एकलिंगजी मंदिर हजारों साल पुराना है। मान्यता है कि मेवाड़ राज्य की स्थापना करने वाले राजा ने इस स्थान पर भगवान शिव की उपासना की थी। मेवाड़ के इतिहास में एक समय ऐसा भी आया जब पिण्डारी नेता अमीर खाँ ने मंदिर को तोड़ने की धमकी दी।
मेवाड़ रियासत संसार की सबसे गौरवशाली और सदा स्वतंत्र रहने वाली रियासत थी किंतु इस रियासत को अठारहवीं सदी के अंत एवं उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में नर्मदा पार से आए मराठों ने घुन की तरह खाकर खोखला कर दिया तथा उन्नीसवीं शताब्दी में पिण्डारियों ने लूटमार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
यहाँ तक कि पिण्डारियों का एक नेता अमीर खाँ मेवाड़ के इष्टदेव एकलिंगजी के मंदिर पर चढ़ आया और महाराणा भीमसिंह को धमकी दी कि यदि महाराणा अमीर खाँ को ग्यारह लाख रुपए नहीं देगा तो वह एकलिंगजी का मंदिर तोड़ डालेगा।
बहुत ही संकट भरे दिन थे वे मेवाड़ के लिए। इस घटना का इतिहास जानने से पहले हमें पिण्डारियों के बारे में जानना होगा।
उन्नीसवीं सदी समस्त राजपूत रियातसों के लिए एक बुरे स्वप्न की तरह शुरु हुई थी। इस काल में मध्य भारत में पिण्डारियों के अनेक खूंखार दल पनप गए थे जो राजपूत रियासतों का खून चूसकर ताकतवर हो रहे थे। ये पिण्डारी कौन थे और देश में अचानक कहाँ से प्रकट हुए थे इनके सम्बन्ध में कई बातें कही जाती थीं।
जब औरंगजेब के अत्याचारों के कारण पूरा देश मुगलों का दुश्मन हो गया और अठारहवीं शताब्दी के मध्य में राजपूतों ने मुगलों से सम्बन्ध तोड़ लिए तथा मुगल राज्य अस्ताचल को लुढ़क गया। इस पर मुगल सैनिक बेरोजगार होकर लुटेरों के रूप में संगठित हो गए और उत्तर भारत के मैदानों में लूटमार करने लगे।
अठारहवीं सदी के अंत में जब अंग्रेजों ने मराठा सरदारों की कमर तोड़ी तो हजारों मराठा सैनिक भी बेरोजगार होकर मारे-मारे फिरने लगे। धीरे-धीरे ये मराठा सैनिक भी मुगल लुटेरे सैनिकों के गुटों में शामिल होने लगे। इन्हीं को सम्मलित रूप से पिण्डारी कहा गया।
पिण्डारी मराठी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है लुटेरे सैनिक। उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में ये पिंडारी इतने शक्तिशाली हो गए कि वे देशी रियासातें के साथ-साथ अंग्रेजी इलाकों पर भी धावे मारने लगे।
पिण्डारियों के दल टिड्डी दल की भांति अचानक गाँव में घुस आते और लूटमार मचाकर भाग जाते। कोई गाँव, कोई व्यक्ति, कोई जागीरदार तथा कोई राजा उनसे सुरक्षित नहीं था।
अतः प्रत्येक गाँव में ऊँचे मचान बनाए जाने लगे। लोग उन पर बैठकर पिण्डारियों की गतिविधियों पर नजर रखते थे।
घोड़ों की टापों से उड़े धूल के गुब्बार को देखकर पिण्डारियों के आगमन का अनुमान लगाया जाता था और ढोल-नगाड़े बजाकर गांव वालों को पिण्डारियों के आने की सूचना दी जाती थी।
पिण्डारियों के आने की सूचना मिलते ही लोग अपने स्त्री, बच्चे, धन, जेवर तथा रुपये आदि लेकर इधर-उधर छिप जाया करते थे। जागीरी गाँवों की जनता, निकटवर्ती किलों में घुस जाती थी ताकि किसी तरह प्राणों की रक्षा हो सके।
कई बार लोगों ने पिण्डारियों के हाथों में पड़ने से बचाने के लिए अपने परिवारों को आग में झौंक दिया। बहुत से लोग कुओं में कूदकर अपने प्राण देते थे।
पिण्डारी किसी भी गाँव में अधिक समय तक नहीं ठहरते थे। वे आंधी की तरह आते और लूटमार मचाकर तूफान की तरह निकल जाते।
पिण्डारियों के कारण मारवाड़, मेवाड़, ढूंढाड़ तथा हाड़ौती जैसे समृद्ध क्षेत्र उजड़ने लगे। भीलवाड़ा जैसे कई कस्बे तो पूरी तरह वीरान हो गए।
पिण्डारियों ने कोटा राज्य को खूब रौंदा। झाला जालिमसिंह ने पिण्डारियों के विरुद्ध विशेष सैन्य दल गठित किए।
इक्का दुक्का आदमियों को मार्ग में पाकर ये पिण्डारी अपने रूमाल से उनका गला घोंट देते थे। उनके रूमाल में कांच की एक गोली होती थी जो सांस की नली पर दबाव डालकर शिकार का शीघ्र ही दम घोट देती थी।
पिण्डारी अपने शिकार का सर्वस्व लूट लेते थे। इस समय पिण्डारियों के चार प्रमुख नेता थे- करीम खाँ, वसील मुहम्मद, चीतू खाँ और अमीर खाँ।
अमीर खाँ के नेतृत्व में लगभग 60 हजार पिण्डारी राजपूताना में लूटमार किया करते थे। अमीर खाँ का दादा तालेब खाँ, अफगान काली खाँ का पुत्र था। तालेब खाँ मुहम्मदशाह गाजी के काल में बोनेमर से भारत आया था।
तालेब खाँ का लड़का हयात खाँ था जो मौलवी बन गया था। हयात खाँ का लड़का अमीर खाँ भारत में ही पैदा हुआ था जो 20 बरस का होने पर रोजी-रोटी की तलाश में घर से निकल गया।
उन दिनों मराठा सरदार सिंधिया का फ्रांसिसी सेनापति डीबोग्ले सेना की भर्ती कर रहा था। अमीर खाँ ने भी इस सेना में भर्ती होना चाहा किंतु डीबोग्ले ने उस अनुशासनहीन लड़के को अपनी सेना में नहीं लिया।
इस पर अमीर खाँ इधर-उधर भटकता हुआ आवारागर्दी करने लगा तथा कुछ समय बाद जोधपुर के महाराजा विजयसिंह की सेना में भर्ती हो गया। उसने बहुत से मुसलमान सिपाहियों को अपना दोस्त बना लिया।
धीरे-धीरे उसके गुट में तीन-चार सौ लुटेरे हो गए। कुछ समय बाद वह अपने तीन-चार सौ लुटेरों को लेकर बड़ौदा चला गया और मराठा राजा गायकवाड़ की सेना में भर्ती हो गया।
कुछ दिन वहाँ से भी निकाले जाने पर अमीर खाँ और उसके आदमी भोपाल नवाब की सेवा में चले गए। ई.1794 में अमीर खाँ और उसके आदमियों ने भोपाल नवाब चट्टा खाँ के मरने के बाद हुए उत्तराधिकार के युद्ध में भाग लिया और वहाँ से भागकर रायोगढ़ में आ गए।
यहाँ उसके आदमियों की संख्या 500 तक जा पहुंची। कुछ समय बाद अमीर खाँ का राजपूतों से झगड़ा हो गया। राजपूतों ने उसे पत्थरों से मार-मार कर अधमरा कर दिया। कई महीनों तक अमीर खाँ सिरोंज में पड़ा रहकर अपना उपचार करवाता रहा।
ठीक होने पर वह भोपाल के मराठा सेनापति बालाराम इंगलिया की सेना में भर्ती हो गया। वहाँ उसे 1500 सैनिकों के ऊपर नियुक्त किया गया। कुछ दिन बाद अमीर खाँ मराठा राजा जसवंतराव होलकर की सेवा में चला गया।
ई.1806 में अमीर खाँ ने अपनी सेना में 35 हजार पिण्डारियों को भर्ती किया। उसके पास 115 तोपें भी हो गईं। यह संख्या बढ़ती ही चली गई। अब मराठा सरदार, अमीर खाँ की सेवाएं बड़े कामों में भी प्राप्त करने लगे।
अमीर खाँ के पिण्डारियों की संख्या 1 लाख 35 हजार के आसपास पहुँच गई।
अमीर खाँ ने जयपुर, जोधपुर और मेवाड़ राज्यों की आपसी शत्रुता में रुचि दिखाई तथा इन राज्यों का जीना हराम कर दिया। उसके पिण्डारियों ने इन तीनों राज्यों की प्रजा तथा राजाओं को जी भर कर लूटा।
ई.1809 में पिण्डारी अमीर खाँ मेवाड़ पर चढ़ आया। उसने महाराणा से कहलवाया कि या तो मुझे ग्यारह लाख रुपये दो नहीं तो मैं एकलिंगजी मंदिर को तोड़ दूंगा। मराठे पहले ही मेवाड़ राज्य को खोखला कर चुके थे इसलिए महाराणा के पास अमीर खाँ को देने के लिए रुपये नहीं थे।
महाराणा भीमसिंह एकलिंगजी मंदिर की रक्षा के लिए सेना लेकर आया किंतु थोड़ी ही देर लड़ने के बाद महाराणा हारकर उदयपुर लौट आया। विचित्र स्थिति थी। अमीर खाँ की सेना एकलिंगजी को घेरकर बैठी थी और महाराणा असहाय था।
अमीर खाँ को मराठों की तरफ से अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने के लिए जाना था इसलिए वह अपने सेनापति जमशेद खाँ को मेवाड़ की जनता से रुपये वसूलने के लिए छोड़कर दूसरे मोर्चे पर चला गया।
जमशेद खाँ के पठान सैनिकों ने मेवाड़ की जनता पर कई तरह के जुल्म ढाए। उसके जुल्मों को मेवाड़ में जमशेदगर्दी कहा गया। जब जमशेद खाँ ने जनता से 11 लाख रुपए वसूल कर लिए तो वह भी एकलिंगजी का मंदिर छोड़कर अमीर खाँ के पास चला गया।
इस प्रकार एकलिंगजी मंदिर बच गया।
मेवाड़ के महाराणा एकलिंजी को मेवाड़ का वास्तविक शासक मानते थे और स्वयं को राज्य का दीवान कहते थे। एकलिंगजी की यह गरिमा सदैव बनी रही और एकलिंगजी मंदिर आज भी पूरी भव्यता और शान से खड़ा हुआ है।
ई.1817-18 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने पिण्डारियों के विरुद्ध गंगा-यमुना और चम्बल के मैदानों में विराट सैनिक अभियान चलाया और हजारों पिण्डारियों को मार गिराया तब कहीं जाकर देश को पिण्डारियों के आतंक से मुक्ति मिली।
अंग्रेजों ने अमीर खाँ के लिए टौंक रियासत का निर्माण किया और उसे नवाब की पदवी दी। इस प्रकार राजपूताने में पहली मुस्लिम रियासत अस्तित्व में आई।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता