर्हत् का पद प्राप्त किया। मिनेण्डर के निर्बल उत्तराधिकारियों ने 50 ई.पू. तक भारतीय क्षेत्रों पर शासन किया। अन्त में शकों ने उनके राज्य पर अधिकार स्थापित कर लिया।