पुष्यभूतियों का उदय एवं गुहिलों का गुजरात से राजस्थान की ओर आगमन ये दोनों बिल्कुल अलग घटनाएं हैं किंतु ये लगभग एक ही काल में घटित हुईं। यदि इनमें कुछ साम्य है, तो वह यह है कि ये दोनों घटनाएं गुप्त साम्राज्य के विघटन की बेला में हुईं। ये दोनां शक्तियां भारत के राजनीतिक आकाश में गुप्तों की अनुपस्थिति से उत्पन्न हुई शून्यता को भरना चाहती थीं।
छठी शताब्दी ईस्वी के आरम्भ में जब गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने की प्रक्रिया में था, प्राचीन क्षत्रियकुल जो कि अब तक गुप्तों के अधीन सामंत के रूप में राज्य कर रहे थे, अपने-अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित करने लगे एवं उनके विस्तार के लिये परस्पर संघर्ष में उलझ गये।
छठी शताब्दी के आरम्भ में थानेश्वर में एक नये राजवंश की स्थापना हुई। इस वंश का संस्थापक पुष्यभूति था जो भगवान शिव का परम भक्त था। यद्यपि थाणेश्वर का पुष्यभूति मगध के गुप्तों का वैश्य सामंत प्रतीत होता है तथापि उसके काल से ही पुष्यभूतियों का उदय होना आरम्भ हो गया था। उसके नाम पर इस वंश को ‘पुष्यभूति वंश’ कहा जाता है। उसके अधिकांश वंशजों के नाम के अंत में वर्धन प्रत्यय लगा हुआ है, इससे इस वंश को ‘वर्धन वंश’ भी कहा जाता है। पुष्यभूतियों का उदय भारत के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना थी।
पुष्यभूति के उपरान्त नरवर्धन, राज्यवर्धन तथा आदित्यवर्धन नामक शासक हुए जो किसी स्वतंत्र शासक के सामन्त के रूप में शासन कर रहे थे। इनमें से कुछ शासक निश्चित रूप से गुहिल के समकालीन रहे होंगे। हर्ष चरित के अनुसार प्रभाकरवर्धन इस वंश का चौथा शासक था। वह 580 ई. में सिंहासन पर बैठा। उसने परमभट्टारक तथा महाराजाधिराज उपाधियां धारण कीं जिनसे ज्ञात होता है कि वह स्वतंत्र तथा प्रतापी शासक था।
उसने गुर्जरों के विरुद्ध सफलतापूर्वक युद्ध किया। हर्ष चरित में उसे ‘हुणहरिणकेसरी’ कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि उसने भी हूणों से संघर्ष किया तथा उनके विरुद्ध महत्त्वपूर्ण सफलताएं अर्जित कीं। प्रभाकरवर्धन के चार संतानें थीं, तीन पुत्र- राज्यवर्धन, हर्षवर्धन तथा कृष्णवर्धन और एक पुत्री- राज्यश्री। राज्यश्री का विवाह कान्यकुब्ज (कन्नौज) के मौखरी राजा ग्रहवर्मन के साथ हुआ था। ई.604 में प्रभाकरवर्धन ने राज्यवर्धन तथा हर्षवर्धन के नेतृत्व में हूणों के विरुद्ध एक बड़ी सेना भेजी। राज्यवर्धन और हूणों में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। इसमें राज्यवर्धन के शरीर पर बाणों के अनेक घाव लगे। अभी युद्ध चल ही रहा था कि थानेश्वर में प्रभाकरवर्धन बीमार पड़ा और उसकी मृत्यु हो गई। इस कारण राज्यवर्धन, युद्ध छोड़कर राजधानी थानेश्वर लौट आया। राज्यवर्धन राजा बना किंतु ई.605 में गौड नरेश शशांक ने छल से राज्यवर्धन की हत्या कर दी।
उसके बाद ई.606 में उसका छोटा भाई तथा इस वंश का सबसे महान एवं प्रतापी राजा हर्षवर्धन, पुष्यिभूतियों के सिंहासन पर बैठा। उसने सिंहासन पर बैठते ही अपने भाई राज्यवर्धन एवं बहनोई ग्रहवर्मन की हत्या का बदला लेने के लिये अपने शत्रुओं पर आक्रमण किया तथा दिग्विजय यात्रा की।
हर्षवर्धन ने अपने राज्य में थानेश्वर, जालंधर, शतदु्र एवं श्रुघ्न (सतलज के पूर्व में), काश्मीर, सिन्ध, उत्तर प्रदेश, नेपाल, मगध, कामरूप (असम), बंगाल, उड़ीसा, वल्लभी आदि क्षेत्र सम्मिलित कर लिये।
ई.634 में हर्ष ने दक्षिण भारत पर अभियान आरम्भ किया किंतु वल्लभी राज्य के दक्षिण में स्थित चालुक्य वंश के राजा पुलकेशिन (द्वितीय) ने नर्मदा के तट पर हर्ष का सामना किया और उसे परास्त कर दिया। हर्ष निराश होकर नर्मदा के तट से लौट आया। नर्मदा ही उसके राज्य की सीमा बन गई। ह्वेनसांग ने भी इस युद्ध में हर्ष की पराजय का उल्लेख किया है। ह्वेनसांग ने पंचभारत को हर्ष के राज्य में बताया है।
इस पंचभारत का साम्य पंजाब (हरियाणा, हिमाचल प्रदेश एवं सिंध सहित), उत्तर प्रदेश (उत्तराखण्ड सहित), बिहार (मगध सहित), बंगाल (असम सहित) और उड़ीसा से किया जाता है। ई.648 में हर्ष की मृत्यु हो गई तथा उसकी मृत्यु के बाद उसका राज्य बिखर गया।
राजस्थान का भी बहुत सा भू-भाग हर्षवर्धन (ई.606-648) के अधीन था। इस काल में गुहिल के वंशज भोज, महेन्द्र, और नाग नामक राजा हुए जिनके बारे में कुछ भी इतिहास ज्ञात नहीं हो पाया है। ख्यातों में भोज को भोगादित्य तथा भोजादित्य, एवं नाग को नागादित्य लिखा है।
मेवाड़ के लोगों का कथन है कि नागदा नगर, जिसका नाम प्राचीन शिलालेखों में नागहृद या नागद्रह मिलता है, नागादित्य का बसाया हुआ है। नागादित्य का उत्तराधिकारी शीलादित्य हुआ जिसे मेवाड़ के शिलालेखों में शील भी लिखा गया है।
नागादित्य के काल का एक शिलालेख वि.सं.703 (ई.646) का सामोली गांव से मिला है। उस शिलालेख में कहा गया है कि शत्रुओं को जीतने वाला, देव, ब्राह्मण और गुरुजनों को आनन्द देने वाला और अपने कुल रूपी आकाश का चन्द्रमा राजा शीलादित्य पृथ्वी पर विजयी हो रहा है।
उसके समय वटनगर से आये हुए महाजनों के समुदाय ने जिसका मुख्यिा जेक (जेंतक) था, आरण्यक गिरि में लोगों का जीवन साधन रूपी आगर उत्पन्न किया और महाजनों की आज्ञा से जेंतक महत्तर ने अरण्यवासिनी देवी का मंदिर बनाया जो अनेक देशों से आये हुए अट्ठारह बैतालिकों (स्तुतिगायकों) से विख्यात और नित्य आने वाले धनधान्य सम्पन्न मनुष्यों की भीड़ से भरा हुआ था। उसकी प्रतिष्ठा कर जेंतक महत्तर ने यमदूतों को आते हुए देख ‘देवबुक’ नामक सिद्धस्थान में अग्नि में प्रवेश किया।
यह शिलालेख हर्ष की मृत्यु से केवल 2 वर्ष पूर्व की तिथि का है। इससे स्पष्ट है कि हर्ष की मृत्यु के समय शीलादित्य गुहिलों का राजा था। चूंकि यह शिलालेख सामोली गांव से मिला है तथा इसमें वटनगर से आये महाजनों का उल्लेख है इसलिये अनुमान लगाया जा सकता है कि इस काल में गुहिलों का राज्य इसी क्षेत्र के निकटवर्ती क्षेत्र में स्थित रहा होगा।
वटनगर का प्राचीन नाम वसिष्ठनगर था किंतु बाद में वसंतनगर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वर्तमान में इस नगर के ध्वंसावशेष, सिरोही जिले में स्थित हैं। सामोली गांव भी इस नगर के ध्वंसावशेषों से अधिक दूर नहीं है तथा सामोली से लेकर वटनगर तक का पूरा क्षेत्र, गुजरात से अधिक दूर नहीं है। इसलिये अनुमान किया जा सकता है कि गुहिल इस काल में गुजरात की तरफ केन्द्रित रहे होंगे तथा इसी मार्ग से राजस्थान की तरफ बढ़े होंगे।
राजा शील का एक ताम्बे का सिक्का मिला है। जिस पर एक तरफ शील का नाम सुरक्षित है किंतु दूसरी तरफ के अक्षर अस्पष्ट हैं। राजस्थान में आने के बाद गुहिल शासक, पहले नागदा को तथा बाद में आहाड़ को अपनी राजधानी बनाकर राज्य करने लगे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पुष्यभूतियों का उदय एवं गुहिलों का गुजरात से राजस्थान की ओर आगमन, ये दोनों घटनाएंराजस्थान के इतिहास में क्रांतिकारी मोड़ लेकर आईं।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता