मध्य एशिया में स्थित सउदी अरेबिया नामक देश के मक्का नामक एक प्राचीन नगर में रहने वाले कुरेश कबीले में ई.570 में पैगम्बर मुहम्मद का जन्म हुआ। मुहम्मद जब लगभग चालीस वर्ष की अवस्था में पहुंचे, तब एक दिन उन्हें ‘फरिश्ता जिबराइल’के दर्शन हुए जो उनके पास ‘अल्लाह का पैगाम’अर्थात् संदेश लेकर आया। यह संदेश इस प्रकार से था- ‘अल्लाह का नाम लो, जिसने सब वस्तुओं की रचना की है।’इसके बाद मुहम्मद साहब को प्रत्यक्ष रूप में अल्लाह के दर्शन हुए और यह संदेश मिला- ‘अल्लाह के अतिरिक्त कोई दूसरा ईश्वर नहीं है और मुहम्मद उसका पैगम्बर है।’
पैगम्बर मुहम्मद का मत ‘इस्लाम’कहलाया। उन्होंने मूर्तिपूजा तथा बाह्य आडम्बरों का विरोध किया। मुहम्मद के जीवन काल में ही इस्लाम को सैनिक तथा राजनीतिक स्वरूप प्राप्त हो गया। जब ई.622 में मुहम्मद मक्का से मदीना गये तब वहाँ पर उन्होंने अपने अनुयायियों की एक सेना संगठित की और मक्का पर आक्रमण कर दिया। इस प्रकार उन्होंने अपने सैन्य-बल से मक्का में सफलता प्राप्त की। मुहम्मद न केवल इस्लाम के प्रधान स्वीकार कर लिये गये वरन् वे राजनीति के भी प्रधान बन गये और उनके निर्णय सर्वमान्य हो गये। इस प्रकार पैगम्बर मुहम्मद के जीवन काल में इस्लाम की स्थापना हुई तथा इस्लाम एवं राज्य के अध्यक्ष का पद एक ही व्यक्ति में संयुक्त हो गया।
खलीफाओं का शासन
मुहम्मद की मृत्यु के उपरान्त उनके उत्तराधिकारी खलीफा कहलाये। मुहम्मद के बाद मुहम्मद के ससुर अबूबकर, प्रथम खलीफा चुन लिए गये। उनके प्रयासों से मेसोपोटमिया तथा सीरिया में इस्लाम का प्रचार हुआ। अबूबकर की मृत्यु होने पर ई.634 में उमर खलीफा बने। उमर ने इस्लाम के प्रचार में जितनी सफलता प्राप्त की उतनी सम्भवतः अन्य किसी खलीफा ने नहीं की। उन्होंने इस्लाम के अनुयायियों की एक विशाल सेना संगठित की और साम्राज्य विस्तार तथा धर्म प्रचार का कार्य साथ-साथ आरम्भ किया।
जिन देशों पर उनकी सेना विजय प्राप्त करती थी, वहाँ के लोगों को मुसलमान बना लेती थी। इस प्रकार थोड़े ही समय में फारस, मिस्र आदि देशों में इस्लाम का प्रचार हो गया। खलीफाओं ने इस्लाम की बड़ी सेवा की तथा इस्लाम का दूर-दूर तक प्रचार किया।
खलीफाओं के समय में भी इस्लाम तथा राजनीति में अटूट सम्बन्ध बना रहा क्योंकि खलीफा, न केवल इस्लाम के अपितु राज्य के भी प्रधान होते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि खलीफाओं के राज्य का शासन कुरान के अनुसार होने लगा। इससे राज्य में मुल्ला-मौलवियों का प्रभाव बढ़ा तथा राज्य ने धार्मिक असहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया।
इस्लाम का प्रचार शान्तिपूर्वक एवं सन्तों द्वारा नहीं वरन् राजनीतिज्ञों और सैनिकों द्वारा तलवार के बल पर किया गया। परिणाम यह हुआ कि जहाँ कहीं इस्लाम का प्रचार हुआ वहाँ की धरा रक्त-रंजित कर दी गई। इस्लामी सेनाध्यक्ष युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिये ‘जेहाद’अर्थात् धर्म युद्ध का नारा लगाते थे जिसका अर्थ था, विधर्मियों का सर्वनाश।
इस्लाम का भारत पर प्रथम आक्रमण
ई.711 में ईरान के गवर्नर हज्जाज ने खलीफा की आज्ञा लेकर अपने भतीजे तथा दामाद मुहम्मद बिन कासिम की अध्यक्षता में एक सेना सिन्ध पर आक्रमण करने भेजी। यह भारत पर इस्लाम का प्रथम आक्रमण था। इन दिनों सिंध में दाहिरसेन शासन कर रहा था। कासिम ने विशाल सेना लेकर देवल (देबुल) नगर पर आक्रमण किया। इस आक्रमण से नगरवासी अत्यन्त भयभीत हो गये और वे कुछ न कर सके।
देबुल पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। देबुल में कासिम ने कठोरता की नीति का अनुसरण किया तथा नगरवासियों को मुसलमान बन जाने की आज्ञा दी। सिंध के लोगों ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। इस पर मुहम्मद बिन कासिम ने अपनी सेना को देबुलवासियों की हत्या करने की आज्ञा दी। सत्रह वर्ष से ऊपर की आयु के पुरुषों को तलवार के घाट उतार दिया गया। स्त्रियों तथा बच्चों को दास बना लिया गया। नगर को लूटकर, लूट का सामबिान सैनिकों में बाँट दिया गया।
देबुल पर अधिकार कर लेने के बाद मुहम्मद बिन कासिम की सेना नीरून, सेहयान आदि नगरों को जीतती हुई, दाहिरसेन की राजधानी ब्राह्मणाबाद पहुँची। दाहिरसेन ने बड़ी वीरता तथा साहस के साथ शत्रु का सामना किया परन्तु वह परास्त हो गया। रणक्षेत्र में ही उसकी मृत्यु हो गई तथा उसकी रानी ने अन्य स्त्रियों के साथ चिता में बैठकर अपने सतीत्व की रक्षा की।
ब्राह्मणाबाद पर प्रभुत्व स्थापित कर लेने के बाद कासिम ने मूलस्थान (मुल्तान) की ओर प्रस्थान किया। मूलस्थान के शासक ने भी बड़ी वीरता के साथ शत्रु का सामना किया परन्तु जल के अभाव के कारण उसे आत्मसमर्पण कर देना पड़ा। यहाँ भी कासिम ने भारतीय सैनिकों एवं नागरिकों की हत्या करवाई और उनकी स्त्रियों तथा बच्चों को गुलाम बना लिया। जिन लोगों ने उसे ‘जजिया’देना स्वीकार किया उन्हें मुसलमान नहीं बनाया गया। यहाँ पर हिन्दुओं के मन्दिरों को तो नहीं तोड़ा गया परन्तु उनकी सम्पति लूट ली गई। मुल्तान विजय के बाद कासिम अधिक दिनों तक जीवित न रह सका। लूट के माल को लेकर खलीफा उससे अप्रसन्न हो गया। इसलिये उसने कासिम को वापस बुला कर उसकी हत्या करवा दी।
प्राचीन लोक आख्यानों के अनुसार मुहम्मद बिन कासिम आगे बढ़ता हुआ गंगा तक आ गया। उसने अंजर (अजमेर) पर आक्रमण करके मानिकराय को उखाड़ फैंका तथा उसके बाद चित्तौड़ पर भी आक्रमण किया जहाँ गुहिलवंशी बापा रावल ने उसे परास्त किया किंतु ये आख्यान इतिहास की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। स्थापित इतिहास के अनुसार मुहम्मद-बिन-कासिम का यह आक्रमण देवल, ब्राह्मणाबाद तथा मूलस्थान तक सीमित था।
बापा रावल इस समय तक चित्तौड़ का शासक नहीं बना था तथा गुहिलों का राज्य नागदा और उसके निकट अत्यंत छोटे भूभाग पर ही सीमित था। मुहम्मद बिन कासिम के अभियान क्षेत्र, सिंध एवं मुल्तान से बहुत दूर स्थित होने के कारण तथा इस काल में राजनीतिक एवं सामरिक दृष्टि से कमजोर होने के कारण संभवतः गुहिल इस आक्रमण से असंपृक्त रहे।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता